Saturday, December 13, 2014

दर्द का इलाज भी तो कीजिए...

कोई सात-आठ साल पहले की बात है, जीवन से त्रस्त महिला आत्महत्या के लिए घर से निकली और कुछ दूर स्थित रेल पटरियों पर पहुंच गई। कुछ दूरी पर ट्रेन थी, दिमाग तेजी से चला, बच्चों के चेहरे सामने घूमने लगे। निर्णायक पल में मन  मोह में पड़ गया, सोच बैठा कि नहीं करनी आत्महत्या पर हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे। शरीर को पीछे खींचा लेकिन साड़ी फंस गई और ट्रेन की चपेट में आकर दोनों पैर कट गए। दुर्भाग्य टूट पड़ा था। टांगें तो गई ही थीं, साथ ही में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत आत्महत्या के प्रयास का मुकदमा और दर्ज हो गया। कुछ समय बाद पति की मृत्यु हो गई। दोनों बच्चों का जिम्मा उसके सिर आ गया। उधर मुकदमे में पैरवी नहीं हो पायी, तारीख-दर-तारीख के बाद 40 वर्षीय यह महिला जेल चली गई। छह माह से जेल में है, और एक बच्चा राजकीय शिशु सदन में है तो दूसरा मोटर मैकेनिक के साथ काम करके किसी तरह जीवन काट रहा है। मां की रिहाई में अभी छह माह का समय बाकी है।
गोरखपुर की ये आपदा का पहाड़ टूट पड़ने सरीखी घटना थी। दुर्भाग्य से, ऐसी घटनाओं की संख्या अच्छी-खासी है। कानून-व्यवस्था के लिए गैरजरूरी सिद्ध हो रहे कानूनों को खत्म करने की तैयारी कर रही केंद्र सरकार ने धारा 309 को निष्प्रभावी करने का निर्णय किया है। बेशक, ऐसा होना चाहिये क्योंकि यह सरासर मानवता के खिलाफ धारा है। आत्महत्या का प्रयास उन्हीं हालात में किया जाता है जब किसी के लिए जिंदगी नरक बन जाए और ऐेसे हालात के मारे किसी व्यक्ति को खुदकुशी की कोशिश में नाकाम रहने पर जेल में डाल देना न तो न्यायोचित है और न ही समझदारी भरा कदम। केंद्र सरकार के स्तर पर लंबे समय से विचाराधीन इस फैसले की लाभ-हानि को समझने के लिए धारा 309 के इतिहास को जानना जरूरी है। ब्रिटिश काल में बनी भारतीय दंड संहिता में धारा 309 को शामिल कर आत्महत्या के प्रयास को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया था। सन 1863 में ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी सुविधा के अनुसार दंड संहिता बनाई थी, जिसमें आत्महत्या को अपराध के दायरे में शामिल करने के पीछे साम्राज्यवादी नीति और भारतीय समाज की विशिष्ट सामाजिक दशा थी। उस वक्त ग्रामीण आबादी बहुल भारतीय समाज में पारिवारिक कलह के ऊंचे ग्राफ के चलते आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक थी। सत्ता ने समस्या के मनोवैज्ञानिक निराकरण के बजाए इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया। इसके पीछे मंशा और भी थी। ब्रिटिश सरकार ने यह प्रावधान अपने अत्याचारों को कानून की आड़ में छिपाने के लिए किया था। तमाम उदाहरण बताते हैं कि ब्रिटिश सत्ता के जुल्म का शिकार होने पर पीड़ित की मौत को आत्महत्या में तब्दील कर दिया जाता था जबकि जिंदा बचने पर पीड़ित को आत्महत्या के प्रयास का दोषी ठहराकर उसकी आवाज को दबा दिया जाता था। इस बीच 1947 में देश आजाद हुआ, जल्दबाजी में आजादी के बाद भी धारा 309 और अन्य तमाम प्रावधान देश के कानून में बदस्तूर शामिल रहे। हालांकि समय-समय पर इन्हें हटाने की मांग उठती रही, सबसे पहले विधि आयोग ने 1961 में इस धारा को हटाने की सिफारिश की।
जनता पार्टी सरकार के कार्यकाल (1977) में इस संस्तुति को स्वीकार कर संसद में संशोधन विधेयक लाया गया। राज्यसभा की मंजूरी के पश्चात यह लोकसभा से पारित हो पाता इससे पहले ही सरकार गिर गई और यह विधेयक भी ठंडे बस्ते में चला गया। उसके बाद भी कई बार विधि आयोग ने ऐसी संस्तुतियां कीं। अब जाकर मोदी सरकार ने व्यर्थ के कानूनी प्रावधानों को हटाने की पहल के तहत धारा 309 का भविष्य तय किया। अठारह राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों से सहमति मिलने के बाद गृह मंत्रालय ने इस धारा को आईपीसी से डिलीट किया। आत्महत्या को अपराध बनाने वाले कानून के आलोचकों का कहना है, कोशिश के लिए दंड देना क्रूरता और अनुचित है क्योंकि इससे परेशानी में फंसे शख्स को दोहरा दंड मिलता है। यह शख्स पहले से ही काफी दुखी होता है और इसी दुख की वजह से वह अपनी जिंदगी खत्म करना चाहता है। धारा के समर्थक यह कहते थे कि आत्महत्या की कोशिश को दंड के दायरे में लाना मानव जीवन की गरिमा बचाने की कोशिश है। मानव जीवन राज्य के लिए भी अनमोल है और इसे नष्ट करने की कोशिश की अनदेखी नहीं की जा सकती। बहरहाल, सरकार राहत दे चुकी है लेकिन सतर्क कदमों की जरूरत अब भी है। हमें समाज में पारिवारिक हिंसा और कलह के चढ़ते ग्राफ की हकीकत को ध्यान में रखना होगा। इस स्थिति में खुदकुशी की कोशिश के मामले बढ़ने की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। स्कूली बच्चे भी पारिवारिक दबाव का सामना न कर पाने पर आत्महत्या की कोशिश करते हैं, इन्हें रोकने के लिए स्कूलों और कॉलेजों के साथ पारिवारिक परामर्श केंद्रों का जाल बनाने की जरूरत है। इसके साथ ही मानसिक रोग निराकरण केंद्रों पर काउंसलिंग की सुविधा भी बढ़ानी होगी। यह कदम यदि समय रहते उठा लिये गए तो सरकार का निर्णय सुकून देने वाला सिद्ध हो सकता है। इस दिशा में जो भी कुछ करना है, वह सरकार के साथ ही इस दिशा में कार्यरत गैरसरकारी संगठनों की जिम्मेदारी है और वह इससे कतई मुंह नहीं मोड़ सकते।

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