Sunday, December 22, 2013

सीमाएं लांघता 'देवयानी एपिसोड'

भारत-अमेरिका कूटनीतिक सम्बन्धों में तनातनी है। शायद पहली बार अमेरिका को किसी देश से इतना प्रबल विरोध सहना पड़ रहा है, तो भारत ने भी संभवतया पहली दफा विवाद के किसी एपीसोड पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया जताई है। साथ ही, यह दिखाने की कोशिश की है कि वह मामले से बेहद खफा है, बदला लेने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता। लेकिन भारतीय रुख तमाम प्रश्न भी खड़े कर रहा है, यदि राजनयिक देवयानी खोबरागडे के विरुद्ध शिकायत है और अमेरिका उसकी जांच कर रहा है तो हम महज विरोध की परंपरा से आगे बढ़ने में इतने व्यग्र क्यों दिख रहे हैं। यह कहां की समझदारी है कि विदेश मंत्री संसद में चीखकर कहें कि मैं देवयानी को सुरक्षित वापस नहीं ला पाया तो सदन को कभी मुंह नहीं दिखाऊंगा। क्यों देवयानी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें सुरक्षा कवच मुहैया कराया जा रहा है, ताकि यह भ्रम ही न रहे कि वह राजनयिकों के लिए तय विशेषाधिकारों की परिधि में आती हैं या नहीं। अरसे से जिसे हम मित्र सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे, उसी अमेरिका के साथ ऐसा व्यवहार क्यों हो रहा है कि वह पाकिस्तान जैसा कोई शत्रु देश हो। राजनयिकों के विशेषाधिकारों का प्रावधान है और सभी देश इन्हें पूरा आदर-सत्कार देते हैं। अमेरिका पर आरोप है कि उसने मर्यादाएं लांघीं और भारतीय राजनयिक की वस्त्र उतारकर तलाशी से भी नहीं हिचका। उन्हें खूंखार कैदियों के साथ हवालात में रखा गया। भारत ने तत्काल प्रतिक्रिया जाहिर की और अमेरिकी राजनयिकों के यह अधिकार जैसे सीज कर दिए। लेकिन यह प्रतिक्रिया बेहद निचले स्तर की रही। कहां की समझदारी है कि जिस अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों ने निशाने पर ले रखा हो, जिसके दूतावासों पर हमले किए हों, जिसके राजनयिकों के अपहरण के उदाहरण हों, उस अमेरिका के दूतावास तो हम इतना असुरक्षित छोड़ दें कि आम यातायात वहां से गुजरने लगे। माना कि आम चुनाव नजदीक हैं और अमेरिका के विरुद्ध नरम रवैये से मतदाताओं में गलत संकेत जा सकते थे लेकिन ईश्वर न करे, कि राजनयिकों और दूतावास के साथ कुछ गलत हो गया होता तो हम क्या जवाब देते। क्या तब हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न चुनावों का मुद्दा नहीं बनते? अगर अमेरिका जांच पर ही उतारू था तो क्यों हम, उसकी प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार नहीं कर रहे। होना तो यह चाहिये कि हम देवयानी के जांच में बेदाग सिद्ध होने का इंतजार करते। बजाए इसके, हमने यह सुनिश्चित करने के लिए देवयानी बची रहें, हमने उन्हें विशेषाधिकारों का कवच मुहैया कराते हुए न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में तैनात कर दिया। इस तरह उन्हें विएना संधि के तहत राजनयिकों को मिलने वाले सारे अधिकार मुहैया करा दिए गए। फिलहाल कौंसुलर अफसर होने के कारण देवयानी को ये अधिकार हासिल नहीं थे। अगर यह जरूरी भी था, तो क्यों हमारा विदेश मंत्रालय अब तक भारतीय दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ का दर्जा दिलाने में कोताही बरतता रहा जबकि वहां स्थित रूसी दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ दर्जा प्राप्त है। इसके उलट, अमेरिका ने यही विशेषाधिकार भारत स्थित अपने कूटनीतिक मिशनों के कर्मचारियों के लिए प्राप्त किया हुआ है। अमेरिका को दोष देने से पहले हमें अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि हमने अपने कूटनीतिज्ञों को कितना सुरक्षा कवच प्रदान कर रखा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि विपक्षी दलों ने भी मुद्दे से ज्यादा नहीं समझा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इंकार किया, तब तक तो खैर थी लेकिन संसद के सत्र में जिस तरह से मर्यादा की सीमाएं पार हुर्इं और अमेरिका को गालियां तक दी गर्इं, वह किस तरह से सही मानी जा सकती हैं। अमेरिका अगर भूल भी रहा था और राजनयिक के साथ गलत व्यवहार पर उतारू था तो हमारे सब्र के बांध का छलक जाना, कहां तक न्यायोचित माना जा सकता है। सियासी पार्टियों का सारा आक्रोश वोटों की राजनीति तक सीमित था, इसीलिये तो भाजपा नेता यशवंत सिन्हा शालीनता की सीमा पार कर गए और यह कह बैठे, 'भारत ने काफी संख्या में अमेरिकी राजनयिकों के साथियों को वीजा जारी किए हैं। जैसे अमेरिका में मानक से कम वेतन देना अपराध है, वैसे ही धारा 377 के तहत हमारे देश में समलैंगिक संबंध भी अपराध हैं तो भारत सरकार ऐसे सभी अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेती! उन्हें जेल में डालिए और यहीं सजा दीजिए।' इन सब बातों से इतर, अगर हम वैश्विक स्थितियों की बात करें तो अमेरिका के साथ रहकर भी हम खुद को नफे में मान सकते हैं वरना रूस की हैसियत अब पहले जैसी है नहीं और चीन जैसा दुश्मन लगातार अपनी ताकत में इजाफा कर रहा है। पाकिस्तान से चीन का गठजोड़ हमारे लिए किसी भी दिन बड़ी चुनौती बनकर रूबरू हो सकता है। ऐसे में अमेरिका ही आशा की एकमात्र किरण है और वह काफी समय से चीन पर अंकुश रखने की नीयत से एशिया में भारत की भूमिका बढ़ाने के लिए कदम उठा रहा है। अमेरिका भारत को अपना रणनीतिक साझीदार मानता है और दोनों के सुरक्षा हित साझा हैं। दोनों ही देश आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त हैं और उससे लोहा लेने के लिए मजबूर हैं। समुद्री सुरक्षा, हिन्द महासागर क्षेत्र, अफगानिस्तान और कई क्षेत्रीय मुद्दों पर दोनों देश व्यापक तौर पर अपने हित साझा करते हैं। बात का लब्बोलुआब यह है कि हमें पूरे प्रकरण में समझदारी दिखानी चाहिये थी जो हमने अभी तक नहीं दिखाई है। यह भारत और अमेरिकी सम्बन्धों के लिए कतई उचित नहीं है। यह आत्मघाती भी हो सकती है।

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