Sunday, April 28, 2013

भारत के साथ अमेरिका को चीन के सबक

लद्दाख में पड़ोसी चीन बड़ा सिरदर्द बना है। भारत के भीतर 19 किलोमीटर घुस आना और फिर हठ... इसके मायने हैं। बेशक, युद्ध अभी दस्तक नहीं दे रहा। कूटनीतिक प्रयासों से समस्या हल होने की पूरी संभावनाएं हैं। लेकिन जो दुनिया को उसे संकेत देना था, वो तो दे दिया कि कोई उसे भारत से उन्नीस मानने की गलती न करे। क्षेत्रीय संतुलन में महत्व दे रहे अमेरिका को यह सबक है। उसने बताया है कि पाकिस्तान के समस्याग्रस्त होने पर वह भारत को अपना बड़ा सहयोगी माननने से बचे। चीन काफी पहले से तैयारियां कर रहा था। इसी क्रम में खबर आई थी कि चीन की तैयारी तिब्बत में भारत की सीमा तक रेल लाइन बिछाने की है और जल्दबाजी इतनी है कि, यह पूरा काम अगले साल तक वह खत्म भी कर लेगा। इसके बाद सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस हिमालय क्षेत्र में परिवहन सुविधाएं बढ़ने के अलावा चीनी सेना का आवागमन भी आसान हो जाएगा। वह रक्षा बजट भी बढ़ा रहा है। हालांकि खतरा अकेले भारत के लिए नहीं, बल्कि दक्षिण एशियाई समुद्र में अमेरिकी नौसेना की बढ़ती गतिविधियों से शीतयुद्ध की आहट आने लगी है। चीन ने शक्ति में बड़ा इजाफा करके विश्व मंच पर शक्ति समीकरण बदल दिए हैं। अमेरिका सतर्क है। संकेतों से प्रतीत हो रहा है कि महाशक्तियों के शीत युद्ध का केंद्र एशिया का यही क्षेत्र होगा क्योंकि विश्व की दो उभरती शक्तियां चीन और भारत दक्षिण एशिया में ही हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व के शक्ति समीकरण का नेतृत्व अमेरिका ही कर रहा है। अफगानिस्तान और इराक पर हमला करने के बाद उसने यह रुतबा हासिल किया है। पाकिस्तान की वजह से अमेरिका भारत से दोस्ती उस तेजी से नहीं बढ़ा पा रहा, जैसा वो चाहता है। पाकिस्तान एक ऐसा विलेन है जो चीन के साथ तालमेल बना चुका है और अमेरिका से भी धूर्तता के जरिए मदद प्राप्त कर लेता है। अमेरिका की मजबूरी यह है कि उसे पाकिस्तान जैसा एक मुस्लिम देश चाहिए जो उसे मुस्लिम विरोधी होने के आरोप से बचा सके। अमेरिका जानता है कि उसके दिए हथियारों का इस्तेमाल भारत के विरोध में ही किया जाता है लेकिन अमेरिकी हथियारों को अफगान तालिबान को सौंपे जाने की खबरों ने उसकी नींद उड़ा दी है। वह चाहकर भी रोक नहीं पा रहा और अपने देश में यह हवा उसे परेशान कर रही है कि अपने सैनिकों के मारे जाने में उसके हथियार ही प्रयोग हो रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान की यह नीति अब अंत के करीब है क्योंकि जैसे-जैसे चीन की दबंगता बढ़ रही है, वैसे-वैसे अमेरिका चौकस होता जा रहा है। वह जानता है कि आखिर में उसे चीन का सामना करना ही पड़ेगा। भारत भले ही सतही तौर पर चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध होने का दंभ भरता रहे किन्तु मालूम उसे भी है कि बहुत दिनों तक यह नाटक चल नहीं पाएगा। चीन ने भारत को जलील करने की दूरगामी योजना बना रखी है। भारत अभी 1962 के जख्मों को भी भूल नहीं पाया है इसलिए चीन की अपेक्षा अमेरिका से दोस्ती उसकी मजबूरी है। वैसे, भूलने की बात यह नहीं है कि चीन तिब्बत पर कब्जा करने के बाद से ही विगत 50 वर्षों से भारतीय सीमाओं तक यातायात के ढांचे को मजबूत करता आ रहा है। उसने भारत-चीन के ग्लेशियर आच्छादित पहाड़ों पर भी छेड़खानी शुरू कर दी है ताकि हिमालय से आने वाले जलस्रोतों का भी मनमाफिक इस्तेमाल किया जा सके। पिछले अप्रैल में उसने लद्दाख की सीमा पर स्थित अक्साई चीन में एक खगोलीय वेधशाला के निर्माण को अनुमति दी और इसके लिए दक्षिण कोरिया और जापान से भी सहयोग मांगा। इसके पीछे लद्दाख जैसे भारतीय इलाकों पर अपने दावे का अंतरराष्ट्रीयकरण करना था। तिब्बत से जुड़ी भारतीय सीमा पर रेल नेटवर्क इसी भारत विरोधी रणनीति का दूसरा और प्रमुख हिस्सा है। इस तरह चीन तीव्रता से भारत विरोधी दूरगामी कदम उठा रहा है और पाकिस्तान ईर्ष्या और बदले की भावना के तहत चीन को पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित एवं अन्य कई इलाके सौंप चुका है। दूसरी तरफ, भारत अन्दरूनी तैयारियां कर रहा है लेकिन उनमें प्रतिबद्धता नजर नहीं आती। दुर्भाग्य से चीन की स्थिति भारत से अच्छी है क्योंकि चीन संसाधनों और सैन्य शक्ति, दोनों में भारत से कहीं आगे है। इसके अतिरिक्त उसने रणनीति के तहत भारत के सभी पड़ोसी देशों को अपनी ओर खींच लिया है। मालदीव में हाल ही में घटनाक्रम से यह आशंका सत्य प्रतीत हुई कि भारत के यह पुराने दोस्त चीन के प्रलोभन में फंस रहे हैं। यह भी कम दु:ख की बात नहीं कि भारत ने अपनी सेना भेजकर जिस बांग्लादेश का निर्माण कराया, वह भी खुलकर उसके साथ खड़ा नहीं होता। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की यात्रा के दौरान वहां की विपक्षी नेता खालिदा जिया ने जिस तरह से व्यवहार किया, वह निश्चित रूप से भारत को पसंद नहीं आया होगा। दोनों देशों की सीमाओं पर भी खटपट की खबरें आती रहती हैं। श्रीलंका का रवैया भी एहसान फरामोशों जैसा है, तमिल समस्या के दौरान लिट्टे के विरुद्ध अभियान छेड़ने में भारत ने उसे भरपूर सहयोग दिया था। यहां तक कि लोकप्रिय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के पीछे भी यही सहयोग रहा लेकिन श्रीलंका भी हमारे साथ खड़ा नहीं होता। तमिलों पर सैन्य अत्याचारों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने श्रीलंका सरकार के खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पेश किया तो भारत को सत्ता में सहयोगी द्रमुक के दबाव में उसका समर्थन करना पड़ा। श्रीलंका इससे नाखुश हो गया। चीन ने मौके का फायदा उठाते हुए प्रस्ताव का खुलकर विरोध कर श्रीलंका की सहानुभूति बटोरने में जरा भी देर नहीं लगाई। नेपाल में भी चीनी समर्थकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। वहां की सत्ता में प्रभावशाली साबित हो रहे माओवादियों ने तो भारत के विरोध और चीन के समर्थन की अपनी नीति खुलकर आगे बढ़ाई है। हालात इस तरह के हैं कि वहां की सत्ता भी भारत विरोधियों का खुलकर विरोध नहीं कर पा रही। ऐसे में भारत की विदेश नीति में बदलाव की जरूरत महसूस की जाने लगी है। भारत को नए सिरे से कवायद करते हुए पड़ोसियों के साथ मधुर सम्बंध बनाने होंगे, उसी तरह जैसे म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के पश्चात पीएम मनमोहन सिंह ने वहां की निर्वाचित नेता आन सांग सू की से मित्रता के हाथ बढ़ाए। प्रणब की यात्रा से बांग्लादेश में भी भारत विरोध का ज्वार थोड़ा थमा है। आवश्यकता अमेरिकी नीति में भी परिवर्तन की है। उलझी हुई परिस्थितियों में उसे भी अपनी दोतरफा नीति छोड़नी होगी, नहीं तो उसको भी न खुद़ा ही मिला न विसाले सनम वाली स्थिति का सामना करना पड़ेगा। मौजूदा दुश्वारियों से साफ है कि दक्षिण एशिया में ज्वालामुखी फटेगा ही और यदि चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों से बाज नहीं आता तो उसका लावा चीन को भी खूब परेशान करेगा।

Friday, April 26, 2013

7, रेसकोर्स रोड के मुश्किल रास्ते पर मोदी

भारतीय जनता पार्टी इन दिनों अपने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के लिए जमकर सिर खपा रही है। हालांकि ऊपरी तौर से वह इस मुद्दे को ही गैरजरूरी कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन अंदरखाने उसके नेतृत्व पर दबाव है कि वह पिछली बार जिस तरह लालकृष्ण आडवाणी को पीएम-इन-वेटिंग के रूप में प्रचारित किया गया था, इस बार भी किसी नेता पर यूं ही दांव लगाया जाए। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम सबसे आगे है। गुजरात में सुशासन और विकास का रास्ता दिखाने वाले नरेंद्र मोदी के कदम दिल्ली की गद्दी की तरफ हैं। उनकी दावेदारी को भले ही उनके छह करोड़ गुजराती एक सुर से समर्थन कर रहे हों और देश के दूसरे हिस्सों से भी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की मांग उठ रही हो लेकिन खुद उनकी अपनी भारतीय जनता पार्टी के भीतर बड़े नेताओं की अंदरूनी कलह और वोट बैंक की सियासी मजबूरी मोदी की राह में रोड़ा अटका रही है। मोदी के लिए आसान नहीं है प्रधानमंत्री निवास यानि 7, रेसकोर्स रोड की रेस जीतना। अपने ही हैं दुश्मन नरेंद्र मोदी जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं में भले ही लोकप्रिय हों और प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हों, लेकिन सियासी समीकरण उनके प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में नहीं। वरिष्ठ नेताओं में मोदी कतई लोकप्रिय नहीं। दिल्ली के अशोक रोड स्थित पार्टी मुख्यालय में मोदी के दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा हैं। पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा मोदी की राह में सबसे बडा रोड़ा है। इसके अलावा सुषमा स्वराज और अरुण जेटली से लेकर अनंत कुमार, राजनाथ सिंह और वैंकैंया नायडू तक सभी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के हिसाब से बिसात भी बिछा रहे हैं। राष्ट्रीय परिषद की बैठक में जहां मोदी की वाहवाही हो रही थी, वहीं आडवाणी ने मोदी के साथ सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान की तारीफ कर परोक्ष रूप से जता दिया कि अकेले मोदी में नहीं, इन दोनों में भी प्रधानमंत्री बनने की पूरी क्षमता है यानि पार्टी के पास विकल्प और भी हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मोदी की ताजपोशी चाहता है हालांकि जानता वो भी है कि मोदी के अन्य दलों से ज्यादा दुश्मन भाजपा में हैं। उन्हें अगर भावी प्रधानमंत्री के रूप में घोषित कर दिया जाता है तो पार्टी के दूसरे शीर्ष नेता या तो निष्क्रिय हो जाएंगे या मोदी को हराने में जुट जाएंगे। ऐसे में आरएसएस भी यह जोखिम नहीं लेना चाहता। आरएसएस को दूसरा डर मोदी की निरंकुश कार्यशैली से भी है। गुजरात में जिस तरह से मोदी ने संघ और पार्टी संगठन को दरकिनार किया, उससे संघ को डर है कि मोदी को खुला हाथ देने से वे उसके काबू में नहीं रहेंगे। मुस्लिम मतदाताओं का डर गुजरात से खबरें आई हों कि मुसलमानों में मोदी की स्वीकार्यता बढ़ी है किंतु औसत मुसलमान आज भी उनसे डरता है और पसंद नहीं करता। मुसलिम वोट बैंक के खोने के डर से कई क्षेत्रीय दल भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल होने से कतरा रहे हैं और कुनबा बढ़ने की बजाए सिकुड रहा है। चंद्रबाबू नायडू की तेलगूदेशम हो, प्रफुल्ल महंत की असम गण परिषद हो या फिर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, मोदी को फूंटी आंख नहीं देखने वाला मुसलमान इनका एक बड़ा वोट बैंक हैं। देश में मुसलमानों की संख्या करीब 15 फीसदी है और कई जगह यह सियासी तस्वीर बदलने की ताकत रखते हैं। मुसलमानों के मतदान के रुझान और राजनीतिक व्यवहार पर नजर डालें तो पता चलता है कि न केवल इनका मतदान का प्रतिशत कहीं ज्यादा होता है बल्कि ये किसी पार्टी को एक मुश्त वोट देते हैं यानि इनके वोट बंटने या बिखरने की संभावना कम होती है। मुसलमानों के मतदान के इसी व्यवहार के चलते 2014 में सियासी समीकरण भाजपा के खिलाफ जा सकता है। आल इंडिया काउंसिल फॉर मुसलिम इकॉनामिक अपलिफ्टमेंट के आंकड़ों के मुताबिक, देश में करीब 60 ऐसे जिले हैं जहां मुसलिम मतदाताओं की संख्या 20 फीसदी से ज्यादा है और 20 जिलों में 40 फीसदी से ज्यादा मुसलिम आबादी है। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में करीब 19 फीसदी तो बिहार में मुसलमानों की संख्या करीब 17 फीसदी है। यदि बात मुसलिम बहुल राज्यों की बात करें तो पश्चिम बंगाल, केरल, असोम, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और कश्मीर में करीब 200 लोकसभा सीटें हैं। जाहिर है किसी पार्टी के लिए भी मुसलमानों के समर्थन के बगैर केंद्र में सरकार बनाना मुश्किल है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि नरेंद्र मोदी के नाम पर हिंदू-मुसलमान मतदाताओं का ध्रुवीकरण होना तय है। ऐसे में कांग्रेस जैसे धर्मनिरपेक्ष दलों को फायदा हो सकता है। गुजरात में अलग समीकरण हकीकत यह भी है कि इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने मोदी को समर्थन दिया है। 2012 के विधानसभा चुनावों में गुजरात की ऐसी 66 सीटें जहां मुसलिम आबादी 10 फीसदी से ज्यादा थी, उनमें से 40 भाजपा को मिली। इसी तरह जहां मुसलिम आबादी 15 फीसदी थी, वहां 34 सीटों में से 21 पर भाजपा ने जीत दर्ज की। इसके उन नौ सीटों पर भी भाजपा ने जीत हासिल की जहां मुसलमानों की आबादी 20 से 50 फीसदी तक थी लेकिन गुजरात जैसा समर्थन मोदी के पूरे देश में मिले, इसमें संशय है। मोदी के विरोधी तर्क देते हैं कि गुजरात में कांग्रेस बेहद कमजोर है और मुसलमानों के पास कोई विकल्प नहीं था लेकिन 2014 में ऐसा नहीं होगा। लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रीय परिषद के अपने समापन भाषण में अल्पसंख्यकों को भाजपा से जोडने की नसीहत देकर पार्टी को सियासी आईना भी दिखाया। उन्होंने एनडीए का कुनबा बढ़ाने, अल्पसंख्यकों के साथ पार्टी का समीकरण ठीक करने और उनके प्रति वचनबद्धता की बात कर भावनाओं के आगे सियासी लक्ष्मण रेखा खींच दी। इसका साफ संदेश था कि भाजपा के विकास और सुशासन के एजेंडे से सहमत होते हुए भी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जिन कारणों से भाजपा से दूरी रखते हैं, उन्हें दूर करना होगा। जाहिर है निशाना मोदी पर था। गठबंधन के विरोधाभास गठबंधन के सियासी समीकरण भी मोदी के खिलाफ जाते हैं। मोदी को लेकर क्षेत्रीय दल भी ऊहापोह की स्थिति मे हैं, खासकर वे दल जहां मुसलिम आबादी ज्यादा है। जनता दल (यू) का भाजपा से ठकराव की वजह भीअल्पसंख्यक वोट बैंक है। चुनाव के बाद अगर सीटें कम पड़ती हैं तो मोदी के नाम पर दूसरे क्षेत्रीय दलों से समर्थन लेना भी आसान नहीं होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी का विरोध भी उनके पीएम बनने के आड़े आ सकता है। अमेरिका मोदी का विरोधी है और एनडीए को पूर्ण बहुमत न मिलने पर वह क्षेत्रीय दलों को मोदी को समर्थन न देने की लॉबिंग कर सकता है। पार्टी के नेता यह भी तर्क देते हैं कि मोदी पर सांप्रदायिकता का जो ठप्पा लगा है उसकी वजह से उनका प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं है। मोदी के साथ वैसा ही हो सकता है जैसा की नब्बे के दशक में आडवाणी के साथ हुआ था। मोदी की तरह ही तब आडवाणी की भी कट्टर हिंदूवादी छवि थी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आडवाणी के प्रयास से ही पार्टी सरकार बनाने के मुहाने तक पहुंची लेकिन बात जब आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की चली तो समर्थक दलों ने सांप्रदायिक छवि के कारण उनका विरोध किया और आडवाणी की बजाए सेकुलर छवि वाले अटल बिहारी वाजपेयी को समर्थन दिया। तभी आडवाणी को समझ में आया कि उन्हें अगर प्रधानमंत्री बनना है तो अपनी मुसलमान विरोधी छवि को बदलना कर सेकुलर बनाना होगा। पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाना और कसीदे पढ़ना छवि सुधारने का ही कसरत थी। मोदी के विरोधी यह तर्क देते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री वही बन सकता है जिसकी छवि सेकुलर नेता की हो, जैसे आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, वैसे मोदी भी नहीं बन पाएंगे। मोदी उसी स्थिति में प्रधानमंत्री बन सकते हैं जब उनके नाम पर भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाए, जैसा की फिलहाल लगता नहीं है।

Wednesday, March 13, 2013

सीबीआई का यह रुख !

केंद्रीय जांच ब्यूरो यानि सीबीआई पहली बार खुद पर सत्ता के साथ गलबहियां करने के आरोपों से पिंड छुटाती नजर आई है। कोयला ब्लॉकं आवंटन में कथित घोटाले (कोलगेट) की जांच में हाथ लगी जानकारियों को लेकर वो और केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में आपस में उलझ गर्इं। उसने यूपीए-1 के कार्यकाल में कोयला ब्लॉकों के आवंटन में हुई धांधलियों की ओर ध्यान दिलाया, वहीं सरकार तल्ख लहजे में इनसे इंकार कर रही है। इसकी तमाम वजह हो सकती हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण बिहार कैडर के आईपीएस रंजीत कुमार सिन्हा का निदेशक होना है। उनका कार्यकाल 2014 के नवम्बर माह तक है और तब संभव है कि केंद्र में यूपीए सरकार न रहे। ... और एजेंसी के कर्ता-धर्ता भावी सत्ता के अनुकूल बनने की तैयारियां कर रहे हों। केंद्रीय जांच एजेंसी का यह रुख आश्चर्यजनक ही है क्योंकि अभी तक माना जाता रहा है कि उसके कार्य में सरकार की स्पष्ट रूप से दखलंदाजी है। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव तो खुलकर आरोप लगाते रहे हैं कि सरकार इस एजेंसी का राजनीतिक रूप से प्रयोग करती है। सीबीआई के पूर्व निदेशक अश्वनी कुमार को हाल ही में जब नगालैण्ड का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया तो भाजपा ने यह कहकर हो-हल्ला किया कि सरकार ने अश्वनी को किसी कार्य के लिए पुरस्कृत किया है। उसके नेता नरेंद्र मोदी सीबीआई को कांग्रेस बचाओ इंस्टीट्यूट कहकर संबोधित करते रहे हैं। विशुद्ध तकनीकी तौर पर देखें तो प्रश्न निजी कम्पनियों को खदान आवंटित करने या न करने का नहीं है। लेकिन समस्या यह है कि सरकार ने अपनी कम्पनियों की क्षमता को नाकाफी मानते हुए इस काम के लिए निजी कम्पनियों के लिए भी दरवाजा चौड़ा किया और आरोपों की पटकथा यहीं लिख गई। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आवंटन के दौरान तत्कालीन सरकार ने अपनी बनाई नीति यानि नीलामी की प्रक्रिया को लागू क्यों नहीं किया? कुछ कम्पनियों को रातों-रात खदान आवंटित कैसे हो गए? इसके अलावा कई कम्पनियां ऐसी हैं जहां मालिकानों के ओहदे पर केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय के रिश्तेदार और श्रीप्रकाश जायसवाल के नजदीकी लोग काबिज हैं। कुछ कम्पनियां मीडिया घरानों की हैं। सवाल है कि इन कम्पनियों को किस दर में खदान आवंटित हुर्इं? सरकार के पास जमा करने के लिए राशि कम्पनियों ने कहां से जुटाई? और यदि कर्ज लिये तो कहां से? अहम सवाल यह भी है कि जब कम्पनियों ने कोयला खदान खरीदीं तो कोयला निकाला क्यों नहीं और अगर, कोयला नहीं निकाला तो घोटाला कैसे हो गया? अंतर-मंत्रालयी समूह ने खनन का काम शुरू नहीं करने वाली कंपनियों को नोटिस जारी क्यों किया? क्यों रिलायंस, टाटा और आर्सेलर मित्तल जैसी बड़ी कम्पनियां काम शुरू नहीं कर पार्इं? सीबीआई की जांच का रुख यदि इसी तरह ईमानदार है तो इन सवालों के जवाब भी मिलेंगे। लेकिन एजेंसी के यह तेवर सरकार के लिए समस्या तो बनेंगे ही, वह भी तब जबकि अगले साल लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं। इसके साथ ही भारतीय पुलिस सेवा के वर्ष 1974 बैच के बिहार कैडर के अधिकारी रंजीत सिन्हा बिहार से पहले आईपीएस हैं जिन्हें सीबीआई का निदेशक बनाया गया है। सिन्हा वर्ष 1991 से लेकर वर्ष 2001 तक केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर रहे हैं जबकि वर्ष 2001 में वापस बिहार लौटने के बाद वे वर्ष 2004 में केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर चले गए थे। वो सीबीआई निदेशक बनने से पहले आईटीबीपी के महानिदेशक के पद पर काम कर रहे थे। उनकी सेवानिवृत्ति अगले वर्ष 31 मार्च को थी लेकिन सीबीआई के निदेशक के पद पर तैनात होने के बाद उनके पदभार ग्रहण करने की तिथि से उनका कार्यकाल दो वर्षों का हो गया है यानि उनकी सेवा अवधि वर्ष 2014 के नवम्बर तक विस्तारित हो गई है। सिन्हा राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाले अधिकारी माने जाते रहे हैं और कई बार उन्होंने राजनीतिक प्रतिबद्धता जाहिर भी की है। हो सकता है कि एजेंसी के तेवर उनके भावी करियर या संभावित सत्ता परिवर्तन के क्रम में हों।

Monday, March 4, 2013

राजा भैया का इस्तीफा और सपा...

प्रतापगढ़ में बवाल मचा है और इसकी सियासी गर्माहट में कैबिनेट मंत्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया झुलस गए हैं। मामला सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की छवि को तार-तार न कर दे, इसके लिए सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के सीधे हस्तक्षेप मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जिस तरह की सक्रियता दिखाई है, वह काबिले तारीफ है। मामला ज्यादा दिन तक खिंचता तो मुख्यमंत्री के लिए मुश्किलें बढ़तीं और आंच लोकसभा के अगले साल प्रस्तावित चुनावों तक पहुंच सकती थी। राजा भैया का इस्तीफा लेकर मुख्यमंत्री ने कड़ा प्रशासक होने का सबूत देने की कोशिश की है। हालांकि अभी कई सवाल सामने हैं और तमाम अन्य दागदार नाम पार्टी की छवि पर प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। अमरमणि त्रिपाठी, राजा भैया, मुख्तार अंसारी जैसे तमाम दागदार चेहरे प्रदेश की सियासत और अपराध के घालमेल के सटीक उदाहरण हैं। गौर कीजिए, नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि इस समय राजा भैया समेत 25 मंत्री ऐसे हैं, जिन्होंने चुनाव आयोग को दिए शपथ पत्र में अपने खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज होने का ब्योरा दिया है। फिर सपा की ही बात क्यों करें, प्रमुख विपक्षी दल भाजपा, बसपा और कांग्रेस ने भी समय-समय पर इन्हें अपने लाभ के लिए प्रयोग किया है और सिरदर्द बनने पर हाथ झाड़ने को मजबूर भी हुए हैं। बहरहाल, राजा भैया का बड़ा आपराधिक रिकॉर्ड है। वर्ष 2010 के पंचायत चुनाव के दौरान विपक्षी प्रत्याशी के अपहरण के आरोप में वो लम्बे समय तक जेल में रहे। तत्कालीन सरकार ने उन पर आतंकवाद रोधी कानूून पोटा लगाया। पिता और भाई को भी जेल हुई। खाद्यमंत्री बनने के बाद उनके पूर्व जनसंपर्क अधिकारी ने अनाज घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाया। इस विधानसभा चुनाव के दौरान जमा किए हलफनामे के मुताबिक उनके खिलाफ लंबित आठ मुकदमों में हत्या की कोशिश, अपहरण और डकैती के मामले भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश गैंगस्टर एक्ट के तहत भी मामला चल रहा है। लोकतंत्र में जहां राजा-महाराजा नहीं हुआ करते, वहां प्रतापगढ़ के कुंडा क्षेत्र में उनका पूरा जलवा किसी राजा की तरह है। मायावती सरकार में छापे के दौरान उनके और पिता उदय प्रताप सिंह की क्रूरता सामने आई थी। तब पता चला था कि उनके तालाब में लोग डाल दिए जाते थे ताकि मगरमच्छ उनका अंत कर दें। फिलहाल, जिस मामले में राजा भैया का इस्तीफा लिया गया है, वह राजा भैया के इसी राज का वीभत्स नमूना है। जिस गांव में प्रादेशिक पुलिस सेवा के अधिकारी जियाउल हक भीड़ को नियंत्रित करने पहुंचे थे, वह ग्राम प्रधान की हत्या पर जुटी थी। हक को वहां लाठी-डण्डों और लोहे की छड़ों से पीट-पीटकर मार डाला गया। पहले लगा था कि यह जनता के क्रोध की प्रतिक्रिया थी लेकिन बाद में भीड़ में राजा भैया के नजदीकी लोगों की मौजूदगी ने मामले को पूरी तरह से बदल दिया। मृत अफसर की पत्नी परवीन आजाद ने अपनी रिपोर्ट में राजा भैया को भी नामजद किया। उन्हें कुंडा में तैनाती से ही अंजाम भुगतने की धमकी दी जा रही थी। निश्चित तौर पर एक सीओ रैंक के अधिकारी की हत्या ने पुलिस के इकबाल को चुनौती दी। अपर पुलिस महानिदेशक स्तर के अफसर के सामने परवीन का बयान तूफान लाने वाला साबित हुआ। ऊपर से, एडीजी ने परवीन को रिपोर्ट में पूरा वाकया लिखने के लिए कहकर सरकार के समक्ष एक नई समस्या की नींव डाल दी। एडीजी के यह तेवर उस व्यक्ति के खिलाफ थे, जो प्रदेश की सरकार में मंत्री था और तमाम विरोधों के बावजूद उसे सरकार में शुमार किया गया था। साफ था कि प्रदेश पुलिस जांच स्तर पर ही नहीं बल्कि प्रशासनिक स्तर पर भी राजा भैया के खिलाफ खड़ी दिखाई देगी और ऐसा होने पर उन्हें ज्यादा देर तक मंत्री बनाकर रखना सपा के लिए मुश्किल साबित हो जाता इसीलिये आनन-फानन में कैबिनेट से उनकी विदाई कर दी गई। समस्या यह भी थी कि अखिलेश सरकार राज्य का माहौल सुधारने का दावा करने लगी है और एक हत्या में मंत्री की भूमिका पर उसके लिए जवाब देना भी मुश्किल हो जाता। लोकसभा चुनाव जब सिर पर खड़े हों और बहुमत की सरकार के दम पर सपा केंद्रीय सत्ता में प्रभावशाली रोल के लिए तैयार हो रही हो, यह मामला गले में अटकना तय हो रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में सरकार के लिए राजा भैया पर कानूनी शिकंजा कसना जरूरी होता नजर आ रहा है। खुद को प्रदेश की क्षत्रिय राजनीति का प्रमुख नेता मानते रहे राजा भैया पर कानूनी गिरफ्त से मुलायम राजनीतिक जवाब देने की कोशिश करेंगे। सपा को यह भय भी साल रहा था कि अगर कानूनी फंदा न कसे जाने पर प्रशासन अखिलेश सरकार से असहयोग पर उतारू हो सकता है। पीपीएस एसोसिएशन ने घटना की न्यायिक जांच की मांग करके ऐसे संकेत दे दिए थे। मृत सीओ की पत्नी ने खुदकुशी की धमकी से एक और समस्या की आहट दिला दी थी। मामला राजनीतिक रंग पकड़ने भी लगा था। हमलावरों में बहुजन समाज पार्टी सबसे आगे थी जिसके शासन में प्रतापगढ़ और आसपास के क्षेत्रों में जबर्दस्त प्रभाव होने के बावजूद राजा भैया को सींखचों के पीछे धकेल दिया था। राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले मुलायम सिंह विपक्षियों की सियासी चालों को पहले ही भांप गए और तत्काल हस्तक्षेप का फैसला किया। मौजूदा सरकार की बात करें, तो मुलायम ने तमाम मौकों पर सरकार को फजीहत से बचाया है। राजा भैया के मामले में भी वह इसमें कामयाब रहे हैं।

उद्धव का एक दांव

महाराष्ट्र में सियासत चुनावी मोड़ का रास्ता पकड़ रही है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना सुप्रीमो राज ठाकरे के काफिले पर केंद्रीय मंत्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कार्यकतार्ओं के हमले की प्रतिक्रिया में जिस तरह शिवसेना ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की, उससे हिंदूवादी दोनों दलों के नजदीक आने की संभावनाएं फिर बढ़ी हैं। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने न केवल घटना की निंदा में तत्परता दिखाई बल्कि समय गंवाए बगैर जिस तरह वह पार्टी मुख्यालय पहुंच गए और अपने कार्यकर्ताओं की बैठक ली। नजदीकियां बढ़ने से कांग्रेस खेमे में बेचैनी ज्यादा है। उसे उम्मीद थी कि सियासत की हवाएं उसके पक्ष में हो रही हैं और चुनावों के नतीजे केंद्रीय सत्ता में पवार पर उसकी अनिवार्यता समाप्त कर देंगे। हालांकि इसे उद्धव की राजनीतिक चाल के रूप में भी देखा जा रहा है जो राज की बार-बार जरूरत बताने के विरुद्ध है। बाल ठाकरे के निधन के बाद उद्धव और राज ठाकरे में दोस्ती की कई बार खबरें आम हुई हैं। उद्धव ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं। राज ठाकरे के संबंधों को लेकर जब वह पहली बार सार्वजनिक रूप से बोले तो राज ठाकरे के लिए राजनीतिक दरवाजा खोलने का संकेत छिपा था। लेकिन यह बयान यूं ही अचानक नहीं आ गया। बड़े ठाकरे के निधन से पहले और बाद में राज ठाकरे की उनके आवास मातोश्री में प्रवेश को भविष्य की राजनीति के तहत मशक्कत के रूप में प्रचारित किया गया था। खबर खूब उड़ी थी कि शिवसेना के कुछ लोग दोनों भाइयों को करीब नहीं आने देना चाहते। उद्धव के निजी सचिव नीलेश कुलकर्णी का नाम तो खुलकर प्रचारित हुआ था। उद्धव ने अपने साक्षात्कार में इसी का जवाब यह कहकर दिया कि शिवसेना में कोई उनके निर्णयों को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर उन करीबियों को संकेत था जो बाल ठाकरे के निधन के बाद प्रभावशाली ध्रुव बनकर उभरे हैं और कार्यकर्ताओं की भीड़ उनके पीछे जुटने से उद्धव को मुश्किलें महसूस हो रही हैं। हालांकि मूल सवाल यही है कि क्या वास्तव में राज और उद्धव राजनीतिक गठजोड़ की संभावना तलाशने में जुटे हैं। राजनीति का कुछ भी निश्चित या अनिश्चित न होने का स्वभाव है और ऐसे में कोई संभावना से इंकार नहीं कर सकता कि राज ठाकरे और उद्धव एक राजनीतिक गठजोड़ कायम कर सकते हैं। वैसे भी, राज न तो खुद ही शिवसेना में शामिल होने का इरादा रखते हैं और न ही शिवसेना के भीतर उन्हें शामिल कराने की कोई जल्दबाजी मची है। राज का अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बन चुका है और उद्धव के लिए उनके पिता की विरासत को संभालने की जिम्मेदारी मिली हुई है। ऐसी स्थिति में दोनों ही अपने रास्ते आगे बढ़ने में विश्वास करते हैं। हां, इस बात की संभावना जरूर विकसित की जा रही है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को उस राजनीतिक युति में शामिल कर लिया जाए जिसमें अभी भाजपा, शिवसेना और आरपीआई एक साथ हैं। पहल भाजपा की ओर से हुई है लेकिन उद्धव भी साथ हैं। भाजपा की रणनीति में दम है, दोनों दलों के भी गठबंधन में शामिल होने से उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सीटों में बड़ी वृद्धि होना लगभग तय ही है। राज ठाकरे ने अपना वोट बैंक बना लिया है, इसके साथ ही उन कार्यकर्ताओं की भीड़ उनके साथ है जो पुराने शिवसैनिक हैं और उद्धव के बजाए उनके समर्थक थे। अकेली मुंबई की ही बात करें तो वहां भी कई इलाकों में शिवसेना के बजाए राज की पार्टी का दबदबा बन चुका है। कमोवेश, यही स्थिति महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में है। राजनाथ सिंह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद प्रभावशाली हुई प्रदेश इकाई की एक लॉबी भी इस प्रयास में जुटी है। दरअसल, राजनाथ समेत इस लॉबी के नेताओं को बाल ठाकरे के बाद राज ठाकरे में ही वह करिश्मा दिख रहा है जो उनके लिए महाराष्ट्र में वोटों का थोक इंतजाम कर सकता है। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं। महाराष्ट्र की राजनीति के जानकारों को लगता है कि उद्धव ठाकरे का यह बयान कि ह्यताली एक हाथ से नहीं बजती। बजती है क्या? एकता का सवाल दोनों से एक साथ पूछा जाना चाहिये क्योंकि यह जवाब तो दोनों को ही देना होगाह्ण, सोच-समझकर दिया गया है। मकसद इतना है कि संभावनाओं पर उठने वाले हर प्रश्न को शिवसेना के पाले से निकालकर मनसे की तरफ फेंक दिया जाए। शिवसेना के सियासी सिस्टम को करीब से देखने से पता चलता है कि पार्टी के भीतर राज ठाकरे की अहमियत और जरूरत उतनी है नहीं, जितनी बाहर प्रचारित की जाती है परंतु बार-बार उठने वाले सवालों से सीधे तौर पर शिवेसना को नुकसान होता है और राज को लाभ। लोग समझने लगते हैं कि उम्दा सियासी कौशल की वजह से उनकी इतनी पूछ है। गेंद राज ठाकरे की तरफ उछालकर शिवसेना इस तर्क के बोझ से बरी हो जाती है उसकी ओर से कोई पहल नहीं की गई। इसके पीछे उसके सियासी फायदा भी है। वह न केवल संभावित क्षति से बचती है बल्कि कार्यकर्ताओं की मनसे की ओर भगदड़ की आशंकाओं को विराम लग जाता है। साथ ही, उद्धव उन सहयोगियों को भी रोक पाने में सक्षम हो जाते हैं जो राज में शिवसेना का विकल्प ढूंढ रहे हैं। इसी क्रम में पार्टी के नेता यह कहने में पूरा जोर लगा रहे हैं कि शिवसेना राजनीति में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की पार्टी बन चुकी है और भाजपा मनसे के वर्तमान स्वरूप से इत्तेफाक नहीं रखती। जाहिर है, आपत्ति मराठावाद यानि एक प्रकार के क्षेत्रवाद से हैै। यह क्षेत्रवाद यदि भाजपा को स्वीकार हो भी जाता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर धक्का लगेगा। बावजूद इसके, अगर भाजपा मनसे को मिलाने के प्रयास जारी रखती है तो शिवसेना के पास यह कहने का मौका होगा कि उसने तो कभी इस पर आपत्ति ही नहीं की। मराठी माणुस की राजनीति को बांटने का दोष राज के सिर मढ़कर उद्धव ने ऊपरी तौर पर भले ही राज ठाकरे से मिलन की संभावनाओं को जन्म दे दिया हो लेकिन ऐसा करके वह राजनीति में नौसिखिया होने का आरोप झूठा सिद्ध करने में सफल सिद्ध हो रहे हैं। शिवसेना विरोधी दल यह कहकर उनकी बात को बेशक, गंभीरता से नहीं लें कि यह सूझबूझ से भरी चाल है जिसमें राज के साथ-साथ सहयोगी भारतीय जनता पार्टी को भी उलझाने का प्रयास किया गया है। ऐसी स्थिति में उद्धव जो चाहते हैं, वह कर पाने में सफल रहे हैं।

Wednesday, February 20, 2013

कुम्हलाता बचपन

आगरा में थाना एत्माद्दौला क्षेत्र में सातवीं कक्षा की छात्रा सुरभि (बदला हुआ नाम) के प्राइवेट ट्यूयर ने घर पर ही यौन उत्पीड़न किया। सिलसिला दो साल तक चलता रहा। वह नौवीं कक्षा में आई, ट्यूटर बदल गया। जो दूसरा ट्यूटर लगाया गया उसने भी वही बदतमीजी दोहराई। दूसरे ट्यूटर का शब्दजाल इतना मोहित कर देने वाला था कि निधि को न चाहते हुए भी उससे प्यार हो गया। यह क्रम भी करीब दो साल चला। दूसरा ट्यूटर शादीशुदा और तीन बच्चों का बाप था। वो नाबालिग ममता को घर से भगा ले गया। ममता अपने इस 15 साल बड़े पति के साथ रह रही है जबकि उसने पहली पत्नी और तीन बच्चों को मामूली गुजारा भत्ता देकर उनके हाल पर छोड़ दिया है। बाल यौन उत्पीड़न की शिकायत समय से न होने से एक परिवार और एक बच्ची का जीवन अंधकारमय हो गया है। बचपन कुम्हला रहा है, उसके अपने भी उसे कुचलने में पीछे नहीं। मशहूर सितार वादक स्वर्गीय पंडित रविशंकर की बेटी अनुष्का शंकर ने खुलासा किया कि जब वो छोटी थीं तो उनका यौन शोषण हुआ था। बात अकेली अनुष्का की नहीं है, हालात बहुत खराब हैं और पूरी दुनिया में ऐसे मामले सामने आए हैं। हॉलीवुड स्टार सोफिया हयात ने भी कहा है कि 10 साल की उम्र में उनका यौन शोषण किया गया था। बच्चों का यौन शोषण एक डरावना सच है और अधिकांश लोग इसके विस्तार से अनजान हैं। शोध बताते हैं कि 53 प्रतिशत या प्रत्येक दो में से एक बच्चा बाल यौन शोषण का शिकार है। सामान्य धारणा के विपरीत, घर बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित जगह नहीं हैं, क्योंकि अधिकांश दुर्व्यवहारी परिवार के विश्वासी होते हैं। तो फिर हल क्या है, दुर्व्यवहार को मना कर सकने के साहस के लिए बच्चों को प्रशिक्षित तथा प्रोत्साहित करने के साथ साथ अभिभावकों को भी उनके संकेतों के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त बच्चों की सुरक्षा तथा अपराधियों को सख्ती के साथ दण्डित करने के लिए बाल यौन शोषण के खिलाफ विशेष एवं ठोस कानून की आवश्यकता है। सर्वाधिक बाल यौन शोषण का देश मौजूदा हालात ने भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा यौन शोषित बच्चों का देश बना दिया है। बाल यौन शोषण के आंकड़ों का चित्र बेहद वीभत्स कर देने वाला है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 53 फीसदी से ज्यादा बच्चों को अपने वयस्क होने तक बाल यौन शोषण के हालातों का सामना करना पड़ता है। केंद्रीय महिला एंव बाल विकास मंत्रालय’ के लिए हुए एक सर्वेक्षण से सामने आए हैं। पता चला कि विभिन्न प्रकार के शोषण में पांच से 12 वर्ष तक की उम्र के छोटे बच्चे शोषण और दुर्व्यवहार के सबसे अधिक शिकार होते हैं तथा इन पर खतरा भी सबसे अधिक होता है। इन शोषणों में शारीरिक, यौन और भावनात्मक शोषण शामिल होता है। --- हरेक तीन में से दो बच्चे शारीरिक शोषण के शिकार बने। --- शारीरिक रूप से शोषित 69 प्रतिशत बच्चों में 54.68 प्रतिशत लड़के थे। --- 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे किसी न किसी प्रकार के शारीरिक शोषण के शिकार थे। --- पारिवारिक स्थिति में शारीरिक रूप से शोषित बच्चों में 88.6 प्रतिशत का शारीरिक शोषण माता-पिता ने किया। --- आंध्र प्रदेश, असम, बिहार और दिल्ली से अन्य राज्यों की तुलना में सभी प्रकार के शोषणों के अधिक मामले सामने आये। --- 50.2 प्रतिशत बच्चे सप्ताह के सात दिन काम करते हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार परामर्श समूह न्यूयॉर्क के ह्यूमन राइट्स वॉच ने ताजा रिपोर्ट में कहा, बेशक 16 दिसम्बर को दिल्ली में गैंगरेप की घटना और तत्पश्चात जनता के आक्रोश के चलते भारत में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को लेकर काफी जागरूकता आई, लेकिन, ‘बाल-उत्पीड़न की समस्या के बारे में जानकारी काफी कम है।’ रिपोर्ट में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े उजागर किए गए हैं। रिपोर्ट में भारत के 13 राज्यों के 12,500 बच्चों पर किए सरकारी सर्वेक्षण का हवाला दिया गया। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि जवाब देने वाले आधे बच्चों ने कहा कि उन्होंने किसी ना किसी प्रकार का यौन उत्पीड़न अनुभव किया है। समस्या के विस्तार के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन अगर ये आंकड़े कोई गाइड हैं, तो कदाचित इस समस्या का स्तर काफी व्यापक है। भारत में करीब चार अरब तीस करोड़ बच्चे हैं, जो उसकी कुल आबादी का एक-तिहाई हैं। विश्व की बाल आबादी का ये करीब पांचवा हिस्सा हैं। रिपोर्ट में इंगित किया गया है, भारत में हर जगह बच्चे यौन-उत्पीड़न के विभिन्न प्रकारों को सहते हैं-अपने घरों के भीतर, सड़कों पर, स्कूलों में, अनाथालयों में और संरक्षण गृहों में। रिपोर्ट बाल उत्पीड़न के शिकार बच्चों, उनके नातेदारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकारी अधिकारियों और अन्य हितधारकों के 100 से ज्यादा साक्षात्कारों पर आधारित है। क्या है बाल उत्पीड़न संयुक्त राष्ट्र बाल उत्पीड़न की जो परिभाषा दी है, उसके अनुसार, एक बच्चे और उम्रदराज़ अथवा ज्यादा समझदार बच्चे अथवा वयस्क के बीच संपर्क अथवा बातचीत (अजनबी, सहोदर अथवा अधिकार प्राप्त शख्स, जैसे अभिभावक अथवा देखभाल करने वाला), के दौरान जब बच्चे का इस्तेमाल एक उम्रदराज़ बच्चे अथवा वयस्क द्वारा यौन संतुष्टि के लिए वस्तु के तौर पर किया जाए। बच्चे से ये संपर्क अथवा बातचीत ज़ोर-जबर्दस्ती, छल-कपट, लोभ, धमकी अथवा दबाव में की जाए। वास्तव में, बाल-उत्पीड़न में बाल-यौन अंगों का दुरुपयोग, वयस्कों द्वारा बाल-यौन शोषण, अश्लील बाल चित्र या लेखन और बलात्कार शामिल होंगे। बाल यौन व्यापार के बने अड्डे दिलचस्प तथ्य ये है कि शोषण धार्मिक-पर्यटक स्थलों पर अधिक है। शोषण करने वाले विदेशी और घरेलू पर्यटकों के साथ-साथ स्थानीय निवासी होते हैं। ये शोषण लगभग छह साल की उम्र से शुरू हो जाता है और जब बालक नौ साल की उम्र के होते हैं तो उन्होंने पूरी तरह से इस काम में लगा दिया जाता है। ऐसे तत्थ तब और उजागर हो गए जब एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक को पुरी में बालकों के यौन शोषण के मामले में गिरफ्तार किया गया। आंकडे बताते हैं कि ऐसी घटनाएं कम संख्या में नहीं हैं। कई विदेशी पर्यटक किसी एक स्थान पर लंबे समय तक रहते हैं और वे बच्चों और उनके परिवारों से दोस्ती गांठ लेते हैं और उसके बाद उनका शोषण करते हैं। कभी-कभी परिजनों ने ही बालकों का शोषण किया होता है और बाद में वो उन्हें इसके लिए मजबूर कर देते हैं। कई शहरों में बाल सेक्स पर्यटन जोरों से चल रहा है। मामलों से स्पष्ट है कि विदेशी पर्यटकों ने नगद राशि या उपहारों का प्रस्ताव देकर बच्चों का यौन शोषण किया। जिस तेजी से विदेशों में गे-समुदाय की वृद्धि हुई है उससे भारत में आने वाले विदेशियों में 10 से 16 साल तक के लड़कों की मांग में बढ़ोतरी हुई है। गैरसरकारी संगठन आई आन क्राइम के मुताबिक, देश के विभिन्न थानों में हर महीने लगभग सात हजार के लगभग बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है। इनमें से हर साल करीब 23 हजार बच्चों का कोई अता-पता नहीं चल पाता जिन्हें अमूमन मृत ही समझा जाता है। भारत में सही तौर पर बाल यौन व्यापार में धकेले जा रहे बच्चों की कोई सही संख्या उपलब्ध नहीं है, जबकि भारत सबसे बड़ा केंद्र है बाल यौन व्यापार का। शोषण रोकने के उपाय बाल संरक्षण के लिए तमाम व्यवस्थाएं हैं, जैसा कि एक दशक पहले पारित हुआ एक जुविनाइल जस्टिस कानून। यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करता है। कानून के तहत बाल-कल्याण कमेटियों और जुविनाइल-न्यायिक बोर्ड का गठन किया गया, जो दुर्व्यवहार के जोखिम में रह रहे अथवा प्राधिकार के साथ समस्याग्रस्त बच्चों की देखभाल करता है। संसद ने मई 2012 को यौन-अपराध बाल संरक्षण अधिनियम पारित किया, जिसके तहत बाल-उत्पीड़न के सभी प्रकारों को पहली बार देश में विशिष्ट अपराध बनाया गया। ऊंचे परिवारों में मामले ज्यादा आम धारणा के विपरीत भारत में उच्च और मध्यम आय वर्ग के परिवारों में बच्चों का यौन शोषण निम्न वर्ग के मुकाबले कहीं अधिक है। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने वाली एक स्वंयसेवी संस्था ‘आलोचना’ की संयोजक भारती कोतवाल कहती हैं, उच्च और मध्यम आय वर्ग के परिवारों में बच्चों का यौन शोषण कहीं ज्यादा है, लेकिन लिंग भेद और सामाजिक दबाव के चलते यह मामले सामने नहीं आते। दक्षिण कोरिया सबसे सख्त बाल यौन शोषण रोकने की दिशा में सर्वाधिक सख्ती दक्षिण कोरिया ने दिखाई है। वह अब सीरियल बाल यौन शोषण के दोषी को सजा देने के लिए रसायनों का उपयोग करेगा। इस रसायन के इंजेक्शन से व्यक्ति का बंध्याकरण किया जाएगा। पहली सजा 45 वर्षीय दोषी व्यक्ति को मिली, उसे जुलाई में जेल से रिहा कर दिया जाएगा लेकिन प्रत्येक तीन साल तक उसे तीन माह पर इंजेक्शन दिया जाएगा। व्यक्ति 13 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों का यौन शोषण करने और उनका बलात्कार करने का दोषी पाया गया है। वर्ष 2010 में दक्षिण कोरिया ने रसायनों का उपयोग कर बंध्याकरण को कानूनी दर्जा दे दिया।

Monday, February 11, 2013

सियासत में जिंदा अफ़जल गुरु

संसद भवन पर हमले का मुख्य साजिशकर्ता अफजल गुरु अब अतीत की बात है लेकिन सियासत के गलियारों की चर्चाओं में वह जिंदा है। उस पर चर्चाएं थम नहीं रहीं। बार-बार यह कहकर खुद को देशवासी सिद्ध करने की होड़ के दिन शायद लद गए हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता, वह देश और समाज का दुश्मन होता है। अफजल को फांसी पर लटकाए जाने के बाद गोलबंदी का दौर तेजी पर है। यह साबित करने में कुछ प्रभावशाली नेता कसर बाकी नहीं छोड़ रहे कि केंद्र सरकार ने गलत फैसला किया। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि विरोधियों में एक आवाज एक सूबे के सीएम की भी है और भारत में आतंकवाद का पोषण करने वाले पाकिस्तान की वजह से यह सूबा अशांत है। हालांकि यह उनकी सियासी मजबूरी भी है। वहीं सत्तासीन पार्टी और मुख्य विपक्षी दल 'अफजल प्रलाप' में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रख रही। अलगाववादी कश्मीरी नेता यासीन मलिक के साथ भारत के मोस्ट वांटेड आतंकी सरगना हाफिज सईद की जुगलबंदी से केंद्र ने मामले में कूटनीतिक मात जरूर खाई है। पाकिस्तान ने फांसी पर टिप्पणी तो संयमित की लेकिन अंदरखाने यह साजिश रची है। अफजल गुरु को फांसी की सजा लंबे समय से राजनीतिक मुद्दा रही है। सबसे ज्यादा चर्चाएं जम्मू-कश्मीर में हुई हैं जहां आतंकवाद समूल नष्ट नहीं हुआ है और अलगाववादी ताकतें आए दिन कुछ न कुछ करतूतें कर दिया करती हैं। सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस के आला नेता फारुख अब्दुल्ला के केंद्र सरकार में मंत्री और सहयोगी दल होने की वजह से कांग्रेस दबाव में थी कि अफजल को फांसी पर फैसला टाला जाता रहे। भारतीय जनता पार्टी अक्सर तत्काल फांसी की मांग उठाकर सरकार का सिरदर्द बढ़ाती रहती थी। यही नहीं उसकी मंशा आगामी लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाने की भी थी। मुख्य विपक्षी दल में चूंकि उन नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहा है जिनकी छवि कट्टर हिंदूवादी की है इसलिये कांग्रेस महसूस करने लगी थी कि अफजल समेत आतंकियों को फांसी न देने का मुद्दा उसके गले की फांस बनने जा रहा है। इसके साथ ही, सरकार ने शायद ये सोचा हो कि पिछले एक साल से कश्मीर में स्थिति शांतिपूर्ण रही है और लोगों का प्रतिरोध कम हो गया है। विरोध की अगुवाई संभाल रहे जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला केंद्र सरकार को चुनौती देते हैं कि वह साबित करे कि अफजल को फांसी दिया जाना सियासी फैसला नहीं था। फांसी विरोधी कहते हैं कि अफजल के साथ न्याय नहीं हुआ और उसे फांसी पारिस्थितिजन्य प्रमाणों के आधार पर दी गई न कि सुबूतों की बिना पर। अफजल को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया, उन्हें उचित मौकों पर वकील नहीं दिया गया और पूरे मामले में कई बातें गुप्त रखी गर्इं। आरोप यह भी है कि उनके खिलाफ मिले दिल्ली पुलिस की आतंक-विरोधी शाखा स्पेशल सेल ने ढीले-ढाले सुबूत पेश किए। उमर का रवैया दरअसल, राजनीतिक समीकरणों की वजह से भी है। कश्मीर में एक दशक में हालात तेजी से सुधरे हैं। उग्रवाद कमजोर हुआ है और घाटी की राजनीति देश की मुख्यधारा में शामिल हुई है। पूरी दुनिया में यह संकेत गया है कि कश्मीर में मजबूत लोकतंत्र की वापसी हो चुकी है। ऐसे में अफजल की फांसी का पाकिस्तान परस्त आतंकवादी दुरुपयोग कर सकते हैं, जनता को भड़का सकते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पहले हुई, उनके हत्यारों का दोष पहले सिद्ध हुआ पर फांसी पर उनसे पहले अफजल गुरु को लटका दिया गया। इस तर्क की काट उमर के पास नहीं है और विपक्षी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा मुफ्ती हमलावर रहकर उनकी मुश्किलें बढ़ा रही हैं। ऐसे में उमर अब्दुल्ला की सबसे बड़ी चुनौती उग्रवादियों के मंसूबों पर रोकथाम लगाना है। कश्मीर में गुरु को प्रतीक के तौर पर पेश कर भारत विरोधी माहौल बनाने का षड्यंत्र हो सकता है। उमर इस हालात से निपटने के लिए अपनी दलीलें दे रहे हैं और खुद को यूपीए से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वह जताना चाहते हैं कि उन्हें लोगों की भावनाओं की समझ है। फांसी से कश्मीर के तमाम अन्य समीकरण भी गड़बड़ा गए हैं। भारत और कश्मीरी अलगाववादियों के बीच वार्ता की सम्भावनाओं पर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। पृथकतावादी नेता मीरवाइज उमर फारुक ने कहा भी है कि अफजल की फांसी के बाद नई दिल्ली के साथ पुन: वार्ता के आसार समाप्त हो गए हैं क्योंकि कश्मीरी नौजवानों के बीच भारत के खिलाफ नफरत बढ़ेगी। खून-खराबे के दूसरे दौर की शुरुआत भी हो सकती है। हालांकि नए राजनीतिक हालात में मीरवाइज की हुर्रियत कांफ्रेंस अप्रासंगिक हुई है और सामने आर्इं नई ताकतें अलग जुबान में बोलने लगी हैं। मजहबी चरमपंथी और भारत विरोधी गुट साथ-साथ आने की तैयारी करते नजर आ रहे हैं। केंद्र स्तर पर भी फांसी का मुद्दा राजनीतिक समीकरणों में बदलाव की वजह बनने जा रहे हैं। कांग्रेस को तात्कालिक लाभ 21 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में मिलने जा रहा है। अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं और सरकार पर कांग्रेस का दबाव है कि वह लोक हित के फैसले करे। जनलुभावन बजट प्रस्तुत करे और महंगाई कम करने के ठोस उपाय सामने लाए। अफजल की फांसी से उत्साहित कांग्रेस मौका न गंवाते हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपनी उपलब्धियों का बखान कर सकती है। जयपुर चिंतन बैठक में तय हुआ था कि विपक्ष जिन-जिन संभावित मुद्दों पर आने वाले चुनावों में कांग्रेस को घेर सकता है, उन मुद्दों का हल निकालकर विपक्ष को नए मुद्दे खोजने में ही मजबूर कर दिया जाए। भाजपा चूंकि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के हिंदू आतंकवाद के बयान पर संसद में हो-हल्ले की तैयारी में थी इसलिये हो सकता है कि अफजल की सजा पर अमल भी विपक्ष के तरकश के सभी तीरों को खत्म कर देने के प्रयास के तहत किया गया हो। भगवा आतंकवाद का मुद्दा छाया हुआ है, ऐसे में अफजल की फांसी पर अमल कर सभी तरह के आतंकवाद को समान रूप से देखने का दावा भी कांग्रेस अब कर सकती है। उग्रवाद पर ढीला रवैया अपनाने का जो आरोप उस पर लगता रहा है, वह भी इस फैसले से कमजोर पड़ा है। कांग्रेस कहने लगी है कि राष्ट्रपति की ओर से अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद फांसी संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए गए। दूसरी तरफ, भाजपा फांसी में लगी देरी को मुद्दा बना रही है। कांग्रेस फांसी का लाभ उठाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती, जबकि भाजपा की कोशिश श्रेय नकारने की है। यह बात तो लगभग तय ही है कि आने वाले समय में यह मुद्दा खासा गुल खिलाने जा रहा है।