Friday, July 18, 2014

'बेचारों' को मौत पर बहस-मुबाहिसे

केंद्र सरकार ने इच्छामृत्यु का विरोध किया है और इसे खुदकुशी करार दिया है। उसका कहना है कि देश में इच्छा से मौत की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। कुछ समय पहले, अरुणा शानबाग के बहाने बहस हुई थी। तब और अब, यह नहीं सोचा गया कि गंभीर बीमारी से पीड़ित व्यक्ति की स्थिति क्या होती है? कितना कष्ट वो और उनके तीमारदार परिजन झेला करते हैं? हम सभी रोगियों को इलाज मुहैया कराने की स्थिति में नहीं हैं और अगर आ भी जाएं तो क्या इनके दर्द का इलाज कर पाने में खुद को सक्षम पा सकेंगे? बहरहाल, कॉमा जैसी स्थिति में पड़े इन 'बेचारों' को मौत पर बहस-मुबाहिसे का एक और दौर शुरू हुआ है। अरुणा का मामला सामने आने के बाद ही इस बहस का वास्तविक आगाज हुआ। पिछले 37 साल से मुंबई के अस्पताल में लगभग मृत अवस्था में पड़ी अरुणा की तरफ से अदालत में याचिका में कहा गया कि उसे दयामृत्यु की इजाजत दी जाए। अरुणा के साथ मुंबई के उस अस्पताल में क्रूरतापूर्ण ढंग से बलात्कार किया गया था जहां वह नर्स थीं। इस हादसे के कारण अरुणा को लकवा मार गया और वह अपनी आवाज खो बैठीं। डॉक्टरों के मुताबिक अरुणा की हालत में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। सरकार का कहना है कि अभी तक भारतीय संविधान में इच्छामृत्यु देने का कोई प्रावधान नहीं है। जिस देश में पैसे न होने पर अस्पताल प्रशासन गंभीर मरीजों को बाहर निकाल फेंकता है, उसी देश में एक अस्पताल एक जिंदा लाश को कितने दिन संभाल कर रख सकता है। निश्चय ही मृत्यु की मांग खुद में एक जटिल प्रश्न है? इसे यह कहकर खारिज किया जा सकता है जो चीज मनुष्य दे नहीं सकता, उसे छीनने का अधिकार सिवाय प्रकृति के, किसी को नहीं है। भारत जैसे देश के संबंध में यह एक सामाजिक मुद्दा भी है क्योंकि इच्छा मृत्यु (युथनेसिया) की इजाजत मिलने पर उसके दुरुपयोग की आशंका पैदा हो सकती है। एक खतरा यह भी है कि तब आत्महत्या के इच्छुक लोग युथनेसिया की आड़ में अपनी जिंदगी खत्म कर सकते हैं। यूं तो मेडिकल साइंस कोमा में पड़े व्यक्तियों के जीवन में कभी भी लौट आने की संभावना से इनकार नहीं करती, लेकिन इन सभी तर्कों के बावजूद एक पक्ष युथनेसिया की जरूरत का है। वे लोग जिनके लिए मृत्यु का अर्थ मरना नहीं, कष्टकर और असाध्य स्थितियों से छुटकारा पाना है, मौत को एक समाधान की तरह देखते हैं। कुछ बरस पहले तक देश में गर्भपात को गलत माना जाता था लेकिन जब गर्भ के कारण किसी मां का जीवन ही संकट में पड़ जाए तो मेडिकल साइंस में ऐसे गर्भपात को उचित ठहराया जाने लगा। सुप्रीम कोर्ट में आरंभ में इस मामले की सुनवाई के वक्त तत्कालीन चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन और जस्टिस एके गांगुली की खंडपीठ ने सवाल उठाया था कि क्या यह याचिका इच्छामृत्यु (युथनेसिया) की मांग जैसी नहीं है? इस पर शानबाग के वकील शेखर नफडे ने दलील दी थी कि फोर्स फीडिंग के सहारे शानबाग को जिलाए रखने की कोशिश असल में सम्मान के साथ जीने के अधिकार के खिलाफ है, जो उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हासिल है। शानबाग के मामले से यह लगता भी है कि यह स्वास्थ्य संबंधी कारणों से दयामृत्यु पाने के अधिकार का मसला है। शानबाग से पूर्व जयपुर के 79 वर्षीय गिरिराज प्रसाद गुप्ता ने राजस्थान हाईकोर्ट से स्वेच्छा मृत्यु के लिए इजाजत मांगी थी। उन्होंने दलील दी थी कि वह एक दर्जन असाध्य रोगों से पीड़ित हैं हालांकि परिवार वाले उनकी देखभाल में सक्षम थे, पर उन्होंने इच्छामृत्यु की मांग इसलिए की थी कि बिस्तर पर बीमार पड़े रहकर मरने की अपेक्षा वह सम्मानजनक मृत्यु चाहते हैं। हालांकि भारत में कानूनन इसकी अनुमति नहीं है, पर विधि आयोग ने एक बार इस छूट की वकालत अवश्य की है। उसने सुझाव दिया था कि ऐसे असाध्य बीमार व्यक्ति को इसकी छूट मिलनी चाहिए जिसकी हालत में सुधार की कोई उम्मीद न बची हो। देश में इसकी वकालत करने वाला संगठन सोसायटी फॉर द राइट टू डाई विद डिग्निटी भी है। गैर सरकारी संगठन कॉमनकॉज ने सुप्रीम कोर्ट ने इससे संबंधित याचिका दाखिल की हुई है। वैसे, हमारे समाज में परंपरा के रूप में स्वेच्छा मृत्यु का एक स्वरूप भी पहले से मौजूद है, जैसे हिंदू धर्म में समाधि और जैन धर्म में संथारा लेने की परंपरा। इन परंपराओं के तहत स्वस्थ व्यक्ति तक स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर सकता है पर जहां तक स्वेच्छा मृत्यु को कानूनी जामा पहनाने का सवाल है, तो बहुस्तरीय भारतीय समाज में ऐसा कर पाना आसान नहीं है। इसका एक पक्ष यह है कि अगर कानूनन ऐसी छूट दे दी गई, तो कहीं इसका दुरुपयोग न होने लगे। इसके अलावा कई डॉक्टर भी मानते हैं कि जरूरी नहीं है कि अगर कोई व्यक्ति वर्षों से बिना कोई हरकत किए बिस्तर पर पड़ा है तो उसे मौत की नींद सुलाने का इंतजाम ही किया जाए। कुछ वर्ष पहले जर्मनी में एक वाकया सामने आया था, जब 26 साल से निस्पंद बिस्तर पर पड़े एक मरीज ने एक कम्युनिकेटर के जरिए यह संदेश दिया था कि ढाई दशक के इस अरसे उससे जो कुछ कहा गया, जो कुछ उसके आसपास घटित हुआ, उसे उन सबका अहसास है। इच्छामृत्यु के विरोधी तर्क देते हैं कि जब जीवन की संभावनाएं हैं तो हम किसी को कैसे मौत के घाट उतार सकते हैं। निस्संदेह इस विषय में समाज और कानून की राय अलग-अलग है, पर दोनों को ही इस पर अवश्य विचार करना होगा कि अगर किसी वजह से एक मनुष्य की जीने की ललक और ऊर्जा खत्म हो जाए और मृत्यु उसे जीवन से बड़ी और मुक्त करने वाली प्रतीत होती हो तो ऐसे व्यक्ति को दयामृत्यु की दी जाने वाली छूट न तो अनैतिक और न ही धर्म विरुद्ध कहलाएगी। ऐसे व्यक्ति को इच्छामृत्यु की छूट देना अनैतिक नहीं हो सकता जिसके जीने की सारी संभावनाएं खत्म हो गई हों और उसे सिर्फ इसलिए जिंदा रखा गया हो कि हमारा कानून इसकी इजाजत नहीं देता। कोई व्यक्ति दिमागी रूप से सक्रिय है लेकिन उन लाइलाज बीमारियों के कारण भयंकर पीड़ा झेल रहा है जिनमें रिकवरी की कोई संभावना नहीं है, तो अवश्य ऐसी मांग पर विचार किया जाना चाहिए। जाहिर तौर पर इसके लिए कायदे-कानून और दिशानिर्देश तय किए जाने चाहिए।

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