Wednesday, March 13, 2013
सीबीआई का यह रुख !
केंद्रीय जांच ब्यूरो यानि सीबीआई पहली बार खुद पर सत्ता के साथ गलबहियां करने के आरोपों से पिंड छुटाती नजर आई है। कोयला ब्लॉकं आवंटन में कथित घोटाले (कोलगेट) की जांच में हाथ लगी जानकारियों को लेकर वो और केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में आपस में उलझ गर्इं। उसने यूपीए-1 के कार्यकाल में कोयला ब्लॉकों के आवंटन में हुई धांधलियों की ओर ध्यान दिलाया, वहीं सरकार तल्ख लहजे में इनसे इंकार कर रही है। इसकी तमाम वजह हो सकती हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण बिहार कैडर के आईपीएस रंजीत कुमार सिन्हा का निदेशक होना है। उनका कार्यकाल 2014 के नवम्बर माह तक है और तब संभव है कि केंद्र में यूपीए सरकार न रहे। ... और एजेंसी के कर्ता-धर्ता भावी सत्ता के अनुकूल बनने की तैयारियां कर रहे हों।
केंद्रीय जांच एजेंसी का यह रुख आश्चर्यजनक ही है क्योंकि अभी तक माना जाता रहा है कि उसके कार्य में सरकार की स्पष्ट रूप से दखलंदाजी है। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव तो खुलकर आरोप लगाते रहे हैं कि सरकार इस एजेंसी का राजनीतिक रूप से प्रयोग करती है। सीबीआई के पूर्व निदेशक अश्वनी कुमार को हाल ही में जब नगालैण्ड का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया तो भाजपा ने यह कहकर हो-हल्ला किया कि सरकार ने अश्वनी को किसी कार्य के लिए पुरस्कृत किया है। उसके नेता नरेंद्र मोदी सीबीआई को कांग्रेस बचाओ इंस्टीट्यूट कहकर संबोधित करते रहे हैं। विशुद्ध तकनीकी तौर पर देखें तो प्रश्न निजी कम्पनियों को खदान आवंटित करने या न करने का नहीं है। लेकिन समस्या यह है कि सरकार ने अपनी कम्पनियों की क्षमता को नाकाफी मानते हुए इस काम के लिए निजी कम्पनियों के लिए भी दरवाजा चौड़ा किया और आरोपों की पटकथा यहीं लिख गई। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आवंटन के दौरान तत्कालीन सरकार ने अपनी बनाई नीति यानि नीलामी की प्रक्रिया को लागू क्यों नहीं किया? कुछ कम्पनियों को रातों-रात खदान आवंटित कैसे हो गए? इसके अलावा कई कम्पनियां ऐसी हैं जहां मालिकानों के ओहदे पर केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय के रिश्तेदार और श्रीप्रकाश जायसवाल के नजदीकी लोग काबिज हैं। कुछ कम्पनियां मीडिया घरानों की हैं। सवाल है कि इन कम्पनियों को किस दर में खदान आवंटित हुर्इं? सरकार के पास जमा करने के लिए राशि कम्पनियों ने कहां से जुटाई? और यदि कर्ज लिये तो कहां से? अहम सवाल यह भी है कि जब कम्पनियों ने कोयला खदान खरीदीं तो कोयला निकाला क्यों नहीं और अगर, कोयला नहीं निकाला तो घोटाला कैसे हो गया? अंतर-मंत्रालयी समूह ने खनन का काम शुरू नहीं करने वाली कंपनियों को नोटिस जारी क्यों किया? क्यों रिलायंस, टाटा और आर्सेलर मित्तल जैसी बड़ी कम्पनियां काम शुरू नहीं कर पार्इं? सीबीआई की जांच का रुख यदि इसी तरह ईमानदार है तो इन सवालों के जवाब भी मिलेंगे। लेकिन एजेंसी के यह तेवर सरकार के लिए समस्या तो बनेंगे ही, वह भी तब जबकि अगले साल लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं। इसके साथ ही भारतीय पुलिस सेवा के वर्ष 1974 बैच के बिहार कैडर के अधिकारी रंजीत सिन्हा बिहार से पहले आईपीएस हैं जिन्हें सीबीआई का निदेशक बनाया गया है। सिन्हा वर्ष 1991 से लेकर वर्ष 2001 तक केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर रहे हैं जबकि वर्ष 2001 में वापस बिहार लौटने के बाद वे वर्ष 2004 में केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर चले गए थे। वो सीबीआई निदेशक बनने से पहले आईटीबीपी के महानिदेशक के पद पर काम कर रहे थे। उनकी सेवानिवृत्ति अगले वर्ष 31 मार्च को थी लेकिन सीबीआई के निदेशक के पद पर तैनात होने के बाद उनके पदभार ग्रहण करने की तिथि से उनका कार्यकाल दो वर्षों का हो गया है यानि उनकी सेवा अवधि वर्ष 2014 के नवम्बर तक विस्तारित हो गई है। सिन्हा राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं वाले अधिकारी माने जाते रहे हैं और कई बार उन्होंने राजनीतिक प्रतिबद्धता जाहिर भी की है। हो सकता है कि एजेंसी के तेवर उनके भावी करियर या संभावित सत्ता परिवर्तन के क्रम में हों।
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