Tuesday, October 23, 2012

मोर्चे पर कांग्रेस, कमान दिग्विजय पर

कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपनी पार्टी पर भ्रष्टाचार के लगातार आरोपों पर जवाब देने की कमान सम्हाली है। निशाने पर भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी हैं, जिनके विरुद्ध उन्होंने पीएम को सुबूत भेजे हैं। जिस तरह से वो सक्रिय हुए हैं, ये उनकी पार्टी की रणनीति है या खुद की मजबूरी? रणनीति का तर्क देने वाले मानते हैं कि कांग्रेस के हमलावर शैली के वह नेताओं में वो सबसे आगे हैं और मजबूरी यह हो सकती है कि वे पार्टी में उस हाशिये पर आ गए हैं, जहां उनकी न हिंदुओं में उपयोगिता बची है और न ही कांग्रेस को उनकी कार्यशैली से मुसलमानों वोटों का कोई लाभ मिलने वाला। दोनों वर्गों में दिग्विजय की छटपटाहट भरी राजनीतिक चाल को आसानी से पकड़ लिया गया है, इसीलिए उनसे सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर राजनीति में वे कहां खड़े हैं और जो कर रहे हैं उसमें राजनीतिक संकट आने पर कांग्रेस उनके साथ खड़ी रहेगी या नहीं? कांग्रेस का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इस प्रकार के अनेक नेता गुमनामी में जा चुके हैं। कांग्रेस ने पहले उनका भरपूर इस्तेमाल किया और जब उसकी लपटें कांग्रेस की तरफ आर्इं तो अपने बचाव में कांग्रेस ने सबसे पहले उसी को उन लपटों के हवाले कर दिया यानि न बांस रहा और न बांसुरी। कई दृष्टांत ऐसे हैं जो कांग्रेस की इस राजनीति को सहजता से स्थापित करते हैं। इसके शिकार कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह भी हो चुके हैं किंतु वे एक कदम चलते थे तो बीस कदम आगे की सोच लेते थे। उन्होंने इसी राजनीतिक चतुराई से अपने को लंबे समय तक बचाए रखा और जब उनकी उपयोगिता शून्य की ओर बढ़ी तो अर्जुन सिंह को भी सड़क दिखा दी गई। वैसे भी अर्जुन सिंह की भी उपयोगिता उस समय खत्म हो गई थी जब उनको बसपा के एक मामूली कार्यकर्ता ने लोकसभा चुनाव में उन्हें पराजित कर दिया था इसमें यह अलग बात है कि वहीं के कांग्रेसियों ने भी उस बसपाई को जिताने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दिग्विजय सिंह और अर्जुन सिंह की राजनीति में फर्क इतना है कि काफी समय तक उनके हर बयान के साथ समूची कांग्रेस खड़ी दिखाई देती थी, किंतु दिग्विजय के साथ ऐसा होता नहीं दिख रहा। अनेक आशंकाएं दिग्विजय सिंह पर मंडरा रही हैं क्योंकि वे अपने बयानों के बाद अकेले ही नजर आ रहे हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनने के बाद से वे लगातार विवादस्पद बयान देते और फिर उनसे पलटते आ रहे हैं? मुंबई में ताज होटल के हमलावरों से मोर्चा लेते हुए शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे का ही मामला लिया जाए। दिग्विजय सिंह का पहले कहना था कि करकरे ने उन्हें फोन किया था, और कॉल रिकार्ड पेश करते वक्त फरमा रहे हैं कि उन्होंने ही करकरे को पहले कॉल लगाई थी। आश्चर्य तो तब होता है जब उनका फोन एटीएस के मुंबई स्थित मुख्यालय में शाम पांच बजकर 44 मिनट पर पहुंचता है, वह भी इंटरनेट पर एटीएस के पीबीएक्स नंबर पर। कॉल रिकार्ड बताता है कि इस नंबर पर 381 सेकेंड बात हुई है। सवाल उठता है कि जब उस दिन दोपहर को ही मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादियों ने कब्जा जमा लिया था, तब क्या एटीएस चीफ करकरे के पास आतंकियों से निपटने और रणनीति बनाते हुए इतना समय था कि वे मोबाइल या फोन पर दिग्विजय सिंह से खुद को हिंदूवादियों से मिलने वाली धमकियों का दुखड़ा रोएं? इसके अलावा दिग्विजय सिंह खुद यह भी स्वीकार कर चुके हैं कि वे करकरे से कभी मिले भी नहीं थे, तब करकरे क्या पहली ही बातचीत में उनसे अपने मन की ऐसी बातें कह गए होंगे? दिग्विजय पहले तो कॉल रिकार्ड नहीं मिलने की बात कर रहे थे? उन्होंने कौन सी जादू की छड़ी से रिकार्ड तलब कर लिया? इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के गृह मंत्री आरआर पाटिल से माफी की मांग करने में भी देरी नहीं की। इसका एनसीपी और कांग्रेस के संबंधों पर तो कोई असर दिखाई नहीं दिया अलबत्ता दिग्विजय सिंह जरूर अलग-थलग पड़ गए। भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के इस दावे में दम लगता है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को एक मिशन पर लगाया हुआ है जिसका मकसद भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान बांटना है। हिंदू आतंकवादियों वाले बयान से दिग्विजय सिंह क्या हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज के हीरो बन गए हैं? देश-विदेश के किसी भी राजनेता ने या पाकिस्तान को छोड़कर किसी भी देश ने ऐसा बयान नहीं दिया। जैसाकि कुछ समय के पूर्व तक दिग्विजय सिंह की छवि कुछ और थी क्योंकि उन जैसे नेताओं के व्यक्तित्व से ऐसे बयान और आरोप बिल्कुल भी मेल नहीं खाते हैं। मुंबई आतंकी हमले के बाद शिवराज पाटिल को केंद्रीय गृहमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। महाराष्ट्र में सियासत करने वाले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी मुंबई हमले पर विवादस्पद बयान दिया था जिससे कांग्रेस को अंतुले से किनारा करना पड़ा था। यदि आपको याद हो तो देश के बहुचर्चित शाहबानो तलाक मामले में इसी कांग्रेस ने राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से पहले तो तलाक के खिलाफ बयान दिलवा दिया और जब इस पर तूफान उठा तो कांग्रेस ने आरिफ के बयान से अपने को अलग कर लिया। यही नहीं केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से इस्तीफा ले लिया गया और शाहबानों मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में संशोधन विधेयक के जरिए प्रभावहीन कर दिया गया। इस घटनाक्रम में आरिफ मोहम्मद खान जैसा दिग्गज और योग्य लीडर निपट गया। वह दिन और आज का दिन है आरिफ मोहम्मद खान देश तो छोड़िए अपने राज्य उत्तर प्रदेश और अपने ही जिले बहराइच के राजनीतिक परिदृश्य से ही ओझल हो चुके हैं। कांग्रेस को इस बात का कोई पछतावा नहीं है कि उसने आरिफ मोहम्मद खान को शाहबानो मामले में बलि का बकरा बनाया। कांग्रेस अब आरिफ मोहम्मद खान का नाम भी लेने से डरती है, उन्हें कांग्रेस में वापस लेने की बात तो बहुत दूर है। वे यह जानते हुए भी कि यह कांग्रेस है जिसमें डूब जाने वाले या डुबो दिए जाने वाले का पता नहीं चल पाया ऐसी राजनीतिक गलतियां करते जा रहे हैं जिनका कांग्रेस साथ देने वाली नहीं है पर दिग्विजय सबक नहीं ले रहे।

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