Sunday, July 6, 2014

आदिवासियों का दर्द

नक्सलवाद के विरुद्ध केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का हथियार न डालने के बयान ने एक बार फिर चर्चाएं शुरू करा दी हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की यह पूर्वनीति नहीं है, वह पहले नक्सल समस्या को बातचीत के जरिए हल करने की भी हिमायत किया करती थी। ऐसे में उसका बदला रुख निराशा पैदा करता है। हम उस समस्या को पुन: नजरअंदाज कर रहे हैं जो नक्सलवाद के मूल में है। उनके कल्याण की बातें हम नहीं कर रहे, हम उन्हें रोजगार नहीं मुहैया करा रहे। यहां तक कि वो साधन भी नहीं जुटा पा रहे जो कम से कम उन्हें जीने लायक स्थिति में ही ले आएं। यह स्थिति समस्या को प्रतिदिन विकराल कर रही है। आदिवासियों की अच्छी-खासी संख्या वाले लगभग सभी राज्यों में नक्सलवाद की समस्या है। केंद्र की कोई भी सरकार रहे, इसके निदान के बजाए मुंह मोड़ने की नीति हमेशा बरकरार रही। इसी के नतीजतन, आदिवासी बेहाल होते गए। तमाम सवाल हैं जो आदिवासी हितैषियों ने पूछे हैं, जैसे सुदूर इलाकों में विकास की किरण कब और कैसे पहुंचेगी जबकि केंद्र और राज्यों के स्तर से आदिवासी कल्याण की तमाम योजना बनाई गई हैं। नक्सलवाद पर तमाम हो-हल्ला होता है, सरकार पर दबाव बनता है लेकिन फिर भी इन योजनाओं पर काम क्यों नहीं होता? क्या आदिवासी खुद विकास नहीं चाहते या उन्हें ऐसी विकास और कल्याणकारी योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं है? क्या उनके लायक योजनाएं नहीं बनायी जातीं? क्या इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार लोग नहीं चाहते कि इन्हें ढंग से लागू किया जाए? राजनीतिक रूप से कहीं-कहीं सशक्त होने के बाद भी आदिवासी नेतृत्व क्यों सक्रिय नहीं होता? दरअसल, आदिवासियों के साथ कई त्रासदियां हैं जिनमें पहली तो यह है कि वे नदियों के बीच घने जंगलों में रहते हैं। उनका बसेरा ज्यादातर लौह अयस्क और बॉक्साइट जैसी खनिज संपदा की पहाड़ियों पर रहा है जहां जीवन के लिए दुरूह स्थितियां हैं। औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलने के साथ आदिवासियों के बसेरे और आजीविका के साधन बांध और खनन परियोजनाओं की बलि चढ़ गए। दूसरी त्रासदी यह है कि आदिवासियों को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसा कोई मसीहा नहीं मिला। एक ऐसा नेता, जिसका अखिल-भारतीय महत्व हो और जो हर जगह आदिवासियों के मन में उम्मीद और प्रेरणा का अलख जगा सके। शिबू सोरेन जैसे नेता मिले भी तो वह क्षेत्रीय स्तर से आगे नहीं बढ़ पाए और अगर बढ़ भी गए तो बंगारू लक्ष्मण की तरह भ्रष्टाचार जैसी राजनीति की बुराइयों में खत्म हो गए। तीसरी त्रासदी इसे मान सकते हैं कि आदिवासी कुछ पहाड़ी जिलों तक सिमटे हुए हैं और इस तरह वे ऐसा वोट बैंक तैयार नहीं करते, जिसकी आवाज राजनीतिक नेतृत्व सुन सकें। कहने का आशय यह है कि वोट बैंक न होने की वजह से उनकी आवाज दब जाती है और फायदा दूसरे वर्गों को मिल जाता है। चौथी और सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अनुसूचित जनजाति कोटे के अंतर्गत नौकरियों का बड़ा हिस्सा तथा प्रतिष्ठित कॉलेजों की ज्यादातर आरक्षित सीटें पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों के पास चली जाती हैं, जो अच्छे स्कूलों में पढ़े होते हैं और जिनकी अंग्रेजी भी अच्छी होती है। अपने यूपी की बात करें तो यहां ज्यादातर इस कोटे की सीटों पर राजस्थान की मीना जैसी जातियां कब्जा कर लेती हैं जो भरपूर आरक्षण मिलने के बाद से आम तौर पर समृद्ध-सी प्रतीत होने लगी हैं। उनका उच्च सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है, न ही सियासी आवाज है लिहाजा वन, पुलिस, राजस्व, शिक्षा और स्वास्थ्य महकमे से जुड़े अधिकारी उनके साथ अक्सर निर्ममता से पेश आते हैं। देश में जहां दलितों की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक ज्यादा पहुंच नहीं है, वहीं आदिवासियों की स्थिति तो और भी बदतर है। इस स्थिति को अगर हम पांचवीं त्रासदी कहें तो छठी त्रासदी ये है कि आदिवासी ज्यादातर अपने माहौल के अंदरूनी ज्ञान के आधार पर ही आजीविका कमाने का हुनर सीखते हैं, जिसका आसानी से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। समस्या यह भी है कि ये हुनर पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित नहीं हो पा रहा और नई पीढ़ियां इससे लगभग अनभिज्ञ हो रही हैं। सातवीं समस्या भाषा को लेकर है, देश में संथाली को छोड़कर किसी भी आदिवासी बोली को आधिकारिक मान्यता हासिल नहीं लिहाजा इन्हें सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता। शिक्षा का माध्यम उनकी भाषा में न होने के कारण आदिवासी छात्र स्कूली पढ़ाई के समय से ही असहज स्थिति में रहते हैं। इसके अलावा पिछले दो-ढाई दशकों में आदिवासी इलाकों में माओवादी चरमपंथियों के बढ़ते प्रभाव के रूप में एक और त्रासदी जुड़ गई है। भले ही ये माओवादी खुद को आदिवासियों का रहनुमा बताते हों, लेकिन उन्होंने इनकी समस्याओं का कोई समाधान पेश नहीं किया है। वह अपने वर्ग की गरीबी का इस्तेमाल करते हैं इसीलिये उन्हें बहलाने-फुसलाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी होती। आदिवासी लंबे समय से इंतजार कर रहे हैं कि उनकी इन वास्तविक समस्याओं पर विचार-मंथन होना चाहिये। यह सबसे असुरक्षित और सर्वाधिक पीड़ित वर्ग है। नरेंद्र मोदी सरकार को इस हफ्ते बजट पेश करते समय इन आदिवासियों की ओर भी ध्यान देना चाहिये।

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