उच्च शिक्षा पटरी से उतर रही है। विश्वविद्यालयों की स्थितियां प्रतिदिन बिगड़ रही हैं। शासन-सत्ता ने कुलपतियों के हवाले छोड़ रखा है और कुलपति नियंत्रक की भूमिका ढंग से नहीं निभा पा रहे। दरअसल, कुलपति चयन की प्रक्रिया में गंभीर त्रुटियां हैं, सरकारों और राज्यपालों ने इसे अपने मनमुताबिक मान लिया है और जो नियुक्तियां हो रही हैं, उनका पैमाना प्रशासनिक और अकादमिक अनुभव कम, राजनीतिक उद्देश्य ज्यादा हो गए हैं। यह स्थितियां रहीं तो रहा-सहा ढांचा ढहने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला।
विश्वविद्यालय ज्ञान तथा नवाचार के केंद्र के रूप में स्थापित किए जाते हैं। यहां नई पीढ़ी को तैयार किया जाता है। कोई भी संस्था या विश्वविद्यालय किस ऊंचाई तक अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा सकता है तथा युवा प्रतिभा का विकास कर सकता है, जिसमें कुलपति द्वारा प्रदत्त शैक्षिक, नैतिक तथा बौद्धिक नेतृत्व सबसे महत्वपूर्ण होता है। परंपरा से कुलपति का पद समाज में श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। व्यवस्था उसके ज्ञान तथा विद्धतापूर्ण योगदान के कारण सदैव नतमस्तक रही है। डॉक्टर राधाकृष्णन, सर रामास्वामी मुदलियार, आशुतोष मुखर्जी, पंडित मदन मोहन मालवीय, गंगानाथ झा, डॉक्टर अमरनाथ झा, डॉक्टर जाकिर हुसैन जैसे कई विख्यात नाम याद आते हैं। इन नामों को सुनकर ही कुलपति की गरिमा, प्रतिष्ठा का पक्ष उभरकर सामने आ जाता है। इसी के मद्देनजर कोठारी आयोग (1964-66) ने स्पष्ट संस्तुति की थी कि शिक्षा के इतर क्षेत्रों से सेवानिवृत्त होकर आए व्यक्तियों की कुलपति पद पर नियुक्ति उचित नहीं। विशेष परिस्थितियों में ऐसा कुछ करना भी पड़े तब भी उसे किसी को पुरस्कृत करने या पद देने के लिए प्रयोग न किया जाए। विश्वविद्यालय शिक्षा के मंदिर ही नहीं बल्कि विद्वत समाज की वजह से भी जाने जाते हैं और कुलपति को विद्धता तथा योगदान के आधार पर विश्वविद्यालय को नेतृत्व देना होता है। इसका आधार उसकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिकता होती है। ज्ञान की खोज और सृजन गहन प्रतिबद्धता के आधार पर ही हो पाता है। इसके लिए उचित वातावरण का निर्माण कुलपति का विशेष उत्तरदायित्व होता है। उस वातावरण में सम्मान तथा श्रद्धा उसे तभी मिलती है जब वह शोध, नवाचार तथा अध्यापन में सक्रिय भागीदारी निभाता है। वह मात्र अपने पद के अधिकारों के आधार पर सम्मान और श्रद्धा अर्जित नहीं करता है। कुछ समय से यह मिसालें भी सामने आ रही हैं कि पुलिस अफसर और नौकरशाह भी कुलपति के पद पर नियुक्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला अपर पुलिस महानिदेशक मंजूर अहमद की आगरा विश्वविद्यालय में नियुक्ति से शुरू हुआ था, जो धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी आरंभ हो गया। इसके अतिरिक्त राजनेताओं को कुलपति बनाने के तो और भी तमाम उदाहरण हैं। इस तरह की नियुक्तियों में देखा यह गया है कि राजनेता और नौकरशाह अकादमिक बातों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया करते बल्कि उनका पूरा जोर प्रशासनिक व्यवस्थाओं की तरफ होता है। वह उन बातों के लिए जरूरी समय नहीं निकालते जो विश्वविद्यालयों के मूल कार्यों में शुमार हैं। इसीलिये उनके कार्यकालों में शोध और पाठ्यक्रम उन्नयन के कार्यों में ब्रेक लग जाया करते हैं।
सेवारत अफसरों की नियुक्तियों से तो और भी समस्याएं आती हैं। वह काम ढंग से नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह मात्र एक अस्थायी व्यवस्था है जैसे वह किसी विभाग से स्थानांतरित होकर यहां आए हों। राजनीतिक नेतृत्वों ने पहुंच वाले नौकरशाहों को लगने लगता है कि एक से दूसरे विभाग में स्थानांतरित होकर वह कार्यकुशलता दिखा सकता है तो सेवानिवृत्त होकर एक विश्वविद्यालय क्यों नहीं चला सकता? नेता और नौकरशाह जब मिल जाते हैं तब वे शिक्षाविदों, प्राध्यापकों और विद्वानों को चयन समितियों में अधिकतर अवसरों पर खानापूर्ति के लिए आमंत्रित करते हैं। कुलपति की नियुक्तियों में जाति, पंथ, क्षेत्रीयता अब खुलेआम हावी हो रही है। इस क्रम में अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय का उदाहरण देखें, इस विवि की स्थापना की घोषणा पूर्व राष्ट्रपति और प्रख्यात वैज्ञानिक डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन जैसे नामों के साथ की गई, लेकिन जब वहां पहले कुलपति की नियुक्ति की घोषणा हुई तो लोगों का आश्चर्य और आशंकाएं उभर कर सामने आ गर्इं। कलाम अलग हो चुके हैं। लोग पूछते हैं कि यह विश्वविद्यालय कहां से चल रहा है, दिल्ली से, पटना से, विदेश से या नालंदा से? जो भी हो, यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि शिक्षा की प्रगति न केवल ठहरी है वरन नीचे जा रही है। निजी विश्वविद्यालयों की स्थितियां भी सुखद नहीं हैं। देश में जब मानद विश्वविद्यालयों की अचानक बाढ़ आ गई है, तब उसके पीछे की कहानी भी सारे देश में प्रचलित हुई। कुलपतियों की नियुक्ति भी अनेक बार चर्चा के उसी दायरे में आती है कि कौन किस का नामित है, वह कैसे सबसे आगे निकल गया, पद पर आकर उसका सबसे बड़ा लक्ष्य क्या होगा, इत्यादि। मानद विश्वविद्यालयों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब राजनेता अथवा व्यापारी पिता ने संपत्ति अर्जित की, शिक्षा को निवेश का सुरक्षित क्षेत्र माना और पुत्र को कुलपति या कुलाधिपति बना दिया जिससे बौद्धिक क्षमताओं से परिपूर्ण शख्सियतें हताश हो जाती हैं और अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। असल में, यह मनन का वक्त है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाए बिना देश की ज्ञान संपदा नहीं बढ़ सकती। यह तभी संभव होगा जब उच्च शिक्षा नौकरशाहों तथा राजनेताओं के गठबंधन से मुक्ति पा सके। इसके लिए प्राध्यापकों, विद्वानों तथा साहित्यकारों को एकजुट होकर आवाज उठानी होगी।
विश्वविद्यालय ज्ञान तथा नवाचार के केंद्र के रूप में स्थापित किए जाते हैं। यहां नई पीढ़ी को तैयार किया जाता है। कोई भी संस्था या विश्वविद्यालय किस ऊंचाई तक अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा सकता है तथा युवा प्रतिभा का विकास कर सकता है, जिसमें कुलपति द्वारा प्रदत्त शैक्षिक, नैतिक तथा बौद्धिक नेतृत्व सबसे महत्वपूर्ण होता है। परंपरा से कुलपति का पद समाज में श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। व्यवस्था उसके ज्ञान तथा विद्धतापूर्ण योगदान के कारण सदैव नतमस्तक रही है। डॉक्टर राधाकृष्णन, सर रामास्वामी मुदलियार, आशुतोष मुखर्जी, पंडित मदन मोहन मालवीय, गंगानाथ झा, डॉक्टर अमरनाथ झा, डॉक्टर जाकिर हुसैन जैसे कई विख्यात नाम याद आते हैं। इन नामों को सुनकर ही कुलपति की गरिमा, प्रतिष्ठा का पक्ष उभरकर सामने आ जाता है। इसी के मद्देनजर कोठारी आयोग (1964-66) ने स्पष्ट संस्तुति की थी कि शिक्षा के इतर क्षेत्रों से सेवानिवृत्त होकर आए व्यक्तियों की कुलपति पद पर नियुक्ति उचित नहीं। विशेष परिस्थितियों में ऐसा कुछ करना भी पड़े तब भी उसे किसी को पुरस्कृत करने या पद देने के लिए प्रयोग न किया जाए। विश्वविद्यालय शिक्षा के मंदिर ही नहीं बल्कि विद्वत समाज की वजह से भी जाने जाते हैं और कुलपति को विद्धता तथा योगदान के आधार पर विश्वविद्यालय को नेतृत्व देना होता है। इसका आधार उसकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिकता होती है। ज्ञान की खोज और सृजन गहन प्रतिबद्धता के आधार पर ही हो पाता है। इसके लिए उचित वातावरण का निर्माण कुलपति का विशेष उत्तरदायित्व होता है। उस वातावरण में सम्मान तथा श्रद्धा उसे तभी मिलती है जब वह शोध, नवाचार तथा अध्यापन में सक्रिय भागीदारी निभाता है। वह मात्र अपने पद के अधिकारों के आधार पर सम्मान और श्रद्धा अर्जित नहीं करता है। कुछ समय से यह मिसालें भी सामने आ रही हैं कि पुलिस अफसर और नौकरशाह भी कुलपति के पद पर नियुक्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला अपर पुलिस महानिदेशक मंजूर अहमद की आगरा विश्वविद्यालय में नियुक्ति से शुरू हुआ था, जो धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी आरंभ हो गया। इसके अतिरिक्त राजनेताओं को कुलपति बनाने के तो और भी तमाम उदाहरण हैं। इस तरह की नियुक्तियों में देखा यह गया है कि राजनेता और नौकरशाह अकादमिक बातों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया करते बल्कि उनका पूरा जोर प्रशासनिक व्यवस्थाओं की तरफ होता है। वह उन बातों के लिए जरूरी समय नहीं निकालते जो विश्वविद्यालयों के मूल कार्यों में शुमार हैं। इसीलिये उनके कार्यकालों में शोध और पाठ्यक्रम उन्नयन के कार्यों में ब्रेक लग जाया करते हैं।
सेवारत अफसरों की नियुक्तियों से तो और भी समस्याएं आती हैं। वह काम ढंग से नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह मात्र एक अस्थायी व्यवस्था है जैसे वह किसी विभाग से स्थानांतरित होकर यहां आए हों। राजनीतिक नेतृत्वों ने पहुंच वाले नौकरशाहों को लगने लगता है कि एक से दूसरे विभाग में स्थानांतरित होकर वह कार्यकुशलता दिखा सकता है तो सेवानिवृत्त होकर एक विश्वविद्यालय क्यों नहीं चला सकता? नेता और नौकरशाह जब मिल जाते हैं तब वे शिक्षाविदों, प्राध्यापकों और विद्वानों को चयन समितियों में अधिकतर अवसरों पर खानापूर्ति के लिए आमंत्रित करते हैं। कुलपति की नियुक्तियों में जाति, पंथ, क्षेत्रीयता अब खुलेआम हावी हो रही है। इस क्रम में अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय का उदाहरण देखें, इस विवि की स्थापना की घोषणा पूर्व राष्ट्रपति और प्रख्यात वैज्ञानिक डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन जैसे नामों के साथ की गई, लेकिन जब वहां पहले कुलपति की नियुक्ति की घोषणा हुई तो लोगों का आश्चर्य और आशंकाएं उभर कर सामने आ गर्इं। कलाम अलग हो चुके हैं। लोग पूछते हैं कि यह विश्वविद्यालय कहां से चल रहा है, दिल्ली से, पटना से, विदेश से या नालंदा से? जो भी हो, यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि शिक्षा की प्रगति न केवल ठहरी है वरन नीचे जा रही है। निजी विश्वविद्यालयों की स्थितियां भी सुखद नहीं हैं। देश में जब मानद विश्वविद्यालयों की अचानक बाढ़ आ गई है, तब उसके पीछे की कहानी भी सारे देश में प्रचलित हुई। कुलपतियों की नियुक्ति भी अनेक बार चर्चा के उसी दायरे में आती है कि कौन किस का नामित है, वह कैसे सबसे आगे निकल गया, पद पर आकर उसका सबसे बड़ा लक्ष्य क्या होगा, इत्यादि। मानद विश्वविद्यालयों में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जब राजनेता अथवा व्यापारी पिता ने संपत्ति अर्जित की, शिक्षा को निवेश का सुरक्षित क्षेत्र माना और पुत्र को कुलपति या कुलाधिपति बना दिया जिससे बौद्धिक क्षमताओं से परिपूर्ण शख्सियतें हताश हो जाती हैं और अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। असल में, यह मनन का वक्त है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाए बिना देश की ज्ञान संपदा नहीं बढ़ सकती। यह तभी संभव होगा जब उच्च शिक्षा नौकरशाहों तथा राजनेताओं के गठबंधन से मुक्ति पा सके। इसके लिए प्राध्यापकों, विद्वानों तथा साहित्यकारों को एकजुट होकर आवाज उठानी होगी।
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