Sunday, April 28, 2013

भारत के साथ अमेरिका को चीन के सबक

लद्दाख में पड़ोसी चीन बड़ा सिरदर्द बना है। भारत के भीतर 19 किलोमीटर घुस आना और फिर हठ... इसके मायने हैं। बेशक, युद्ध अभी दस्तक नहीं दे रहा। कूटनीतिक प्रयासों से समस्या हल होने की पूरी संभावनाएं हैं। लेकिन जो दुनिया को उसे संकेत देना था, वो तो दे दिया कि कोई उसे भारत से उन्नीस मानने की गलती न करे। क्षेत्रीय संतुलन में महत्व दे रहे अमेरिका को यह सबक है। उसने बताया है कि पाकिस्तान के समस्याग्रस्त होने पर वह भारत को अपना बड़ा सहयोगी माननने से बचे। चीन काफी पहले से तैयारियां कर रहा था। इसी क्रम में खबर आई थी कि चीन की तैयारी तिब्बत में भारत की सीमा तक रेल लाइन बिछाने की है और जल्दबाजी इतनी है कि, यह पूरा काम अगले साल तक वह खत्म भी कर लेगा। इसके बाद सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस हिमालय क्षेत्र में परिवहन सुविधाएं बढ़ने के अलावा चीनी सेना का आवागमन भी आसान हो जाएगा। वह रक्षा बजट भी बढ़ा रहा है। हालांकि खतरा अकेले भारत के लिए नहीं, बल्कि दक्षिण एशियाई समुद्र में अमेरिकी नौसेना की बढ़ती गतिविधियों से शीतयुद्ध की आहट आने लगी है। चीन ने शक्ति में बड़ा इजाफा करके विश्व मंच पर शक्ति समीकरण बदल दिए हैं। अमेरिका सतर्क है। संकेतों से प्रतीत हो रहा है कि महाशक्तियों के शीत युद्ध का केंद्र एशिया का यही क्षेत्र होगा क्योंकि विश्व की दो उभरती शक्तियां चीन और भारत दक्षिण एशिया में ही हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व के शक्ति समीकरण का नेतृत्व अमेरिका ही कर रहा है। अफगानिस्तान और इराक पर हमला करने के बाद उसने यह रुतबा हासिल किया है। पाकिस्तान की वजह से अमेरिका भारत से दोस्ती उस तेजी से नहीं बढ़ा पा रहा, जैसा वो चाहता है। पाकिस्तान एक ऐसा विलेन है जो चीन के साथ तालमेल बना चुका है और अमेरिका से भी धूर्तता के जरिए मदद प्राप्त कर लेता है। अमेरिका की मजबूरी यह है कि उसे पाकिस्तान जैसा एक मुस्लिम देश चाहिए जो उसे मुस्लिम विरोधी होने के आरोप से बचा सके। अमेरिका जानता है कि उसके दिए हथियारों का इस्तेमाल भारत के विरोध में ही किया जाता है लेकिन अमेरिकी हथियारों को अफगान तालिबान को सौंपे जाने की खबरों ने उसकी नींद उड़ा दी है। वह चाहकर भी रोक नहीं पा रहा और अपने देश में यह हवा उसे परेशान कर रही है कि अपने सैनिकों के मारे जाने में उसके हथियार ही प्रयोग हो रहे हैं। हालांकि पाकिस्तान की यह नीति अब अंत के करीब है क्योंकि जैसे-जैसे चीन की दबंगता बढ़ रही है, वैसे-वैसे अमेरिका चौकस होता जा रहा है। वह जानता है कि आखिर में उसे चीन का सामना करना ही पड़ेगा। भारत भले ही सतही तौर पर चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध होने का दंभ भरता रहे किन्तु मालूम उसे भी है कि बहुत दिनों तक यह नाटक चल नहीं पाएगा। चीन ने भारत को जलील करने की दूरगामी योजना बना रखी है। भारत अभी 1962 के जख्मों को भी भूल नहीं पाया है इसलिए चीन की अपेक्षा अमेरिका से दोस्ती उसकी मजबूरी है। वैसे, भूलने की बात यह नहीं है कि चीन तिब्बत पर कब्जा करने के बाद से ही विगत 50 वर्षों से भारतीय सीमाओं तक यातायात के ढांचे को मजबूत करता आ रहा है। उसने भारत-चीन के ग्लेशियर आच्छादित पहाड़ों पर भी छेड़खानी शुरू कर दी है ताकि हिमालय से आने वाले जलस्रोतों का भी मनमाफिक इस्तेमाल किया जा सके। पिछले अप्रैल में उसने लद्दाख की सीमा पर स्थित अक्साई चीन में एक खगोलीय वेधशाला के निर्माण को अनुमति दी और इसके लिए दक्षिण कोरिया और जापान से भी सहयोग मांगा। इसके पीछे लद्दाख जैसे भारतीय इलाकों पर अपने दावे का अंतरराष्ट्रीयकरण करना था। तिब्बत से जुड़ी भारतीय सीमा पर रेल नेटवर्क इसी भारत विरोधी रणनीति का दूसरा और प्रमुख हिस्सा है। इस तरह चीन तीव्रता से भारत विरोधी दूरगामी कदम उठा रहा है और पाकिस्तान ईर्ष्या और बदले की भावना के तहत चीन को पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित एवं अन्य कई इलाके सौंप चुका है। दूसरी तरफ, भारत अन्दरूनी तैयारियां कर रहा है लेकिन उनमें प्रतिबद्धता नजर नहीं आती। दुर्भाग्य से चीन की स्थिति भारत से अच्छी है क्योंकि चीन संसाधनों और सैन्य शक्ति, दोनों में भारत से कहीं आगे है। इसके अतिरिक्त उसने रणनीति के तहत भारत के सभी पड़ोसी देशों को अपनी ओर खींच लिया है। मालदीव में हाल ही में घटनाक्रम से यह आशंका सत्य प्रतीत हुई कि भारत के यह पुराने दोस्त चीन के प्रलोभन में फंस रहे हैं। यह भी कम दु:ख की बात नहीं कि भारत ने अपनी सेना भेजकर जिस बांग्लादेश का निर्माण कराया, वह भी खुलकर उसके साथ खड़ा नहीं होता। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की यात्रा के दौरान वहां की विपक्षी नेता खालिदा जिया ने जिस तरह से व्यवहार किया, वह निश्चित रूप से भारत को पसंद नहीं आया होगा। दोनों देशों की सीमाओं पर भी खटपट की खबरें आती रहती हैं। श्रीलंका का रवैया भी एहसान फरामोशों जैसा है, तमिल समस्या के दौरान लिट्टे के विरुद्ध अभियान छेड़ने में भारत ने उसे भरपूर सहयोग दिया था। यहां तक कि लोकप्रिय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के पीछे भी यही सहयोग रहा लेकिन श्रीलंका भी हमारे साथ खड़ा नहीं होता। तमिलों पर सैन्य अत्याचारों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने श्रीलंका सरकार के खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पेश किया तो भारत को सत्ता में सहयोगी द्रमुक के दबाव में उसका समर्थन करना पड़ा। श्रीलंका इससे नाखुश हो गया। चीन ने मौके का फायदा उठाते हुए प्रस्ताव का खुलकर विरोध कर श्रीलंका की सहानुभूति बटोरने में जरा भी देर नहीं लगाई। नेपाल में भी चीनी समर्थकों की संख्या तेजी से बढ़ी है। वहां की सत्ता में प्रभावशाली साबित हो रहे माओवादियों ने तो भारत के विरोध और चीन के समर्थन की अपनी नीति खुलकर आगे बढ़ाई है। हालात इस तरह के हैं कि वहां की सत्ता भी भारत विरोधियों का खुलकर विरोध नहीं कर पा रही। ऐसे में भारत की विदेश नीति में बदलाव की जरूरत महसूस की जाने लगी है। भारत को नए सिरे से कवायद करते हुए पड़ोसियों के साथ मधुर सम्बंध बनाने होंगे, उसी तरह जैसे म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के पश्चात पीएम मनमोहन सिंह ने वहां की निर्वाचित नेता आन सांग सू की से मित्रता के हाथ बढ़ाए। प्रणब की यात्रा से बांग्लादेश में भी भारत विरोध का ज्वार थोड़ा थमा है। आवश्यकता अमेरिकी नीति में भी परिवर्तन की है। उलझी हुई परिस्थितियों में उसे भी अपनी दोतरफा नीति छोड़नी होगी, नहीं तो उसको भी न खुद़ा ही मिला न विसाले सनम वाली स्थिति का सामना करना पड़ेगा। मौजूदा दुश्वारियों से साफ है कि दक्षिण एशिया में ज्वालामुखी फटेगा ही और यदि चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों से बाज नहीं आता तो उसका लावा चीन को भी खूब परेशान करेगा।

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