Tuesday, July 30, 2013
तेलंगाना पर कांग्रेस का राजनीतिक दांव
लम्बे समय के हंगामे, खून-खराबे और राजनीतिक दांव-पेच के दौर का असर हुआ है और पृथक तेलंगाना राज्य को मंजूरी दे दी गई है। जिस दिन यह अस्तित्व में आएगा, देश का यह 29 वां राज्य होगा। हालांकि पहली नजर में यह राजनीतिक पैंतरा ही है क्योंकि राज्य के अस्तित्व में आने के लिए अभी तमाम औपचारिकताएं होना बाकी हैं। सबसे पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल इसे मंजूरी देगा। यह प्रक्रिया अगले दिन ही पूरी कर लिये जाने का इरादा जाहिर कर दिया गया है। इसके लिए कैबिनेट के विशेष बैठक बुलाई गई है। इसके बाद फिर राज्य विधानसभा और संसद से प्रस्ताव पास होगा। इसके बाद अध्यादेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होंगे। जिस तरह की संभावनाएं जतायी जा रही हैं, कांग्रेस इस पूरी प्रक्रिया को अगले चार-पांच महीने में पूरी करने का मन बना रही है क्योंकि इससे उसे राजनीतिक लाभ तय है। यही समझाकर उसने मुद्दे पर विरोध की अगुवाई संभाल रहे आंध्र प्रदेश के नेताओं को शांत बैठाया है। फिर क्या वजह हैं जो यूपीए के घटक दलों में विचार के लिए मुद्दा लाया गया है और इसी दिन कांग्रेस कार्यसमिति ने मंजूरी दे दी।
इस फैसले की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैं। राहुल जल्दबाजी में यह फैसला कराने के इच्छुक थे क्योंकि उन्हें तेलंगाना में राजनीति अपनी पार्टी के अनुकूल बनने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। लेकिन पार्टी में इस पर आम सहमति नहीं, उसके एक तबके को लगता है कि राहुल गांधी पार्टी के एक बड़े वर्ग के आकलन को दरकिनार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के कई नेता अलग राज्य बनाए जाने के खिलाफ हैं। पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद जहां राहुल की हां-हां में इसे हवा दे रहे हैं, वहीं दिग्विजय सिंह, सुशील कुमार शिंदे, आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नरसिम्हन और मुख्यमंत्री किरन कुमार खिलाफ हैं। पीएम के खिलाफ होने के पीछे सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट हैं। देश की अंदरूनी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार इन एजेंसियों को लगता है कि तेलंगाना बनाने को लेकर सरकार का फैसला बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि यह इलाका नक्सल गतिविधियों का केंद्र बन जाएगा। देश के कई नक्सल नेता तेलंगाना क्षेत्र के करीमनगर जैसे जिलों से आते हैं।
दरअसल, यह मुद्दा कांग्रेस के गले में फंसने लगा था। हालांकि इसके विरोधी भी कम नहीं थे और जिस तरह से इस्तीफों का दौर चला, उससे लगने लगा था कि कांग्रेस फैसला टाल सकती है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तक ने जिस तरह दबाव बनाने के लिए सुर अलापे, उससे इस संभावना को बल मिला था। नेतृत्व समझ रहा था कि आंध्र प्रदेश में यह मुद्दा एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की तरह है। राज्य बनाने या न बनाने, दोनों स्थितियों में हालात उसके प्रतिकूल होने लगे थे। आंध्र प्रदेश की लगभग 42 प्रतिशत आबादी तेलंगाना क्षेत्र में रहती है और बाकी रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में। राजनीतिक तौर पर नया राज्य बनाने का निर्णय उसके हित में था क्योंकि तेलंगाना में उसका मुकाबला अकेली तेलंगाना राष्ट्र समिति से है जबकि बाकी के राज्य में वह तीन मजबूत पार्टियों से मुकाबिल है। अलग राज्य बनने पर चाहे समिति को राजनीतिक लाभ मिले लेकिन केंद्र से मंजूरी दिलाने का श्रेय उसे भी मिलना तय ही है। तेलंगाना में वह हार बर्दाश्त कर भी लेती लेकिन शेष क्षेत्र में प्रभावशाली होकर उभरी जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस ने सिरदर्द बढ़ा रखा है। आज स्वीकृति देने वाली कांग्रेस इस मुद्दे पर कई बार पलटी मार चुकी है। याद कीजिए, 1971 में तेलंगाना प्रजा समिति ने तेलंगाना क्षेत्र से 10 लोकसभा सीटें जीतकर मुद्दा उभारा था, तब कांग्रेस ने पल्ला झटक लिया था। लेकिन 2004 में चंद्रशेखर राव ने आंदोलन का बिगुल बजा रखा था, तब वह उनके साथ हो गई और राव को मंत्री पद से नवाज दिया। माना गया कि तेलंगाना पर कांग्रेस अब अनुकूल रुख अपना रही है लेकिन यह दोस्ती भी ज्यादा नहीं चली और दो साल बाद ही वह सार्वजनिक रूप से अलग राज्य पर अपनी हिचकिचाहट दिखाने लगी। इस पर राव ने कांग्रेस ने रिश्ता तोड़ लिया। न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग की वो रिपोर्ट भी उसने ठण्डे बस्ते में डाल दी जिसमें राज्य को लेकर कई विकल्प सुझाए गए थे। नए राज्य गठन में मुश्किलें भी आना तय है। आंध्र प्रदेश की सम्पत्ति को बांटना आसान नहीं है। राज्य के 45 प्रतिशत जंगल तेलंगाना इलाके में हैं और देश के 20 फीसदी से ज्यादा कोयला भण्डार भी। कांग्रेस के लिए तात्कालिक लाभ भाजपा के पैर बांधना भी है जो राव से दोस्ती करके आंध्र प्रदेश में खाता खोलने के लिए तैयारी कर रही थी। चुनावी तालमेल की रूपरेखा तय करने के लिए भाजपा राव के नजदीकियों से कई दौर की वार्ता कर चुकी थी और अंतिम फैसला उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह को करना था। नई परिस्थिति में यह समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, यह तय है।
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