Saturday, July 26, 2014

पांच पैसे के फेर में फंसा एक तंत्र

दिल्ली हाईकोर्ट महज पांच पैसे की एक लड़ाई में 41 साल से फैसला नहीं दे पा रहा जिसमें एक कंडक्टर ने गलती से एक महिला को 15 पैसे की बजाय 10 पैसे का टिकट दे दिया था। चेकिंग दस्ते ने गलती पकड़ ली और कंडक्टर नौकरी से बर्खास्त हो गया। अदालत चाहे तो भी कंडक्टर को नौकरी पर नहीं रखवा सकती क्योंकि वह रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुका है। लेकिन मुकदमा चालू आहे... पिछले कुछ दिनों में न्याय तंत्र से जुड़ी यह दूसरी खबर है जो निराशा पैदा करती है। कुछ दिन बीते होंगे, जब सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज और प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने यह कहकर न्यायिक व्यवस्था को फिर कठघरे में खड़ा कर दिया था कि तमिलनाडु के एक भ्रष्ट जज को मद्रास हाईकोर्ट का न्यायाधीश बना दिया गया और तमाम शिकायतों के बावजूद द्रमुक के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोई कदम नहीं उठाया। दबाव बनाने में उनका इशारा द्रमुक चीफ एम. करुणानिधि पर था, जिन्हें इस जज ने अतिशीघ्र जमानत दे दी थी। न्याय पालिका पर पहली बार उंगली नहीं उठीं। भ्रष्टाचार ही नहीं, अनैतिक आचरण की शिकायतें भी आम हुई हैं। मुकदमों के बोझ से मामलों के निपटारे में अनावश्यक देरी, अधिवक्ताओं की महंगी फीस और भ्रष्टाचार ने न्याय व्यवस्था को ध्वस्तीकरण के कगार पर पहुंचा दिया है। परिणामस्वरूप चारों तरफ अव्यवस्था, अपराधों की बेखौफ एवं उन्मुक्त प्रवृत्ति के साथ ही भ्रष्टाचार ने बीमारी को लाइलाज बना दिया है। आम नागरिक के दिलोदिमाग में अदालतों के प्रति विश्वास डगमगा गया है। दिल्ली हाईकोर्ट जैसे इस मामले से यह आम धारणा बन गई है कि देश की अदालतों में न्याय दुरूह हो रहा है। वादों के निस्तारण की गति इतनी धीमी है कि एक पीढ़ी के दर्ज किए मामलों पर निर्णय तीसरी-चौथी पीढ़ी तक जाकर हो पाते हैं। सियासी हस्तक्षेप बढ़ा है। भाई भतीजावाद व परिवारवाद मुश्किलें खड़ी कर रहा है। अदालती अवमानना का डर गड़बड़ियों का रक्षा कवच बन रहा है। समय-समय पर अधिवक्ता संगठनों जैसे मंचों से आवाज उठी भी, लेकिन वह बुलंद नहीं बन पाई। दरअसल, जिस तेजी से न्याय मिलना चाहिए वह लोगों को नहीं मिल पाता और बस यहीं से भ्रष्टाचार की शुरूआत हो जाती है। देश में आबादी के अनुसार कोर्ट होनी चाहिए इस बात से सरकार सहमत तो है पर जब बात संख्या बढ़ाने की होती है तो संसाधनों की कमी का रोना रोया जाता है। देश में बहुत सारे अपराध केवल इसलिए ही हो जाते हैं कि पीड़ित पक्ष को समय से न्याय नहीं मिल पाता और वे हताशा में गलत मार्ग पर चले जाते हैं। भारतीय लोकतंत्र और संविधान में निहित उपबंधों के अनुसार न्यायपालिका की भूमिका, हैसियत, महत्व और जिम्मेदारी इतनी ज्यादा है कि इसे तीसरा खंबा कहा जाता है। प्रारंभ में न्यायपालिका की जिम्मेदारी समाज में न्यायिक व्यवस्था की स्थापना और वादों-विवादों का निपटारा करना ही था। कालांतर में विधायिका और कार्यपालिका दिग्भ्रमित, भ्रष्ट और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करने लगी तो न्यायपालिका की भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई। वो न सिर्फ देश की पथ निर्देशक बल्कि एक तरह से संचालक की भूमिका में आ गई । इसका परिणाम ये हुआ कि कि देश की छोटी से बड़ी समस्या, नीति, नियमों, कानूनों, व्यवस्थाओं, अपराध, सामाजिक रीति रिवाजों, मान्यताओं के औचित्य और वैधानिकता आदि तमाम विषयों को दुरुस्त करने और सही दिशा देने की सारी जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर आ पड़ी। यहीं से वो स्थिति बनी जब न्यायपालिका पर अति सक्रियता का आरोप लगने लगा एवं कई बार खुद न्यायिक क्षेत्र से ये कहा गया कि न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्रों व अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। बलशाली होने के बाद उसे भ्रष्टाचार के कीड़े ने भी ग्रास बनाना शुरू कर दिया। निचले से लेकर उच्च स्तर तक भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की बढ़ती घटनाओं के अलावा अन्य और भी महत्वपूर्ण बातें हैं जो न्यायपालिका की साख को कम कर रही हैं और लोगों के न्यायपालिका के प्रति विश्वास में कमी का कारण बन रही हैं। इनमें सबसे बडा कारण है न्यायपालिका की निष्पक्षता पर आंच। निचले से लेकर शीर्ष स्तर तक अदालतों में पदस्थापित न्यायिक अफसरों के परिजनों, नाते-रिश्तेदारों द्वारा उन्हीं अदालतों में प्रैक्टिस करना व परोक्ष-प्रत्यक्ष रूप से इसके लाभ मिलने का एक बड़ा आरोप न्यायपालिका पर लगता रहा है। राजनीतिज्ञों, व्यावसायियों, आर्थिक रूप से सबल लोगों की तुलना में मध्यम एवं गरीब लोगों के साथ अलग-अलग न्यायिक व्यवहार एवं निर्णय तक देने का सीधा आरोप भी न्यायपालिका के लिए बड़ा प्रश्नचिह्न है। इसके अलावा एक आरोप ये भी है कि न्यायपालिका के फैसलों की आलोचना अक्सर मानहानि के दायरे में आने या ला दिए जाने के कारण नहीं हो पाती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि न्यायपालिका अपनी आलोचना के प्रति बिल्कुल असहिष्णु सा व्यवहार करती है। किसी भी क्षेत्र की तरह न्यायपालिका पर भी यदि तमाम कुप्रवृत्तियों का असर पड़ा रहा है तो यह अनापेक्षित नहीं है। किंतु जिस देश में अदालत को ईश्वर के बाद दूसरा दर्जा हासिल हो, वहां इस तरह की गुंजाइश नहीं हुआ करती। कभी-कभी यह अक्षम्य हो जाता है कि कोई न्यायाधीश अपने इंटर्न से छेड़छाड़ का आरोपी पाया जाए। दिनकरन जैसे जजों पर महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने के लिए देश को मजबूर होना पड़े। असल में, सारी स्थितियों में सरकार का काम बढ़ रहा है। उस पर यह दायित्व आया है कि वो न्याय की त्वरित व्यवस्था करे। आज देश की हर तहसील में प्राथमिक न्यायलय तो स्थापित किए ही जा सकते हैं। इनकी स्थापना में जो खर्च सरकार का होगा, वह कुल मुकदमों पर बोझ कम कर बहुत सारे मानव दिवसों की बचत करा देगा। देश के मानव संसाधनों को ठीक ढंग से उपयोग करना ही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि जब तक हम अपने संसाधनों को सही दिशा में नहीं लगाएंगे, तब तक हमारा कोई भी लक्ष्य हमें नहीं मिल पाएगा।

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