Friday, August 2, 2013
राजनीति के फेर में फॉर्मूला-वन
उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा स्थित बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट में फॉर्मूला-वन रेस खेल जगत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति के फेर में फंस रही है। फिलहाल 2014 के कैलेण्डर से ये गायब हुई है। आयोजक कम्पनी ने भरोसा जताया है कि 2015 से यह नियमित हो जाएगी लेकिन रफ्तार की दौड़ के महारथियों का एक पूरा गुट विरोध पर उतारू है और नहीं चाहता कि भारत को इसकी मेजबानी मिले। अगले दस साल में करीब 90 हजार करोड़ का व्यवसाय और 15 लाख से ज्यादा रोजगार देने की सम्भावना वाली इस रेस में बाधा आई तो देश को बड़ा झटका लगेगा। जो विकल्प तलाशे जा रहे हैं, न वह टिकाऊ हैं, न ही फॉर्मूला-वन की तरह लाभदायक।
भारतीय बेशक, फॉर्मूला-वन रेसों के बारे में जानते हों लेकिन उन्होंने अपने देश में इसका आनंद पहली बार 2011 में लिया। फॉर्मूला रेसिंग में न सिर्फ देश-विदेश की लेटेस्ट और ट्रेंडी स्पोर्ट्स कार देखने को मिलती हैं बल्कि माइकल शूमाकर, निको रोजबर्ग, राफ शूमाकर जैसे नामचीन सितारे भी भाग लेने आते हैं। पहली दफा आयोजित ग्रांप्री बड़ी उपलब्धि थी। रफ्तार के खेल से हर साल करोड़ों डॉलर कमाई कराने वाली इस रेस ने उम्मीदें जगा दीं। लेकिन फॉर्मूला-वन के प्रमुख बर्नी एकलस्टन ने यह कहकर झटका दिया है कि भारत में अगले साल फर्राटा रेस होने की सम्भावना नहीं है। बर्नी की नजर में इसकी वजह सियासी हैं। पर राजनीति है क्या? दरअसल, इस रेस में भाग लेने वाली कम्पनियों में से कुछ की रुचि भारत से ज्यादा अन्य देशों में है, जिनमें रूस सबसे आगे है। 2014 के सत्र में 22 रेसों के आयोजन की बात हो रही है लेकिन फॉर्मूला-वन टीमें 20 रेसों तक ही टिकी रहना चाहती हैं। रूस के साथ ही आस्ट्रिया में अगले वर्ष एफ वन रेस कराने को लेकर भी काफी होड़ है। ऐसे में दो साल पहले एफ वन में पदार्पण करने वाले भारत को ही बाहर करने के लिए आसान शिकार माना जा रहा है। लेकिन रेस में एक साल की भी बाधा आने से तमाम नुकसान हैं। बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट ग्रेटर नोएडा में अंतरराष्ट्रीय स्तर के यमुना एक्सप्रेस-वे के पास बना है जिसने आगरा से नोएडा की दूरी घटाकर ढाई-तीन घंटे के आसपास कर दी है। फिलहाल वहां रेसिंग ट्रैक ही मुख्य है लेकिन योजना के मुताबिक आने वाले समय में यह तमाम अन्य विशेषताओं से परिपूर्ण होगा। ख्वाब तो वहां सपनों का शहर बनाने के भी हैं। रियल एस्टेट सेक्टर ने वहां बड़ी-बड़ी योजनाएं प्लान कर रखी हैं, पर तमाम प्रयासों के बावजूद हम विदेशी निवेश को आकर्षित करने में नाकाम रहे हैं। उत्तर प्रदेश ने खुद भी प्रयास किए, आगरा में कन्फेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज के साथ समिट आयोजित की लेकिन महीनों बाद एक भी विदेशी निवेशक नहीं आया है। फॉर्मूला-वन ने हमारी खूब कमाई कराई है। फॉर्मूला-वन का टिकट महंगा होता है। इसका आकर्षण जिस वर्ग में है, वो अपने वतन से आकर खूब पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहता है। बड़े-बड़े होटलों में रहता है, हवाई यात्राएं करता है और पर्यटन महत्व के आगरा, जयपुर जैसे शहर भी घूमता है। इसके अलावा फॉर्मूला-वन का रेसिंग सर्किट बनाने में करीब दो हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह मात्र इसी रेस में प्रयोग हो सकता है, अन्य खेलों के लिए इसका कोई उपयोग नहीं। जेपी ग्रुप ने सर्किट के लोभ में ही यमुना एक्सप्रेस-वे प्रोजेक्ट हाथ में लिया था। सवाल यह है कि क्या घाटे की स्थिति का असर इस मार्ग के आसपास के विकास पर नहीं पड़ेगा? सरकारी आय की नजर से देखें तो राजस्व की क्षति भी होना तय है।
याद कीजिए, फॉर्मूला-वन रेस के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी करने के लिए केंद्रीय खेल मंत्रालय प्रतिवर्ष दस करोड़ रुपये वसूल करता है जो राष्ट्रीय खेल विकास निधि में जमा हो जाता है। इसके अलावा लाखों डॉलर मूल्य की कारें, उनके टायर, उपकरण, तेल जैसी अन्य जरूरी चीजें लाने की एवज में खिलाड़ियों की प्रायोजक कम्पनियां करोड़ों रुपये कस्टम ड्यूटी अदा करती हैं। गत वर्ष केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क विभाग ने छह सौ करोड़ रुपये सुरक्षित धनराशि के रूप में जमा कराए थे। सबसे बड़ा नुकसान तो उन भारतीयों का है, जो रेस के दिनों में अस्थायी व्यवसाय के जरिए कमाई करते हैं। इस रेस का आयोजन बेशक निजी क्षेत्र की कम्पनी करती हो लेकिन जिस कद की यह रेस है, उसके लिए सरकार के भी सक्रिय होने की जरूरत है। खेल जगत में खेल मंत्रालय की सक्रियता बढ़ी है। उसने बेलगाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर भी शिकंजा कसने की कोशिशें शुरू कर दी हैं, जिससे खेलों में पारदर्शिता से इंकार नहीं किया जा सकता। फॉर्मूला-वन रेस के आयोजन ने भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि बना दी है। रेस पर जिस तरह बेशुमार खर्च किया जाता है, उससे आयोजक देश अन्य देशों की कतार से अलग खड़े हो जाते हैं। हालांकि आयोजक जेपी समूह ने वर्ष 2015 से इस रेस के सुचारु आयोजन की प्रतिबद्धता जताई है, पर एक वर्ष का ही सही, यह गतिरोध भारतीय छवि खराब कर सकता है। वैसे बर्नी एकलस्टन के मुताबिक, भारत में 2014 फॉर्मूला वन ग्रांप्री की मेजबानी के भविष्य के बारे में फैसला सितम्बर में विश्व मोटर स्पोर्ट परिषद की बैठक के दौरान होगा, जहां वह रेस संचालक अंतरराष्ट्रीय आटोमोबाइल महासंघ को 2014 का स्थायी कार्यक्रम सौंपेंगे। बर्नी एकलस्टन ही रेस का कैलेण्डर तैयार करते हैं और वही आमतौर पर महासंघ के सामने औपचारिक मंजूरी के लिए पेश करते हैं। फॉर्मूला-वन रेस के लिए 22 जगहों के आवेदन हैं जबकि इस रेस में हिस्सा लेने वाली टीमें चाहती हैं कि 20 से ज्यादा रेस न हों।
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