बेशक, यह मानवाधिकारों का हनन है कि आप किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कीजिए और उसे सजा सुनाए बगैर ही जेल में रखे रहिए। झारखण्ड की एक जेल से रामकरण मांझी नामक कैदी की मौत खबर आई थी। मांझी को दो वर्ष पूर्व छेड़छाड़ की धारा 294 के तहत गिरफ्तार किया गया था। थानाधिकारी चाहता तो उसे थाने से ही जमानत दे सकता था, लेकिन उसने गरीब मांझी को जेल भेज दिया। छेड़छाड़ के आरोप में छह माह की सजा का प्रावधान है किंतु उसके मामले में सुनवाई ही नहीं हुई। वह निर्धारित से चार गुनी सजा काटता रहा और 68 वर्ष की आयु में उसकी मौत हो गई। यह उसके मानवाधिकार का सरासर उल्लंघन था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मामलों पर संज्ञान लिया है। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि किसी भी राष्ट्र में कानून व्यवस्था के दृष्टिकोण से जेलों का महत्व हमेशा से रहा है। अपराध नियंत्रण के लिए जेलों की अनिवार्यता को हर शासन व्यवस्था ने स्वीकार किया है। जेलों को सुधार गृह के रूप में मान्यता है, दंड का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब हमारी जेलें सुधार गृह के तौर पर सफलता से काम कर पाएंगी। लेकिन हकीकत क्या है, सलाखों के भीतर सब-कुछ वैसा नहीं चल रहा जैसा चलना चाहिए। जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं और उन पर नियंत्रण के लिए कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के बारे में हमने अरसे से नहीं सोचा। कैदियों के अनुपात में जेलें न होने पर दो आशंकाएं पैदा होती हैं। पहली, हम जनसंख्या और अपराध के बदलते परिवेश को ध्यान में रखते हुए जेलें बनवाने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं और दूसरी, हम अपराध नियंत्रण में लागतार असफल हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो भारत की कुल लगभग 1400 छोटी-बड़ी जेलों में से लगभग तीन लाख 81 हजार कैदियों में से दो लाख 54 हजार विचाराधीन कैदी हैं। सुप्रीम कोर्ट का जिन अंडर ट्रायल कैदियों पर निर्णय आया है, उसकी यह स्थिति क्यों है। इसके लिए बढ़ते अपराधों को कारण माना जाए या फिर धीमी न्याय प्रणाली को। भारतीय जेलों में ज्यादातर कैदी ऐसे हैं जिनके केस की सुनवाई दशकों से चल रही है और वे सलाखों के पीछे रहने को मजबूर हैं। जेलों में सजायाफ्ता कैदियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या है। जेलों में असंतुलन की इस स्थिति में सुधार गृह के अनुकूल वातावरण बना पाना संभव नहीं दिखता। जेलों के औचित्य पर सर्वाधिक प्रश्नचिह्न तब लगता है, जब आए दिन जेलों से बढ़ रहे आंतरिक अपराधों, आत्महत्याओं और तमाम तरह की सांठगांठ की खबरें आती हैं।
तमाम बार जेलों में बंद रसूखदार अपराधियों के पास से मोबाइल आदि बरामद हुए हैं। यहां एक तरफ तो रसूखदार कैदियों के लिए तमाम सुविधा-संसाधन उपलब्ध हैं, वहीं आम कैदियों की मूलभूत सुविधाओं में कटौती की जाती है जिससे तमाम कैदियों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उनके मन में जेलों के प्रति यातना गृह का भाव आ जाता है। अपराध नियंत्रण के लिए बनी जेलों में ही यदि आंतरिक अपराध फलने-फूलने लगे तो अपराधियों के सुधार की संभावनाएं समाप्त ही हो जाएंगी। हाल तो यह भी है कि जेल तंत्र की शह पर तमाम पेशेवर अपराधी जेलों से ही अपनी आपराधिक गतिविधियां संचालित कर जेलों के उद्देश्यों और दंड नीतियों को मुंह चिढ़ाते हैं। जेलों के भीतर की समस्याएं यहीं तक सीमित नहीं, तमाम बुनियादी समस्याएं भी हैं, जो कहीं न कहीं जेलों के वास्तविक उद्देश्यों के पूरे होने में बाधक हैं। कैदियों की भीड़ तले दबती जेल कैदियों की मूलभूत जरूरतें भी पूरा कर पाने में असफल साबित हो रही हैं। कैदियों के स्वास्थ्य, सुधार, शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण आदि की बात की जाए तो भी कैदियों और जेलों की संख्या के अनुपात का असंतुलन भारी नजर आता है। शारीरिक और मानसिक स्थिति के प्रति जेल अफसरों के ढुलमुल रवैये के कारण आए दिन कैदियों के रोगग्रस्त होने, आपसी झड़पों और आत्महत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं। बुनियादी सुविधाओं को तरसते आम कैदियों के हालात बहुत बेहतर नहीं हैं और शायद यही कारण है कि जेलें अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पा रही और इसके लिए सबसे ज्यादा न्याय प्रणाली की धीमी गति दोषी है। दो-राय नहीं कि हमें समय रहते अपने मूल उद्देश्यों से भटकती इन जेलों के प्रति गंभीर होना होगा और उन तमाम बिंदुओं पर सजग होना पड़ेगा कि जेलों के अंदर स्वस्थ माहौल बनाया जा सके। जेल अपने इन उद्देश्यों से भटकती जाएंगी तो समाज को सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने न्याय प्रणाली की नाकामी का खामियाजा भुगत रहे लोगों को राहत का इंतजाम किया है। बेशक, यह लोग न्याय तंत्र के स्तर से तात्कालिक राहत पाने के हकदार हैं।
No comments:
Post a Comment