याद कीजिए उन दिनों को जब समूचे उत्तर प्रदेश में लॉटरी का खेल चरम पर था। सुबह होते ही लॉटरी बाजार में रौनक हो जाती और शाम ढलने तक खूब लोग आबाद-बर्बाद हो जाया करते। सरकार भी खुश, टैक्स के रूप में उसकी करोड़ों की आय जो थी एक दिन की। दिन बदले, सामाजिक बुराई ने तमाम परिवारों को लील लिया, तमाम जानें चली गर्इं, लोगों के घर बिक गए, कर्जे के बोझ तले दब गए। मजबूरी में राज्य सरकार को रोक लगानी पड़ी और फिर यह खेल, परदे के पीछे चला गया। हालांकि कुछ राज्यों में अब भी जारी है, यूपी में भी फिर सुगबुगाहट है, पर सरकार मूड में नहीं दिखती।
देश में लॉटरी का कुल बाजार (आॅनलाइन लॉटरी सहित) तकरीबन 60 अरब डॉलर से ज्यादा है। इस कारोबार को अनिच्छापूर्वक ही सही, व्यापार विषय के तौर पर मान्यता दी जाती है। यह संविधान की संघीय सूची में केंद्र के लिए आरक्षित है जबकि सट्टेबाजी-जुआ राज्य के विषय हैं। नैतिकता की कीमत पर फल-फूल रहे यह बाजार राजस्व के एक बड़े स्रोत हैं और संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी जाते हैं लेकिन सरकारें संभावनाओं की नींव पर चलायी जाती हैं। बहरहाल, मैं लॉटरी की इस समय बात इसलिये कर रहा हूं कि पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के बीच लॉटरियों को लेकर मतभेद खत्म करने के लिए दर्जनों आदेश पारित किए हैं। हर राज्य अपनी लॉटरी से पूरा राजस्व प्राप्त करना चाहता है और उसकी यह कोशिश होती है कि उसके क्षेत्र में दूसरों का दखल न हो। राज्य यह भूल रहे हैं कि हमारे संघीय संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत देश में व्यापार की स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित है। राज्य की सीमाओं से पार लॉटरियों के बढ़ते विवादों की वजह से केंद्र ने 1998 में लॉटरी विनियमन अधिनियम बनाया जिसमें राज्यों को अनुमति दी गई कि वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं लेकिन इसे कुछ राज्यों और एजेंटों ने चुनौती दे दी। शीर्ष कोर्ट ने बीआर एंटरप्राइजेज बनाम यूपी स्टेट (1999) मामले में दिए फैसले में इस कानून को सही ठहराया लेकिन कुछ प्रावधान भी स्पष्ट कर दिए। कोर्ट ने कहा कि केवल वे राज्य जो लॉटरी का संचालन नहीं करते हैं वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर रोक लगा सकते हैं। लेकिन लॉटरियों को लेकर झगड़ा खत्म नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय को इस कानून से जुड़े कुछ सवालों को अभी तय करना है क्योंकि राज्य एक-दूसरे के खिलाफ कानूनी अड़चन डालना जारी रखे हुए हैं। सिक्किम-पंजाब के बीच विवाद को तूल पकड़ चुका है जिसमें सिक्किम की आॅनलाइन लॉटरी को बंद करने का प्रयास किया गया था। नगालैण्ड ने भी विवाद में पक्ष बनने की कोशिश की थी लेकिन पिछले हफ्ते अपनी याचिका वापस ले ली। समस्या और भी हैं। केरल जैसे राज्य परोपकारी गतिविधियों के आवरण में लॉटरी का धंधा करते हैं। अन्य राज्य रोक लगाएं तो हो-हल्ला मचा दिया जाता है।
इससे अलग भी देश में तमाम तरह के जुए और चल रहे हैं। सट्टा तो प्रतिदिन फल-फूल रहा ही है, शेयर बाजार, रुई बाजार, चांदी-सोना बाजार, गुड़-खांड, अरंडा, मूंगफली बीजों जैसे तमाम वायदा सौदों के जरिए भी जुआ खेला जा रहा है। इन बाजारों में कोई भी व्यक्ति बिना माल पास हुए करोड़ों रुपयों का माल बेच सकता है। रुपये न होते हुए करोड़ों का माल खरीद सकता है, बस उसे मात्र सेटलमेंट के दिन भावों में फर्क का भुगतान करना पड़ेगा। पूरी दुनिया में रोजाना करोड़ों रुपये के वायद सौदे होते हैं, कुछ इसी तरह का चलन मुंबई, दिल्ली और कोलकाता आदि शहरों में है जहां लाखों रुपयों के सट्टा सौदे रोजाना अंजाम तक पहुंचते हैं। सट्टे का मूल स्वरूप यही है कि आपका अंदाज सही निकला तो आप कमाएंगे और दूसरा कोई नुकसान उठाएगा। इन व्यापारों में धन पैदा नहीं होता। यह कमाई हुई संपत्ति नहीं बल्कि एक से दूसरे व्यक्ति को इसका अंतरण है। सरकार कमाई के लोभ में इनकी स्वीकृति देती है और भूल जाती है कि यही वायदा कारोबार कई बार महंगाई बढ़ने की वजह बनते हैं। वह याद नहीं रखती कि राष्ट्र धन की वृद्धि इन सट्टों से कतई नहीं हो सकती। सरकार को इनके नियमन के लिए भी तत्काल कदम उठाने चाहिये। उसे याद रखना चाहिये कि जुए-सट्टे या लॉटरी से उसकी जनता का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी समस्याएं बढ़ रही हैं। पति-पत्नियों में तलाक की वजह यह भी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, जुए की लत से मरने वालों की संख्या कुल मौतों में से सात प्रतिशत के आसपास है जो वर्ष 2001 में मात्र एक प्रतिशत थी। समस्या का जितना जल्दी हल हो जाए, उतना ही अच्छा। यह समय की मांग भी है।
देश में लॉटरी का कुल बाजार (आॅनलाइन लॉटरी सहित) तकरीबन 60 अरब डॉलर से ज्यादा है। इस कारोबार को अनिच्छापूर्वक ही सही, व्यापार विषय के तौर पर मान्यता दी जाती है। यह संविधान की संघीय सूची में केंद्र के लिए आरक्षित है जबकि सट्टेबाजी-जुआ राज्य के विषय हैं। नैतिकता की कीमत पर फल-फूल रहे यह बाजार राजस्व के एक बड़े स्रोत हैं और संविधान की मूल भावना के खिलाफ भी जाते हैं लेकिन सरकारें संभावनाओं की नींव पर चलायी जाती हैं। बहरहाल, मैं लॉटरी की इस समय बात इसलिये कर रहा हूं कि पिछले कुछ समय में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के बीच लॉटरियों को लेकर मतभेद खत्म करने के लिए दर्जनों आदेश पारित किए हैं। हर राज्य अपनी लॉटरी से पूरा राजस्व प्राप्त करना चाहता है और उसकी यह कोशिश होती है कि उसके क्षेत्र में दूसरों का दखल न हो। राज्य यह भूल रहे हैं कि हमारे संघीय संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत देश में व्यापार की स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित है। राज्य की सीमाओं से पार लॉटरियों के बढ़ते विवादों की वजह से केंद्र ने 1998 में लॉटरी विनियमन अधिनियम बनाया जिसमें राज्यों को अनुमति दी गई कि वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं लेकिन इसे कुछ राज्यों और एजेंटों ने चुनौती दे दी। शीर्ष कोर्ट ने बीआर एंटरप्राइजेज बनाम यूपी स्टेट (1999) मामले में दिए फैसले में इस कानून को सही ठहराया लेकिन कुछ प्रावधान भी स्पष्ट कर दिए। कोर्ट ने कहा कि केवल वे राज्य जो लॉटरी का संचालन नहीं करते हैं वे दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर रोक लगा सकते हैं। लेकिन लॉटरियों को लेकर झगड़ा खत्म नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय को इस कानून से जुड़े कुछ सवालों को अभी तय करना है क्योंकि राज्य एक-दूसरे के खिलाफ कानूनी अड़चन डालना जारी रखे हुए हैं। सिक्किम-पंजाब के बीच विवाद को तूल पकड़ चुका है जिसमें सिक्किम की आॅनलाइन लॉटरी को बंद करने का प्रयास किया गया था। नगालैण्ड ने भी विवाद में पक्ष बनने की कोशिश की थी लेकिन पिछले हफ्ते अपनी याचिका वापस ले ली। समस्या और भी हैं। केरल जैसे राज्य परोपकारी गतिविधियों के आवरण में लॉटरी का धंधा करते हैं। अन्य राज्य रोक लगाएं तो हो-हल्ला मचा दिया जाता है।
इससे अलग भी देश में तमाम तरह के जुए और चल रहे हैं। सट्टा तो प्रतिदिन फल-फूल रहा ही है, शेयर बाजार, रुई बाजार, चांदी-सोना बाजार, गुड़-खांड, अरंडा, मूंगफली बीजों जैसे तमाम वायदा सौदों के जरिए भी जुआ खेला जा रहा है। इन बाजारों में कोई भी व्यक्ति बिना माल पास हुए करोड़ों रुपयों का माल बेच सकता है। रुपये न होते हुए करोड़ों का माल खरीद सकता है, बस उसे मात्र सेटलमेंट के दिन भावों में फर्क का भुगतान करना पड़ेगा। पूरी दुनिया में रोजाना करोड़ों रुपये के वायद सौदे होते हैं, कुछ इसी तरह का चलन मुंबई, दिल्ली और कोलकाता आदि शहरों में है जहां लाखों रुपयों के सट्टा सौदे रोजाना अंजाम तक पहुंचते हैं। सट्टे का मूल स्वरूप यही है कि आपका अंदाज सही निकला तो आप कमाएंगे और दूसरा कोई नुकसान उठाएगा। इन व्यापारों में धन पैदा नहीं होता। यह कमाई हुई संपत्ति नहीं बल्कि एक से दूसरे व्यक्ति को इसका अंतरण है। सरकार कमाई के लोभ में इनकी स्वीकृति देती है और भूल जाती है कि यही वायदा कारोबार कई बार महंगाई बढ़ने की वजह बनते हैं। वह याद नहीं रखती कि राष्ट्र धन की वृद्धि इन सट्टों से कतई नहीं हो सकती। सरकार को इनके नियमन के लिए भी तत्काल कदम उठाने चाहिये। उसे याद रखना चाहिये कि जुए-सट्टे या लॉटरी से उसकी जनता का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी समस्याएं बढ़ रही हैं। पति-पत्नियों में तलाक की वजह यह भी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, जुए की लत से मरने वालों की संख्या कुल मौतों में से सात प्रतिशत के आसपास है जो वर्ष 2001 में मात्र एक प्रतिशत थी। समस्या का जितना जल्दी हल हो जाए, उतना ही अच्छा। यह समय की मांग भी है।
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