Thursday, October 4, 2012
आर्थिक सुधारों का दूसरा दौर
खुदरा कारोबार में विदेश निवेश को मंजूरी, डीजल के दाम बढ़ाने और एलपीजी पर सब्सिडी को सीमित करने के करीब 20 दिनों बाद दूसरे दौर के आर्थिक सुधारों को मंजूरी दिए जाने से यह सिद्ध हुआ है कि आलोचनाओं और विरोध के बवंडर से बेपरवाह डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार की आर्थिक सुधार की रेल बेधड़क दौड़ रही है। पेंशन में विदेशी निवेश को स्वीकृति और बीमा क्षेत्र में इसका दायरा बढ़ाने का सरकार का ताजा फैसला एक और राजनीतिक भूचाल लाने को तैयार है। सवाल उठता है कि नए फैसले में उसकी हिमायत कौन-कौन करने जा रहा है और जो विरोधी हैं, उनसे सरकार कैसे टक्कर लेने जा रही है। मनमोहन के सुधारों का अर्थव्यवस्था पर अच्छे परिणामों के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। इनसे सरकार को विपक्षी तीरों का जवाब देना आसान होने जा रहा है।
सरकार समझ रही है कि अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए बढ़ता औद्योगिकीकरण जरूरी है। जिस तरह के हालात हैं, देशी निवेशकों के समक्ष चुनौती अपनी पूंजी कायम रखने की है और वह नए निवेश की तरफ नहीं बढ़ रहे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी दस्तक दे रही है। अमेरिका समेत तमाम दुनिया के कई बैंक तक धराशाई हो चुके हैं। ऐसे में विदेशी निवेश एक सरल रास्ता हो सकता है। तथ्य यह भी है कि भारत के बड़े आकार के बाजार पर बड़ी विदेशी कम्पनियों की पहले से नजर है। ढेरों प्रस्ताव सत्ता के समक्ष लम्बित हैं यानी सरकार के समक्ष यह चुनौती भी नहीं है कि विदेशी निवेश जुटाया कहां से जाए। इसीलिये पेंशन क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश स्वीकृत किया गया जबकि बीमा क्षेत्र में इस निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत की गई। इससे पहले यूपीए सरकार ने 14 सितंबर को मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत एफडीआई की मंजूरी दी थी। साथी ही नागरिक उड्डयन क्षेत्र में एफडीआई नियमों में और ढील देने का फैसला किया था। प्रसारण क्षेत्र में भी एफडीआई को उदार बनाया गया था। सरकार दरअसल, सितम्बर में शुरू सुधार के अपने कदमों को आगे भी जारी रखना चाहती है। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद राजनीतिक माहौल भी अनुकूल ही है। समाजवादी पार्टी खुलकर साथ है तो बहुजन समाज पार्टी चुपचाप पीछे-पीछे चल रही है। यूपीए का घटक द्रमुक कहे कुछ भी लेकिन अपनी मजबूरियों के चलते वह अलग नहीं हो सकता है, यह बिल्कुल तय है। यूपीए को उम्मीद है कि वह विकास दर में गिरावट रोकने में सफल रहेगी। जून में नौ साल पुराने पेंशन फंड रेग्युलेटरी एण्ड डेवलपमेंट अथॉरिटी बिल को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के चलते कदम पीछे खींच लिये। इस बिलि से बिल से पेंशन नियामक तो कानूनी दर्जा मिलेगा। वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम की इसमें रुचि है, कार्यभार संभालने के तुरंत बाद उन्होंने बीमा और पेंशन बिलों को आगे बढ़ाने का फैसला किया था। नियामक खुद भी मानता है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ाने की जरूरत है। इरडा चेयरमैन जे. हरिनारायण का कहना है, 'जब तक हम यह सीमा 49 फीसदी नहीं करते, तब तक बीमा उद्योग के विकास के लिए हमें पर्याप्त पूंजी नहीं मिल पाएगी।'
सरकार के नए फैसले के प्रभावों का आकलन किया जाए तो तमाम विशेषज्ञों ने इसकी वकालत की है। उनका कहना है कि पेंशन क्षेत्र में इससे बड़े पैमाने पर पैसा आएगा, जिसे ढांचागत क्षेत्र में निवेश किया जा सकता है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में निवेश के लिए करीब 52 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। एसोचैम कहती है कि एफडीआई की इजाजत से ग्लोबल पेंशन फंड्स कंपनियों को भारतीय बाजार में कारोबार करने का मौका मिल सकेगा जिनके पास अथाह पैसा है और उन्हें भारत के विशाल बाजार में कमाई की स्वर्णिम संभावनाएं नजर आ रही हैं। विरोधी कहते हैं कि विदेशी निवेशकों के पास देने के लिए कोई भी नया बीमा उत्पाद नहीं है। ये भारतीय जीवन बीमा निगम से उलट सामाजिक दायित्वों से बचते हुए व्यापार की मलाई खाना चाहती हैं। आलोचक यह भी तर्क देते हैं कि पेंशन का मसला सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा है। भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक सुरक्षा का मसला बेहद संवेदनशील है, पेंशन में विदेशी निवेश से ज्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा क्योंकि सरकार अपने लोगों की सुरक्षा और कल्याण के बारे में जितना अधिक सोच और कर सकती है, उतना विदेशी कंपनियां नहीं सोचेंगी क्योंकि वे कारोबार के लिहाज से निवेश करेंगी।
दूसरी तरफ, सरकारी बीमा कंपनियां सामाजिक और आर्थिक विकास में बड़े पैमाने पर निवेश कर रही हैं और इनके इंश्योरेंस कवर का दायरा ऐसे क्षेत्रों तक फैल रहा है, जो अब तक अछूते थे। इसमें तेजी लाए जाने की जरूरत है। ढांचागत विकास का क्षेत्र सरकारी बीमा कंपनियों में 'सरप्लस जनरेशन' के जरिये निवेश पर निर्भर है। बीमा क्षेत्र में और विदेशी निवेश की इजाजत देकर सरकार विकास के लिए निवेश की इस प्रक्रिया को पंगु बना रही है जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ेगा। बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा बढ़ाने के मुद्दे पर यह नहीं भूला जाना चाहिए कि विदेश निवेशकों की दिलचस्पी माइनॉरिटी शेयर होल्डिंग में नहीं बल्कि अपने हित साधने में ज्यादा होगी। ये निवेशक विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने में भी रुचि नहीं दिखाएंगे। उनकी दिलचस्पी भारत के घरेलू सेविंग्स पर नियंत्रण करने और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होगी। बीमा और पेंशन को सबसे सर्वाधिक अहम मानकर विरोध करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा का कहना है कि एफडीआई से भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलभूत ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। अमेरिका हो या यूरोप या फिर कोई और देश, प्राइवेट बीमा कंपनियां पूरी तरह नाकाम रहीं और बर्बाद हो गई हैं।
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