Saturday, July 26, 2014
कब आएंगे अच्छे दिन...
उत्तराखंड विधानसभा के उपचुनावों को यदि पैमाना माना जाए जहां तीनों सीटें कांग्रेस ने जीती हैं तो सवाल उठ रहा है कि क्या नरेंद्र मोदी के प्रति जनता की दीवानगी में कमी आई है? मोदी सरकार का दावा है कि ठोस कार्यों की नींव रखी जा रही है, जिनके नतीजे कुछ साल बाद नजर आएंगे लेकिन जनता क्या यह आसानी से मान लेने के लिए तैयार बैठी है? यूपीए सरकार में हर कदम पर समस्या से जूझ रहे अवाम में मोदी को प्रचंड बहुमत राहत पाने के लिए दिया है, और शायद व्यग्रता की जगह निराशा ले रही है, निराशा ही उम्मीदों के ज्वार को ठंडा कर रही है। प्रतिदिन वाचाल होती महंगाई की आग उत्साह पर भारी है।
जनअपेक्षाओं की आंधी पर चढ़कर आने वाली सरकारों के समक्ष चुनौतियां भी बड़ी होती हैं क्योंकि जनता सत्ता परिवर्तन के साथ ही चौतरफा बदलाव देखने को उत्सुक होती है। इतिहास गवाह है कि जनता जिसे सिर-आंखों पर बैठाती है, उसे भरोसा टूटने पर अपने मन से निकाल भी देती है। मोदी सरीखी चुनावी कामयाबी 1971 में इंदिरा गांधी को मिली थी। जिस प्रकार अच्छे दिनों की आस लेकर आम जनता मोदी के साथ खड़ी थी, ठीक ऐसे ही गरीबी हटाओ के लोकलुभावन नारे पर यकीन कर जनता ने इंदिरा को को दो तिहाई बहुमत दिया था। इंदिरा की लोकप्रियता का ग्राफ भी मोदी की तरह चरम पर था किंतु 1972-73 में सूखे के कारण देश में अकाल पड़ गया। खाड़ी में अशांति से विश्व बाजार में तेल की कीमत चार गुना बढ़ गई। परिणामस्वरूप, खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में 27 प्रतिशत की ऐतिहासिक वृद्धि हुई। इंदिरा को भी मोदी की मानिंद सत्ता में पहुंचाने में पहली बार मतदान करने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों की भूमिका रही किंतु महंगाई ने बाद में उन्हें बेहद अलोकप्रिय बना दिया। मोदी इससे सबक ले सकते हैं। राजनीतिक समझ-बूझ के लिए प्रसिद्ध मौजूदा सत्ता नायक जानते भी होंगे कि स्थितियों में बदलाव के लिए जनता की व्यग्रता ने उन्हें कुर्सी तक पहुंचाया है। अब अगर, उनकी सरकार को कसौटी पर कसा जाए तो स्थितियां बहुत अच्छी नजर नहीं आतीं। महंगाई के मोर्चे पर सरकार ने सख्ती के आदेश दिए, लेकिन हुआ कुछ नहीं, और बात प्रपंच सरीखी लगकर समाप्त हो गई। अच्छे दिनों का मतलब था क्या, लोगों ने माना था कि मोदी के पीएम बनने के बाद पांच बातें हो जाएं तो अच्छे दिनों का आगाज मान लिया जाएगा। सबसे पहले महंगाई कम होनी चाहिये थी। महंगाई मतलब, सब्जी, अनाज और दूसरी रोज की खाने-पीने चीजें उन्हें सस्ती मिलें। उद्यमियों को भरोसा लौटना था कि वो आसानी से उद्योग लगा चला सकें। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर अच्छा चलने लगे यानि कारें, एसी, फ्रिज खूब बिकें। लोगों को सस्ता कर्ज मिलने लगे ताकि घर-गाड़ी के सपने पूरे होने लगें। सड़क, बिजली और पानी की सहूलियत आसानी से मिल सके। सर्वाधिक जरूरी था कि देश में रोजगार के ढेरों मौके सृजित हों जिससे लोगों की कमाई का जरिया बने, कमाई बढ़ भी सके और इस तरह से खर्च और बचत हो सके कि देश की तरक्की की रफ्तार मतलब जीडीपी के आंकड़े दुरुस्त हो सके। पर हुआ क्या, टमाटर सौ रुपये किलो के भाव तक पहुंच गया। कोई सब्जी ऐसी नहीं जो सस्ती हो। आटा, दाल, चावल, दूध और दूसरी सारी जरूरी चीजें तेजी से महंगी हुई हैं। अभी तक मौसम का जो हाल रहा है, उससे साफ लग रहा है कि इस साल मॉनसून सामान्य से कम हो सकता है जिसका सीधा-सा मतलब खेती पर बुरा असर। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर भी निराश है, कारों की बिक्री का आंकड़ा बढ़ नहीं पाया है। देश में महंगे कर्ज की वजह से औद्योगिक घरानों को अपनी विस्तार योजनाएं थामनी पड़ी हैं जिससे घरेलू निवेश बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सरकार ने हर किसी को घर देने के लिए बजट में रियल स्टेट सेक्टर को बढ़ावा देने के कदम उठाए लेकिन घर खरीदने के लिए कर्ज पर ब्याज की दर अब भी बहुत ज्यादा है। इसकी वजह से रियल एस्टेट सेक्टर में जबर्दस्त ठहराव है। रियल एस्टेट सेक्टर को उम्मीद थी कि मोदी के आने से तेजी आएगी पर सरकार ने निराश ही किया। जिस तरह के आर्थिक कदम सरकार ने उठाए हैं, उससे देश की जीडीपी में खास बेहतरी नहीं होने वाली। यह चिंता की बात है क्योंकि जीडीपी ग्रोथ यानि तरक्की की रफ्तार दशक में सबसे कम साढ़े पांच प्रतिशत की है और इस वित्तीय वर्ष में कोई सकारात्मक संकेत भी नहीं मिल रहा। हालांकि इसमें समस्या भी थी, मोदी की सरकार ने जब काम शुरू किया तब तक वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही बीत चुकी थी और दूसरी तिमाही का आधार बन चुका था, ऐसे में इस तरक्की की रफ्तार को चमत्कारिक तरीके से बढ़ाना किसी भी सरकार के लिए चुनौती ही था। मुश्किलें और भी हैं। शेयर बाजार में घरेलू निवेशकों को रुचि कितनी तेजी से खत्म हुई है। अंदाज लगाइए, साल की पहली तिमाही में घरेलू निवेशकों यानि एनएसडीएल के जरिए ट्रेडिंग एकाउंट खुलवाने वालों की संख्या में आधा प्रतिशत की कमी आ गई। मोदी सरकार बनने के बाद हालात सुधरने की संभावनाएं जताई जा रही थीं पर यह उम्मीद के मुताबिक खरी सिद्ध नहीं हुर्इं। बहरहाल, मोदी सरकार के लिए आगे के दिन काफी कठिन हैं। इराक संकट की वजह से भारत का तेल आयात बिल बढ़ा है। रसोई गैस की कीमत में वृद्धि के लिए भी पेट्रोलियम मंत्रालय का दबाव है। बिजली दरों में भी प्रति यूनिट 45 प्रतिशत की वृद्धि के आसार बन रहे हैं, कमजोर मॉनसून तो सबसे बड़ी चुनौती है ही। देखना है कि बड़े वायदे करके सत्ता तक पहुंची यह सरकार क्या कदम उठाती है।
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