Sunday, October 12, 2014

बड़ी मुश्किलों में पाकिस्तान

पाकिस्तान आंतरिक मुश्किलों में बुरी तरह घिर चुका है। हर मोर्चे पर बुरे हाल हैं। आर्थिक तंत्र मजबूत नहीं रहा, महज कुछ साल में इस पड़ोसी देश का निर्यात सवा दस से महज चौथाई प्रतिशत तक गिर गया है। सैन्य तंत्र भी ढह रहा है। तमाम सैन्य इकाइयां कई-कई माह तक वेतन के लाले झेलती हैं। भारी-भरकम विदेशी कर्ज के सहारे वह कितने दिन चल पाएगा, यह देखना बाकी है। यह भी आशंका है कि राजनीतिक सत्ता का कुछ माह में पतन हो जाए। हालांकि भारत के लिए पाकिस्तान के पतन की स्थिति भी अच्छी नहीं होगी क्योंकि वहां अगली सत्ता उग्रवादियों की होगी या फिर, तानाशाहों की।
आतंकवाद का जिस तरह से पाकिस्तान में प्रसार हुआ है, वैसा शायद किसी देश में नहीं हुआ होगा। कभी स्वात घाटी तक जो उग्रवादी सत्ता चलाते थे, कराची का व्यापारिक ताना-बाना ढेर कर रहे थे, वो आज इस्लामाबाद में बे-खौफ घूमते हैं, उद्योगपतियों-व्यापारियों से चौथ वसूला करते हैं। बंदूकें वहां छिपकर नहीं रखी जातीं बल्कि किसी भी कमर में बेल्ट में अटकी नजर आ जाती हैं। गोलियां चलना वहां आम बात है। ऐसा नहीं कि राजधानी में पुलिस तंत्र गायब हो लेकिन वह मात्र लकीर पीट रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि पिछले 10 साल में यहां दो सौ पुलिसकर्मी आतंकी हमलों में मारे गए। जब राजधानी का हाल यह हो तो बाकी देश कैसा होगा, बताने की जरूरत नहीं दिखती।   आतंकवादी संगठनों का इतना जबर्दस्त जलवा है कि तालिबान ने खुलकर कह दिया है कि उसका लक्ष्य परमाणु हथियारों के साथ पाकिस्तान पर कब्जा करना है। कराची के मेहरान नौसैनिक अड्डे पर तालिबान बड़ा हमला कर ही चुका है। पाकिस्तान परमाणु क्षमता वाला अकेला मुसलमान देश है और तालिबान का इरादा हथियारों को नष्ट करने का नहीं बल्कि उन पर कब्जा करने का है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से ही लग जाता है कि सैन्य अड्डे पर मुट्ठीभर आतंकियों का साथ देने वाले पाकिस्तानी सेना के तालिबान समर्थक अफसर थे। रक्षा विशेषज्ञों का आंकलन है कि पाकिस्तानी नौसेना, वायुसेना और थलसेना, तीनों में तालिबान की घुसपैठ हो चुकी है।
पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसे हालात हैं, तालिबान की धमकी एक डरावनी हकीकत में न बदल जाए क्योंकि पर्दे के पीछे से पाक में असल सत्ता चला रही पाक सेना आतंकियों के मुकाबले पस्त दिख रही है। आम पाकिस्तानी न तो अब पाक फौज पर विश्वास करता है और न ही देश के राजनीतिज्ञों पर। संघीय सरकार प्रतीकात्मक रह गई है। बलूचिस्तान में चल रहे अलगाववादी आंदोलन ने भी मामला बिगाड़ा है।  भारत की मानिंद पाकिस्तान में अभी तक राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज नहीं है क्योंकि जिन चार समुदायों-सिंधी, बलूची, पंजाबी और पठानों ने पाकिस्तान की स्थापना की, वे आज भी खुद को सिंधी, बलूची, पंजाबी और पठान मानते हैं। इनमें अपना स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की भावना बलवती होती जा रही है। मोहाजिर आज भी मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाए हैं और स्वयं को शोषित-उपेक्षित अनुभव कर रहे हैं। कराची, हैदराबाद, सिंध में जहां बड़ी संख्या में मोहाजिर हैं और वे अपने लिए अलग राज्य चाहते हैं। यह भी पाकिस्तान के एक और विभाजन का बड़ा कारण बन सकता है। पाकिस्तान की करीब आधी आबादी उग्रवाद, गरीबी और बेरोजगारी की वजह से गंभीर मानसिक रोगों का शिकार है। मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में गिरावट के कारण लोगों की सहनशीलता कम हुई है और लोग हिंसक भी हुए हैं। उनमें असुरक्षा की भावना से ग्रस्त घर गई है। उग्रवाद, अराजकता और आत्मघाती हमलों की वजह से पाकिस्तान के लोगों की जिंदगी बेहद खराब हो चुकी है। रही-सही कसर कीमतों में बढ़ोत्तरी और बेरोजगारी ने पूरी कर दी है। अर्थव्यवस्था बुरी तरह से विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से मिलने वाली सहायता पर निर्भर है। कीमतें आसमान छू रही हैं, बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर है और युवाओं की आबादी का बड़ा हिस्सा नौकरी की तलाश में देश छोड़ने की फिराक में है। कहा तो यहां तक जाने लगा है कि इस देश की आर्थिक स्थिति ऐसे ही बिगड़ती गई तो उसका भी सोवियत संघ और यूगोस्लाविया की तरह विघटन हो जाएगा। इतिहास पर नजर डालें तो मोहम्मद अली जिन्ना ने जब पाकिस्तान की बागडोर संभाली थी, तब आर्थिक स्थिति खराब नहीं थी। यह स्थिति खराब तब हुई जब उसने अपना रक्षा बजट बढ़ाया। भारत विरोध ही उसका एकमात्र एजेंडा हो गया। औद्योगिक विकास ठप हो गया। कृषि क्षेत्र में विकास अवश्य हुआ, किन्तु वो भी इतना नहीं था कि वह पूरे देश के वित्तीय हाल को संभाल सके। आर्थिक स्थिति के कारण ही पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में भेदभाव बढ़ता गया, सत्ता का केंद्र चूंकि पश्चिमी पाकिस्तान में था इसलिए पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बंगलादेश बन गया। विभाजन की मांग कर रहे गुटों-संगठनों की धमक इतनी है कि यह देश दोबारा बंट जाए तो बड़ी बात नहीं। लेकिन पूरी स्थितियों में भारत को राहत का अनुभव नहीं करना चाहिये क्योंकि आतंकवादियों के हाथ में सत्ता आने पर वह भारत का सिरदर्द बढ़ाएंगे। इसलिये केंद्र सरकार को सतर्क कदम उठाने की जरूरत है। उसे अमेरिका जैसे उन देशों के साथ समन्वय बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिये जो आतंकवाद के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं। आतंकवाद पर लगाम के बाद ही भारत का सिरदर्द कम हो सकेगा।

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