Friday, April 26, 2013
7, रेसकोर्स रोड के मुश्किल रास्ते पर मोदी
भारतीय जनता पार्टी इन दिनों अपने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के लिए जमकर सिर खपा रही है। हालांकि ऊपरी तौर से वह इस मुद्दे को ही गैरजरूरी कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन अंदरखाने उसके नेतृत्व पर दबाव है कि वह पिछली बार जिस तरह लालकृष्ण आडवाणी को पीएम-इन-वेटिंग के रूप में प्रचारित किया गया था, इस बार भी किसी नेता पर यूं ही दांव लगाया जाए। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम सबसे आगे है। गुजरात में सुशासन और विकास का रास्ता दिखाने वाले नरेंद्र मोदी के कदम दिल्ली की गद्दी की तरफ हैं। उनकी दावेदारी को भले ही उनके छह करोड़ गुजराती एक सुर से समर्थन कर रहे हों और देश के दूसरे हिस्सों से भी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की मांग उठ रही हो लेकिन खुद उनकी अपनी भारतीय जनता पार्टी के भीतर बड़े नेताओं की अंदरूनी कलह और वोट बैंक की सियासी मजबूरी मोदी की राह में रोड़ा अटका रही है। मोदी के लिए आसान नहीं है प्रधानमंत्री निवास यानि 7, रेसकोर्स रोड की रेस जीतना।
अपने ही हैं दुश्मन
नरेंद्र मोदी जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं में भले ही लोकप्रिय हों और प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हों, लेकिन सियासी समीकरण उनके प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में नहीं। वरिष्ठ नेताओं में मोदी कतई लोकप्रिय नहीं। दिल्ली के अशोक रोड स्थित पार्टी मुख्यालय में मोदी के दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा हैं। पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा मोदी की राह में सबसे बडा रोड़ा है। इसके अलावा सुषमा स्वराज और अरुण जेटली से लेकर अनंत कुमार, राजनाथ सिंह और वैंकैंया नायडू तक सभी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के हिसाब से बिसात भी बिछा रहे हैं। राष्ट्रीय परिषद की बैठक में जहां मोदी की वाहवाही हो रही थी, वहीं आडवाणी ने मोदी के साथ सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान की तारीफ कर परोक्ष रूप से जता दिया कि अकेले मोदी में नहीं, इन दोनों में भी प्रधानमंत्री बनने की पूरी क्षमता है यानि पार्टी के पास विकल्प और भी हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मोदी की ताजपोशी चाहता है हालांकि जानता वो भी है कि मोदी के अन्य दलों से ज्यादा दुश्मन भाजपा में हैं। उन्हें अगर भावी प्रधानमंत्री के रूप में घोषित कर दिया जाता है तो पार्टी के दूसरे शीर्ष नेता या तो निष्क्रिय हो जाएंगे या मोदी को हराने में जुट जाएंगे। ऐसे में आरएसएस भी यह जोखिम नहीं लेना चाहता। आरएसएस को दूसरा डर मोदी की निरंकुश कार्यशैली से भी है। गुजरात में जिस तरह से मोदी ने संघ और पार्टी संगठन को दरकिनार किया, उससे संघ को डर है कि मोदी को खुला हाथ देने से वे उसके काबू में नहीं रहेंगे।
मुस्लिम मतदाताओं का डर
गुजरात से खबरें आई हों कि मुसलमानों में मोदी की स्वीकार्यता बढ़ी है किंतु औसत मुसलमान आज भी उनसे डरता है और पसंद नहीं करता। मुसलिम वोट बैंक के खोने के डर से कई क्षेत्रीय दल भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल होने से कतरा रहे हैं और कुनबा बढ़ने की बजाए सिकुड रहा है। चंद्रबाबू नायडू की तेलगूदेशम हो, प्रफुल्ल महंत की असम गण परिषद हो या फिर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, मोदी को फूंटी आंख नहीं देखने वाला मुसलमान इनका एक बड़ा वोट बैंक हैं। देश में मुसलमानों की संख्या करीब 15 फीसदी है और कई जगह यह सियासी तस्वीर बदलने की ताकत रखते हैं। मुसलमानों के मतदान के रुझान और राजनीतिक व्यवहार पर नजर डालें तो पता चलता है कि न केवल इनका मतदान का प्रतिशत कहीं ज्यादा होता है बल्कि ये किसी पार्टी को एक मुश्त वोट देते हैं यानि इनके वोट बंटने या बिखरने की संभावना कम होती है। मुसलमानों के मतदान के इसी व्यवहार के चलते 2014 में सियासी समीकरण भाजपा के खिलाफ जा सकता है। आल इंडिया काउंसिल फॉर मुसलिम इकॉनामिक अपलिफ्टमेंट के आंकड़ों के मुताबिक, देश में करीब 60 ऐसे जिले हैं जहां मुसलिम मतदाताओं की संख्या 20 फीसदी से ज्यादा है और 20 जिलों में 40 फीसदी से ज्यादा मुसलिम आबादी है। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में करीब 19 फीसदी तो बिहार में मुसलमानों की संख्या करीब 17 फीसदी है। यदि बात मुसलिम बहुल राज्यों की बात करें तो पश्चिम बंगाल, केरल, असोम, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और कश्मीर में करीब 200 लोकसभा सीटें हैं। जाहिर है किसी पार्टी के लिए भी मुसलमानों के समर्थन के बगैर केंद्र में सरकार बनाना मुश्किल है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि नरेंद्र मोदी के नाम पर हिंदू-मुसलमान मतदाताओं का ध्रुवीकरण होना तय है। ऐसे में कांग्रेस जैसे धर्मनिरपेक्ष दलों को फायदा हो सकता है।
गुजरात में अलग समीकरण
हकीकत यह भी है कि इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने मोदी को समर्थन दिया है। 2012 के विधानसभा चुनावों में गुजरात की ऐसी 66 सीटें जहां मुसलिम आबादी 10 फीसदी से ज्यादा थी, उनमें से 40 भाजपा को मिली। इसी तरह जहां मुसलिम आबादी 15 फीसदी थी, वहां 34 सीटों में से 21 पर भाजपा ने जीत दर्ज की। इसके उन नौ सीटों पर भी भाजपा ने जीत हासिल की जहां मुसलमानों की आबादी 20 से 50 फीसदी तक थी लेकिन गुजरात जैसा समर्थन मोदी के पूरे देश में मिले, इसमें संशय है। मोदी के विरोधी तर्क देते हैं कि गुजरात में कांग्रेस बेहद कमजोर है और मुसलमानों के पास कोई विकल्प नहीं था लेकिन 2014 में ऐसा नहीं होगा। लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रीय परिषद के अपने समापन भाषण में अल्पसंख्यकों को भाजपा से जोडने की नसीहत देकर पार्टी को सियासी आईना भी दिखाया। उन्होंने एनडीए का कुनबा बढ़ाने, अल्पसंख्यकों के साथ पार्टी का समीकरण ठीक करने और उनके प्रति वचनबद्धता की बात कर भावनाओं के आगे सियासी लक्ष्मण रेखा खींच दी। इसका साफ संदेश था कि भाजपा के विकास और सुशासन के एजेंडे से सहमत होते हुए भी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जिन कारणों से भाजपा से दूरी रखते हैं, उन्हें दूर करना होगा। जाहिर है निशाना मोदी पर था।
गठबंधन के विरोधाभास
गठबंधन के सियासी समीकरण भी मोदी के खिलाफ जाते हैं। मोदी को लेकर क्षेत्रीय दल भी ऊहापोह की स्थिति मे हैं, खासकर वे दल जहां मुसलिम आबादी ज्यादा है। जनता दल (यू) का भाजपा से ठकराव की वजह भीअल्पसंख्यक वोट बैंक है। चुनाव के बाद अगर सीटें कम पड़ती हैं तो मोदी के नाम पर दूसरे क्षेत्रीय दलों से समर्थन लेना भी आसान नहीं होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी का विरोध भी उनके पीएम बनने के आड़े आ सकता है। अमेरिका मोदी का विरोधी है और एनडीए को पूर्ण बहुमत न मिलने पर वह क्षेत्रीय दलों को मोदी को समर्थन न देने की लॉबिंग कर सकता है। पार्टी के नेता यह भी तर्क देते हैं कि मोदी पर सांप्रदायिकता का जो ठप्पा लगा है उसकी वजह से उनका प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं है। मोदी के साथ वैसा ही हो सकता है जैसा की नब्बे के दशक में आडवाणी के साथ हुआ था। मोदी की तरह ही तब आडवाणी की भी कट्टर हिंदूवादी छवि थी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आडवाणी के प्रयास से ही पार्टी सरकार बनाने के मुहाने तक पहुंची लेकिन बात जब आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की चली तो समर्थक दलों ने सांप्रदायिक छवि के कारण उनका विरोध किया और आडवाणी की बजाए सेकुलर छवि वाले अटल बिहारी वाजपेयी को समर्थन दिया। तभी आडवाणी को समझ में आया कि उन्हें अगर प्रधानमंत्री बनना है तो अपनी मुसलमान विरोधी छवि को बदलना कर सेकुलर बनाना होगा। पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाना और कसीदे पढ़ना छवि सुधारने का ही कसरत थी। मोदी के विरोधी यह तर्क देते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री वही बन सकता है जिसकी छवि सेकुलर नेता की हो, जैसे आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, वैसे मोदी भी नहीं बन पाएंगे। मोदी उसी स्थिति में प्रधानमंत्री बन सकते हैं जब उनके नाम पर भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाए, जैसा की फिलहाल लगता नहीं है।
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