Monday, July 21, 2014
बदलाव की एक बयार
समस्याओं की तपिश और सरकारों की मनमानी के खिलाफ यह एक ठण्डी हवा का झोंका ही है। यहां सरकार और भारी-भरकम निजी कंपनियों के सामने आम आदमी है, जैसे तोप के मुकाबिल एक छोटी की सींक। शुरुआत में यह आम जन भी थर्राया-घबराया, लेकिन काम आया हौसला। आज वो धरती का सीना चीरकर खुद काला सोना निकाल रहा है, सरकार को टैक्स देता है। काफिला बढ़ रहा है, तमाम हाथ उसके साथ उठे हैं। वो जीता है, नायक सिद्ध हुआ है और कामयाबी की कथाएं रच रहा है।
झारखंड के हजारीबाग जिले की यह कहानी है। बड़कागांव प्रखंड के 205 गांवों वाले कर्णपुरा घाटी क्षेत्र, विशेषकर आराहरा गांव, में काला सोना यानि कोयले का बहुमूल्य और अकूत भंडार है। सेंट्रल प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट, रांची ने अध्ययन किया तो पाया कि यहां एक एकड़ जमीन के नीचे औसतन एक लाख से ढाई लाख टन कोयला भंडार है जिसका बाजार मूल्य साठ करोड़ रुपए के आसपास है। यहां कोयला खनन के लिए जमीन के अंदर खान नहीं बनानी पड़ती, ऊपरी तीन-साढ़े तीन फुट मिट्टी हटा देने से कोयले की परत दिखने लगती है, जिसे गैंती या मामूली विस्फोट से उखाड़ा जा सकता है। वैसे, राज्य के कई क्षेत्रों में समान स्थितियां हैं और सार्वजनिक और निजी कंपनियां आजादी के बाद से ही जमकर कोयला खनन कर रही हैं। मुनाफा इतना है कि सरकार को महज तीन सौ रुपये प्रतिटन रॉयल्टी चुकानी है और बाकी पैसा जेब में। इन कंपनियों की एक दिन की कमाई तीन से चार लाख के आसपास है। बहरहाल, सरकार को नाममात्र की रायल्टी 120 से 300 रुपए प्रतिटन देकर बाकी कोयला ले उड़ती हैं और अकूत मुनाफा कमाती है। बहरहाल, कर्णपुरा पर रिपोर्ट के बाद सरकार चेती, नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन को वरवाडीह कोयला खान परियोजना के साथ ही निजी निजी क्षेत्र की इकाइयों को 16 हजार उपजाऊ भूमि पर खनन के पट्टे आवंटित कर दिए गए। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद एनटीपीसी केवल चार सौ एकड़ जमीन ही अधिग्रहीत कर पाई। इस परियोजना को धन देने वाले अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के दबाव में और कोयले की बढ़ती घरेलू मांग को देखते हुए सरकार हर कीमत पर इस परियोजन को साकार करना चाहती थी इसलिये जबर्दस्त रस्साकसी हुई। क्षेत्र के किसानों में शुरू से भ्रम था कि सरकार कोयला ले ही लेगी इसलिये विरोध करना बेकार है। उनका डर बढ़े, इसके लिए कंपनी ठेकेदार और सरकारी अफसर किसानों से कहते फिरते थे कि विकास के लिए बिजली चाहिए और बिजली उत्पादन के लिए कोयला चाहिए जिसे सरकार ले ही लेगी इसलिए अपनी जमीन बचाने का आंदोलन बेकार है। हां, मुआवजे की दर पर बातचीत हो सकती है। कंपनी ने 35 हजार रुपये प्रति एकड़ से शुरुआत की और फिर, राशि को बढ़ाकर दस लाख तक कर दिया लेकिन किसान आंदोलन शुरू कर चुके थे और वो डिगे नहीं। विनोबा भावे विवि हजारीबाग के प्रोफेसर मिथिलेश डांगी नौकरी छोड़कर किसानों के साथ हो गए। उन्हें समझाया और बार-बार हौसला दिया। हालांकि एक किसान को जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। तमाम लोगों पर मुकदमे लादे गए। कारवां रुका नहीं।
इसी बीच सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया जिसने ऊर्जा में कई गुना इजाफा कर दिया। शीर्ष न्यायालय की खण्डपीठ ने केरल के लिगनाइट खनन से संबंधित मुकदमे में फैसला देते हुए व्यवस्था दी कि खनिजों को स्वामित्व उसी का है जो जमीन का स्वामी है। यह स्वामित्व जमीन की सतह से पृथ्वी के केंद्र यानि पानी से लेकर सभी खनिजों तक लागू है। न्यायालय ने कहा कि देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो खनिजों का स्वामित्व सरकार को देता हो। सरकार या कंपनियों को खनिजोंपर अधिकार प्राप्त करना है तो उन्हें वैध तरीके से जमीन का अधिग्रहण या उसे खरीदना होगा। संवैधानिक स्थिति यही है लेकिन खनिजों की बढ़ती जरूरत और अनंत मुनाफे की संभावनाओं ने तमाम स्तरों से यह प्रचार करा दिया है कि जमीन का स्वामी केवल तीन-चार फुट ऊपरी सतह का मालिक है, उसके नीचे की सभी चीजों की मालिक सरकार है और कभी भी, कैसे भी उन खनिजों को हासिल कर सकती है। उत्साहित किसान खनन के बाद निकले कोयले को बेचते हैं, फिर नियमानुसार सरकार को रॉयल्टी भी चुका रहे हैं। वास्तविकता यह है कि कर्णपुरा घाटी के आंदोलन ने न सिर्फ कोयले के स्वामित्व और उपयोग के अधिकार पर ही नहीं, बल्कि सभी प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व और विनियोजन के अधिकार का सवाल उठा दिया है। एक दशक में झारखंड में 101 परियोजनाओं पर सहमति बनी लेकिन जमीन पर सिर्फ दो ही उतर पाए क्योंकि स्थानीय जनता अपने जल, जंगल, जमीन और खनिजों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं। पूरे झारखंड में स्थानीय स्तर के ऐसे आंदोलनों की बाढ़-सी आई हुई है। आंदोलनों की वजह आर्सेलर मित्तल को जाना पड़ा, टाटा की परियोजनाएं रुक गर्इं, ईस्टर्न कोल फील्ड का विस्तार अटक गया। कोयले का उत्पादन नीचे गिर रहा है, धनबाद में कोयला खदानों पर कब्जा करने की रणनीति बनाई जा रही है। ऐसे में ये आंदोलन एक बड़े बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं। देश के लिए यह एक झोंका ही सही लेकिन इसे बयार आने का संकेत तो समझा ही जा सकता है।
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