कहते हैं कि तुमने एक मर्द को पढ़ाया तो सिर्फ एक व्यक्ति को पढ़ाया पर यदि किसी औरत को पढ़ाया तो एक खानदान और एक नस्ल को पढ़ा दिया। दुर्भाग्य है कि यह कहावत जिस मुस्लिम समाज में सुनी-सुनाई जाती है, वह खुद बालिका शिक्षा के प्रति सर्वाधिक लापरवाह है। देश में बालिका शिक्षा की दर 40 प्रतिशत है, वहीं सौ में से मात्र 11 मुस्लिम बालिकाओं को ही उच्च शिक्षा मिल पा रही है। शहरी क्षेत्रों में 4.3 और ग्रामीण इलाकों में 2.26 फीसदी लड़कियां ही स्कूल जाती हैं। सच्चर समिति की रिपोर्ट में जो आंकड़े दिए गए हैं, यह उससे उलट हैं। यह आंकड़े गैरसरकारी संगठन के हैं।
बेशक, शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है। शिक्षित कौमों ने ही हमेशा तरक्की की है। किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्व दे रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। भारत में, खासकर मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है। आंकड़े साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी बहुत अच्छी तस्वीर पेश नहीं कर पाई थी, जिसमें बताया गया था कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में औसतन साढ़े तीन प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों के स्कूल जाने का जिक्र था। नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्राथमिक स्तर यानी पांचवीं तक की कक्षाओं में 1.483 करोड़ मुस्लिम बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, यह संख्या प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में दाखिला लेने वाले कुल 13.438 करोड़ बच्चों की 11.03 फीसदी है जो वर्ष 2007-08 में 10.49 फीसदी थी और 2006-07 में 9.39 प्रतिशत। इन कक्षाओं में पढ़ रहे कुल मुस्लिम छात्रों में 48.93 फीसदी लड़कियां शामिल हैं। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में भी मुस्लिम बच्चों की तादाद में इजाफा हुआ तो है लेकिन इतना नहीं जो संतोष पैदा करता हो। काबिले गौर यह भी है कि उच्च प्राथमिक विद्यालय में लड़कियों की संख्या मुस्लिम छात्रों की तादाद की 50.03 फीसदी है, जबकि सभी वर्ग की लड़कियों के उच्च प्राथमिक कक्षा में कुल दाखिले महज 47.58 फीसदी हैं। यह रिपोर्ट देश के 35 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों के 633 जिलों के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त स्कूलों से एकत्रित जानकारी पर आधारित है। रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 64 साल तक की हिंदू महिलाओं (46.1 फीसदी) के मुकाबले केवल 25.2 फीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोजगार के क्षेत्र में हैं। अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है और वह अपनी मर्जी से अपने ऊपर एक भी पैसा खर्च नहीं कर पातीं। लड़कों की शिक्षा के बारे में मुस्लिम अभिभावकों का तर्क होता है कि पढ़-लिख लेने से कौन सी उन्हें सरकारी नौकरी मिल जानी है। फिर पढ़ाई पर क्यों पैसा बर्बाद किया जाए? बच्चों को किसी काम में डाल दो, सीख लेंगे तो जिंदगी में कमा-खा लेंगे। वहीं लड़कियों के मामले में कहा जाता है कि ससुराल में चूल्हा-चौका ही तो संभालना है इसलिए बेहतर है कि लड़कियां सिलाई-कढ़ाई और घर का कामकाज सीख लें। ससुराल में यह तो नहीं सुनना पड़ेगा कि मां ने कुछ सिखाया नहीं। कारणों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए धार्मिक कारण काफी हद तक जिम्मेदार हैं जो खुद-ब-खुद गढ़ लिये गए हैं। धर्म कहता है कि पिता और पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी वो खुद भी है। वह खुद शादी भी कर सकती है हालांकि माता-पिता की सहमति को शुभ माना गया है। इसके अतिरिक्त भी कई सुविधा-अधिकार उन्हें हासिल हैं जो इस बात के गवाह हैं कि उनके अनपढ़ रहने या पिछड़ेपन के लिए इस्लाम कतई जिम्मेदार नहीं है। इसके बावजूद, उनकी हालत यदि संतोषजनक नहीं है तो इसके लिए पुरुष सत्तावादी समाज है, जो हर धर्म में है। इसी की वजह से वह उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इस तस्वीर का दूसरा रुख भी है जो उम्मीदें पैदा करता है। मुस्लिम महिलाओं के आगे बढ़ने की यह कहानियां बस्तियों से हटकर हैं। फातिमा बी जहां हमारे देश की पहली महिला न्यायाधीश थीं, नजमा हेपतुल्ला नरेंद्र मोदी कैबिनेट में अहम जिम्मेदारी संभाल रही हैं, वहीं तमाम अन्य क्षेत्रों में भी महिलाएं अपनी योग्यता का परिचय दे रही हैं। तुर्की जैसे आधुनिक देश में ही नहीं बल्कि कट्टरपंथी समझे जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश सरीखे देशों में भी महिलाओं को प्रधानमंत्री तक बनने का मौका मिला है। यह वाकई एक खुशनुमा अहसास है कि मजहब के ठेकेदारों की तमाम बंदिशों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं राजनीति के साथ खेल, व्यापार उद्योग, कला, साहित्य, रक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। अल्पसंख्यक मामलों की केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला कहती हैं कि मुस्लिम लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ाना मोदी सरकार के एजेंडे में है क्योंकि सभी वर्गों का एकसाथ विकास ही देश के संपूर्ण विकास में मददगार सिद्ध हो सकता है। बेशक, यह सही सोच है। ऐसे समय में जब सभी वर्गों-धर्मों की लड़कियां आगे बढ़ रही हैं, हम मुस्लिम लड़कियों के साथ अन्याय नहीं कर सकते। मलाला यूसुफजई को मिला नोबेल अवार्ड प्रेरित कर रहा है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के इस हिस्से के बारे में भी सोचें और कुछ करें। मोदी सरकार यदि सकारात्मक सोच रही है, तो यह स्वागतयोग्य है।
बेशक, शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है। शिक्षित कौमों ने ही हमेशा तरक्की की है। किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्व दे रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। भारत में, खासकर मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है। आंकड़े साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी बहुत अच्छी तस्वीर पेश नहीं कर पाई थी, जिसमें बताया गया था कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में औसतन साढ़े तीन प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों के स्कूल जाने का जिक्र था। नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के मुताबिक प्राथमिक स्तर यानी पांचवीं तक की कक्षाओं में 1.483 करोड़ मुस्लिम बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, यह संख्या प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में दाखिला लेने वाले कुल 13.438 करोड़ बच्चों की 11.03 फीसदी है जो वर्ष 2007-08 में 10.49 फीसदी थी और 2006-07 में 9.39 प्रतिशत। इन कक्षाओं में पढ़ रहे कुल मुस्लिम छात्रों में 48.93 फीसदी लड़कियां शामिल हैं। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में भी मुस्लिम बच्चों की तादाद में इजाफा हुआ तो है लेकिन इतना नहीं जो संतोष पैदा करता हो। काबिले गौर यह भी है कि उच्च प्राथमिक विद्यालय में लड़कियों की संख्या मुस्लिम छात्रों की तादाद की 50.03 फीसदी है, जबकि सभी वर्ग की लड़कियों के उच्च प्राथमिक कक्षा में कुल दाखिले महज 47.58 फीसदी हैं। यह रिपोर्ट देश के 35 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों के 633 जिलों के 12.9 लाख मान्यता प्राप्त स्कूलों से एकत्रित जानकारी पर आधारित है। रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 64 साल तक की हिंदू महिलाओं (46.1 फीसदी) के मुकाबले केवल 25.2 फीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोजगार के क्षेत्र में हैं। अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिजनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है और वह अपनी मर्जी से अपने ऊपर एक भी पैसा खर्च नहीं कर पातीं। लड़कों की शिक्षा के बारे में मुस्लिम अभिभावकों का तर्क होता है कि पढ़-लिख लेने से कौन सी उन्हें सरकारी नौकरी मिल जानी है। फिर पढ़ाई पर क्यों पैसा बर्बाद किया जाए? बच्चों को किसी काम में डाल दो, सीख लेंगे तो जिंदगी में कमा-खा लेंगे। वहीं लड़कियों के मामले में कहा जाता है कि ससुराल में चूल्हा-चौका ही तो संभालना है इसलिए बेहतर है कि लड़कियां सिलाई-कढ़ाई और घर का कामकाज सीख लें। ससुराल में यह तो नहीं सुनना पड़ेगा कि मां ने कुछ सिखाया नहीं। कारणों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए धार्मिक कारण काफी हद तक जिम्मेदार हैं जो खुद-ब-खुद गढ़ लिये गए हैं। धर्म कहता है कि पिता और पति की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी वो खुद भी है। वह खुद शादी भी कर सकती है हालांकि माता-पिता की सहमति को शुभ माना गया है। इसके अतिरिक्त भी कई सुविधा-अधिकार उन्हें हासिल हैं जो इस बात के गवाह हैं कि उनके अनपढ़ रहने या पिछड़ेपन के लिए इस्लाम कतई जिम्मेदार नहीं है। इसके बावजूद, उनकी हालत यदि संतोषजनक नहीं है तो इसके लिए पुरुष सत्तावादी समाज है, जो हर धर्म में है। इसी की वजह से वह उपेक्षित हैं, दमित हैं, पीड़ित हैं।
इस तस्वीर का दूसरा रुख भी है जो उम्मीदें पैदा करता है। मुस्लिम महिलाओं के आगे बढ़ने की यह कहानियां बस्तियों से हटकर हैं। फातिमा बी जहां हमारे देश की पहली महिला न्यायाधीश थीं, नजमा हेपतुल्ला नरेंद्र मोदी कैबिनेट में अहम जिम्मेदारी संभाल रही हैं, वहीं तमाम अन्य क्षेत्रों में भी महिलाएं अपनी योग्यता का परिचय दे रही हैं। तुर्की जैसे आधुनिक देश में ही नहीं बल्कि कट्टरपंथी समझे जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश सरीखे देशों में भी महिलाओं को प्रधानमंत्री तक बनने का मौका मिला है। यह वाकई एक खुशनुमा अहसास है कि मजहब के ठेकेदारों की तमाम बंदिशों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं राजनीति के साथ खेल, व्यापार उद्योग, कला, साहित्य, रक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। अल्पसंख्यक मामलों की केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला कहती हैं कि मुस्लिम लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ाना मोदी सरकार के एजेंडे में है क्योंकि सभी वर्गों का एकसाथ विकास ही देश के संपूर्ण विकास में मददगार सिद्ध हो सकता है। बेशक, यह सही सोच है। ऐसे समय में जब सभी वर्गों-धर्मों की लड़कियां आगे बढ़ रही हैं, हम मुस्लिम लड़कियों के साथ अन्याय नहीं कर सकते। मलाला यूसुफजई को मिला नोबेल अवार्ड प्रेरित कर रहा है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के इस हिस्से के बारे में भी सोचें और कुछ करें। मोदी सरकार यदि सकारात्मक सोच रही है, तो यह स्वागतयोग्य है।
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