Sunday, April 15, 2012

'अफगान डिप्लोमेसी' का इम्तिहान

अफगानिस्तान फिर शिकार हुआ है। पाकिस्तान से पले-बढ़े आतंकवाद पर अमेरिका के प्रहार ने रंग दिखाया है। कोशिश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान से ध्यान हटाने की है, बोरिया-बिस्तर बांधकर जाने को तैयार अमेरिका को इस तरह घेरने की है कि वह अपनी रणनीति को फेल होते न देख पाए और फिर से पाकिस्तान की शरण में जाकर अफगान डिप्लोमेसी को सफल बनाने के लिए मदद मांगने को मजबूर हो जाए। 15 अप्रैल 2012 को श्रृंखलाबद्ध हमलों से पूरा अफगानिस्तान बुरी तरह थर्रा गया। हमले तालिबान ने किए। तालिबान के बारे में कहा जाता है कि वह पाकिस्तान की कोख से पैदा संगठन है जिसका वित्त पोषण करने के साथ ही वह उसकी मुश्किलें आसान भी करता है। हाफिज सईद पर अमेरिका ने इनाम रखा और पाकिस्तान जिस तरह से उसे अमेरिका की कैद से बचाने में हदें लांघने लगा तो यह शक और पुख्ता हुआ। हाफिज तालिबान का मास्टरमाइंड माना जाता है, वह पीछे से उसकी मदद का पाकिस्तानी जरिया है। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर हमले के बाद बाद तालिबान फिर सिर उठाते हुए दिखाई पड़ रहा है। हमलों के पीछे तालिबान की मंशा यह जताने की थी कि वह अपनी इच्छा अनुसार किसी भी बख्तरबंद स्थान पर हमला करने मे सक्षम है। दहशत फैलाने का मकसद तो इसके साथ पूरा हो ही रहा था। अमेरिका पर दबाव बढ़ा है कि वह सिद्ध करे कि अफगान रणनीति में उसे कामयाबी मिली है। जिन इलाकों की सुरक्षा का वह दावा कर रहा है, वहां अब भी असंतोष है, लड़ाई चल रही है। पाकिस्तान आतंकवाद की गिरफ्त में है। तालिबान को उसके समर्थन की वजहें हैं। तालिबान वहां कट्टपंथियों का शासन चाहता है, अफगानिस्तान में मदद के बदले वह उससे अपने वतन में शांति मांग सकता है। नाटो की एक खुफिया रिपोर्ट सिद्ध कर ही चुकी है कि पाकिस्तानी सेना तालिबान की चोरी-छिपे मदद करती है। रिपोर्ट के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय टुकड़ियों के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान देश पर नियंत्रण करने को तैयार है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को तालिबान के वरिष्ठ नेताओं के ठिकानों और उनकी गतिविधियों के बारे में पता है। आईएसआई विदेशी सैनिकों पर हमलों में तालिबान की मदद कर रही है। नाटो का यह गोपनीय दस्तावेज 4000 से अधिक पकड़े गए तालिबान बंदियों, अल कायदा और दूसरे विदेशी लड़ाकों के साथ 27,000 पूछताछों पर आधारित है। हैरतअंगेज बात यह है कि वरिष्ठ तालिबान नेता नियमित रूप से आईएसआई एजेंटों से मिलते हैं जो उन्हें रणनीति पर सलाह देते हैं और पाकिस्तान सरकार की चिंताओं की जानकारी देते हैं। भारत के लिए यह दोहरी समस्या है। वह अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में मदद कर रहा है। हमलों से उस पर दबाव बनेगा कि अगर तालिबान का शासन दोबारा आता है तो उसकी यह सारी कवायद बेकार चली जाएगी। और अगर पाकिस्तान की भूमिका बढ़ती है तो यह उसके लिए मात होगी। पाकिस्तान के पूर्वी मोर्चे पर भारत के लिए एक साथ कई मुसीबतें खड़ी हो सकती हैं। तालिबान ऐसी चट्टान है जिसका कोई विभाजन नहीं है बल्कि तालिबान की अलग-अलग कई धड़े हैं जिनमें प्रतिस्पर्धा है। अफगानी समाज का कोई भी चेहरा आधुनिक राष्ट्र राज्य के निर्माण का हिस्सा नहीं रहा है। कबायली स्वभाव से बेहद खूंखार हैं। अलग-अलग इलाकों में कबायली और पख्तूनी सरदारों में प्रतिशोध की भावना हैं। हक्कानी और दूसरे गिरोह एक-दूसरे के खिलाफ खडे़ हैं। अलग-अलग इलाकों में मादक पदार्थों या हथियारों की तस्करी हो, यह गिरोह अपना वर्चस्व स्थापित करने में एक-दूसरे की मदद करते हैं। अलग-अलग देशों की खुफिया एजेसिंयों ने जियो और जीने दो की नीति लेकर इनके साथ समझौता भी किया हुआ है। तालिबान ने धमक इसलिये भी दिखाई है कि वह आम जनता की नजर में इन खूंखार सरदारों से बेहतर है।

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