घाटी में इनदिनों चुनाव का मौसम है, तो आवोहवा बदली हुई है। राज्य में कांग्रेस के साथ साझी सत्ता पर काबिज नेशनल कॉन्फ्रेंस और प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट चुनाव के पक्ष में नहीं थे, लेकिन मजबूरी है इसलिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। दोनों दल जानते हैं कि एक कदम भी पीछे हटे तो राज्य में भारतीय जनता पार्टी के लिए रास्ता साफ करने का आरोप लगेगा, और अगर भाजपा किसी तरह सत्ता में आ गई तो पूरा खेल बिगड़ जाएगा। राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए ये सर्वाधिक दुष्कर और प्रतिष्ठा के चुनाव हैं।
जम्मू और कश्मीर, दोनों का मिजाज उलट है। जम्मू में हिंदूवादियों का अच्छा असर है। इस बार की अमरनाथ यात्रा के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं के विरुद्ध यहां के दुकानदारों और स्थानीय लोगों ने जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया था। एक महीने तक स्थानीय बाजार बंद रखा गया था। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने इस पर प्रतिक्रिया जाहिर की किंतु बाजार खुले नहीं। जम्मू के बारे में कहा जाता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे अलगाववादी दल यहां अपनी कई स्थानीय इकाइयां गठित नहीं कर पाए हैं। यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात जम्मू के कपड़ा विक्रेता अमित कुमार से हुई। अमित गौरवान्वित थे कि हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी को उनके साथी दुकानदारों ने स्थानीय लोगों की मदद से स्थानीय होटल लिटिल हॉर्ट से खदेड़ दिया था। गिलानी पांच दर्जन लोगों के साथ स्थानीय इकाइयों का गठन करने आए थे, लेकिन पुलिस और खुफिया एजेंसियों की सक्रियता से परेशान लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से गिलानी को होटल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। योजना में होटल संचालक को साथ लेकर होटल में तोड़फोड़ का नाटक किया गया। यह एक उदाहरण मात्र है। जम्मू छोड़िए, कश्मीर में भी जब भारत-विरोधी किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, जम्मू में जबर्दस्त प्रतिक्रिया होती है। यहां न केवल भाजपा बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरी तरह सक्रिय तंत्र है। जम्मू में भाजपा का जनाधार ही है कि उसके प्रत्याशी जीत हासिल करते रहे हैं। इन चुनावों में राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों की बेचैनी की एक वजह भाजपा की वो योजना है जिसके तहत वह कश्मीर में भी प्रत्याशी लड़ा रही है। यह योजनाबद्ध सक्रियता ही है कि उसके प्रत्याशियों ने प्रतिद्वंद्वियों से पहले चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया। सूची में मुस्लिमों की संख्या भी खूब है, जबकि अब तक मुस्लिम तो दूर, भाजपा के बैनर तले हिंदू भी चुनाव लड़ने से बचा करते थे। डराने के लिए भाजपा और अन्य हिंदूवादी दलों के प्रत्याशियों पर हमले तक हो जाया करते थे।
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर अक्सर हिंदू समर्थक कहकर मुुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है, ऐसे में मुसलमानों का जुड़ाव साबित करता है कि राष्ट्रवादी मुस्लिमों का पुराना भाजपाई सूत्र निराधार नहीं है। हाल ही में थॉमस फ्रीडमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा कि खामीयुक्त लेकिन जीवंत लोकतंत्र की वजह से ही भारत के मुसलमानों में से बहुसंख्य खुद को पहले भारतीय मानते हैं। कुछ दिन पहले घाटी में जिस वक्त बाढ़ का प्रकोप था, तब केंद्र की सक्रियता ने भी मुस्लिमों का रुख मोड़ा था। राज्य सरकार के नाकाम हो जाने पर स्थानीय लोगों ने इस आपदा से निपटने की अभूतपूर्व कोशिश आरंभ की। जरूरत के समय नदारद होने पर राज्य सरकार की आलोचना हुई लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्परता दिखाकर बाजी लूट ली। अलगाववादी नेताओं को मुंह की खानी पड़ी। राज्य सरकार नाकाम थी और अगर, कश्मीरियों ने संकट के पहले दिन से यानी जब सेना हरकत में नहीं आई थी तब से ही अपना काम करना शुरू न किया होता तो हालात और भी भयावह होते। छात्र, मोहल्लों के नेताओं आदि ने सुरक्षित ठिकानों और वहां रहने के अस्थायी इंतजाम शुरू कर दिए थे। शुरुआत में सेना को अपना काम करने में इन युवाओं से जबरदस्त मदद हासिल हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी अधिकारी तो मौके से पूरी तरह नदारद हो चुके थे। लोग लापता थे, परिवार बिछड़ चुके थे, ऐसे में तकनीक से लैस इन युवाओं ने सोशल मीडिया की मदद से संचार की कमी पूरी की। वहीं अन्य ने आपातकालीन आपूर्ति के लिए शिविर बनाए जहां से मदद घाटी पहुंंचनी शुरू हुई। धीरे-धीरे पूरा देश उनके पीछे एकजुट हो गया। यहां भी भाजपा का तंत्र सक्रिय था, उसके सुगठित सोशल मीडिया तंत्र ने कारगर भूमिका का निर्वाह किया। सेना के मीडिया संस्थान आर्मी लायजन सेल ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान के नेतृत्व में एएलसी ने अपने फेसबुक पेज और ट्विटर फीड को सूचना केंद्र में बदल दिया। यह पूरी प्रक्रिया बहुत मददगार साबित हुई। सेना जनसंपर्क में पहले से कमजोर थी लेकिन लगता है अब हालात बदल रहे हैं। केंद्र सरकार ने सेना के अच्छे काम की फसल काटी है। इसमें दो राय नही कि सेना इस आपदा के दौरान बहुत मजबूत होकर उभरी है लेकिन कश्मीर की रोजमर्रा की राजनीति की प्रकृति से यही अंदाजा मिलता है कि यह एक क्षणिक लाभ है। बस एक फर्जी मुठभेड़, बलात्कार या शोषण का एक इल्जाम स्थानीय लोगों की नजर में सेना को दोबारा शक के दायरे में ला देगा और सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम के चलते होने वाले अन्यायों की बात की जाने लगेगी लेकिन भाजपा के लिए फिलहाल हवाएं सुखदेय हैं। बकौल अमित, जम्मू को लगता है कि भाजपा को सत्ता से अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए उलटी गिनतियां शुरू होंगी। स्थानीय लोगों की और भी उम्मीदें हैं और यही चुनावों में अहम भूमिका का निर्वाह करेंगी।
जम्मू और कश्मीर, दोनों का मिजाज उलट है। जम्मू में हिंदूवादियों का अच्छा असर है। इस बार की अमरनाथ यात्रा के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं के विरुद्ध यहां के दुकानदारों और स्थानीय लोगों ने जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया था। एक महीने तक स्थानीय बाजार बंद रखा गया था। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने इस पर प्रतिक्रिया जाहिर की किंतु बाजार खुले नहीं। जम्मू के बारे में कहा जाता है कि तमाम प्रयासों के बावजूद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे अलगाववादी दल यहां अपनी कई स्थानीय इकाइयां गठित नहीं कर पाए हैं। यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात जम्मू के कपड़ा विक्रेता अमित कुमार से हुई। अमित गौरवान्वित थे कि हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी को उनके साथी दुकानदारों ने स्थानीय लोगों की मदद से स्थानीय होटल लिटिल हॉर्ट से खदेड़ दिया था। गिलानी पांच दर्जन लोगों के साथ स्थानीय इकाइयों का गठन करने आए थे, लेकिन पुलिस और खुफिया एजेंसियों की सक्रियता से परेशान लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से गिलानी को होटल छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। योजना में होटल संचालक को साथ लेकर होटल में तोड़फोड़ का नाटक किया गया। यह एक उदाहरण मात्र है। जम्मू छोड़िए, कश्मीर में भी जब भारत-विरोधी किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, जम्मू में जबर्दस्त प्रतिक्रिया होती है। यहां न केवल भाजपा बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूरी तरह सक्रिय तंत्र है। जम्मू में भाजपा का जनाधार ही है कि उसके प्रत्याशी जीत हासिल करते रहे हैं। इन चुनावों में राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों की बेचैनी की एक वजह भाजपा की वो योजना है जिसके तहत वह कश्मीर में भी प्रत्याशी लड़ा रही है। यह योजनाबद्ध सक्रियता ही है कि उसके प्रत्याशियों ने प्रतिद्वंद्वियों से पहले चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया। सूची में मुस्लिमों की संख्या भी खूब है, जबकि अब तक मुस्लिम तो दूर, भाजपा के बैनर तले हिंदू भी चुनाव लड़ने से बचा करते थे। डराने के लिए भाजपा और अन्य हिंदूवादी दलों के प्रत्याशियों पर हमले तक हो जाया करते थे।
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर अक्सर हिंदू समर्थक कहकर मुुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है, ऐसे में मुसलमानों का जुड़ाव साबित करता है कि राष्ट्रवादी मुस्लिमों का पुराना भाजपाई सूत्र निराधार नहीं है। हाल ही में थॉमस फ्रीडमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा कि खामीयुक्त लेकिन जीवंत लोकतंत्र की वजह से ही भारत के मुसलमानों में से बहुसंख्य खुद को पहले भारतीय मानते हैं। कुछ दिन पहले घाटी में जिस वक्त बाढ़ का प्रकोप था, तब केंद्र की सक्रियता ने भी मुस्लिमों का रुख मोड़ा था। राज्य सरकार के नाकाम हो जाने पर स्थानीय लोगों ने इस आपदा से निपटने की अभूतपूर्व कोशिश आरंभ की। जरूरत के समय नदारद होने पर राज्य सरकार की आलोचना हुई लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्परता दिखाकर बाजी लूट ली। अलगाववादी नेताओं को मुंह की खानी पड़ी। राज्य सरकार नाकाम थी और अगर, कश्मीरियों ने संकट के पहले दिन से यानी जब सेना हरकत में नहीं आई थी तब से ही अपना काम करना शुरू न किया होता तो हालात और भी भयावह होते। छात्र, मोहल्लों के नेताओं आदि ने सुरक्षित ठिकानों और वहां रहने के अस्थायी इंतजाम शुरू कर दिए थे। शुरुआत में सेना को अपना काम करने में इन युवाओं से जबरदस्त मदद हासिल हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी अधिकारी तो मौके से पूरी तरह नदारद हो चुके थे। लोग लापता थे, परिवार बिछड़ चुके थे, ऐसे में तकनीक से लैस इन युवाओं ने सोशल मीडिया की मदद से संचार की कमी पूरी की। वहीं अन्य ने आपातकालीन आपूर्ति के लिए शिविर बनाए जहां से मदद घाटी पहुंंचनी शुरू हुई। धीरे-धीरे पूरा देश उनके पीछे एकजुट हो गया। यहां भी भाजपा का तंत्र सक्रिय था, उसके सुगठित सोशल मीडिया तंत्र ने कारगर भूमिका का निर्वाह किया। सेना के मीडिया संस्थान आर्मी लायजन सेल ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। लेफ्टिनेंट जनरल शौकीन चौहान के नेतृत्व में एएलसी ने अपने फेसबुक पेज और ट्विटर फीड को सूचना केंद्र में बदल दिया। यह पूरी प्रक्रिया बहुत मददगार साबित हुई। सेना जनसंपर्क में पहले से कमजोर थी लेकिन लगता है अब हालात बदल रहे हैं। केंद्र सरकार ने सेना के अच्छे काम की फसल काटी है। इसमें दो राय नही कि सेना इस आपदा के दौरान बहुत मजबूत होकर उभरी है लेकिन कश्मीर की रोजमर्रा की राजनीति की प्रकृति से यही अंदाजा मिलता है कि यह एक क्षणिक लाभ है। बस एक फर्जी मुठभेड़, बलात्कार या शोषण का एक इल्जाम स्थानीय लोगों की नजर में सेना को दोबारा शक के दायरे में ला देगा और सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम के चलते होने वाले अन्यायों की बात की जाने लगेगी लेकिन भाजपा के लिए फिलहाल हवाएं सुखदेय हैं। बकौल अमित, जम्मू को लगता है कि भाजपा को सत्ता से अनुच्छेद 370 की समाप्ति के लिए उलटी गिनतियां शुरू होंगी। स्थानीय लोगों की और भी उम्मीदें हैं और यही चुनावों में अहम भूमिका का निर्वाह करेंगी।
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