Monday, March 4, 2013

उद्धव का एक दांव

महाराष्ट्र में सियासत चुनावी मोड़ का रास्ता पकड़ रही है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना सुप्रीमो राज ठाकरे के काफिले पर केंद्रीय मंत्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कार्यकतार्ओं के हमले की प्रतिक्रिया में जिस तरह शिवसेना ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की, उससे हिंदूवादी दोनों दलों के नजदीक आने की संभावनाएं फिर बढ़ी हैं। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने न केवल घटना की निंदा में तत्परता दिखाई बल्कि समय गंवाए बगैर जिस तरह वह पार्टी मुख्यालय पहुंच गए और अपने कार्यकर्ताओं की बैठक ली। नजदीकियां बढ़ने से कांग्रेस खेमे में बेचैनी ज्यादा है। उसे उम्मीद थी कि सियासत की हवाएं उसके पक्ष में हो रही हैं और चुनावों के नतीजे केंद्रीय सत्ता में पवार पर उसकी अनिवार्यता समाप्त कर देंगे। हालांकि इसे उद्धव की राजनीतिक चाल के रूप में भी देखा जा रहा है जो राज की बार-बार जरूरत बताने के विरुद्ध है। बाल ठाकरे के निधन के बाद उद्धव और राज ठाकरे में दोस्ती की कई बार खबरें आम हुई हैं। उद्धव ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं। राज ठाकरे के संबंधों को लेकर जब वह पहली बार सार्वजनिक रूप से बोले तो राज ठाकरे के लिए राजनीतिक दरवाजा खोलने का संकेत छिपा था। लेकिन यह बयान यूं ही अचानक नहीं आ गया। बड़े ठाकरे के निधन से पहले और बाद में राज ठाकरे की उनके आवास मातोश्री में प्रवेश को भविष्य की राजनीति के तहत मशक्कत के रूप में प्रचारित किया गया था। खबर खूब उड़ी थी कि शिवसेना के कुछ लोग दोनों भाइयों को करीब नहीं आने देना चाहते। उद्धव के निजी सचिव नीलेश कुलकर्णी का नाम तो खुलकर प्रचारित हुआ था। उद्धव ने अपने साक्षात्कार में इसी का जवाब यह कहकर दिया कि शिवसेना में कोई उनके निर्णयों को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर उन करीबियों को संकेत था जो बाल ठाकरे के निधन के बाद प्रभावशाली ध्रुव बनकर उभरे हैं और कार्यकर्ताओं की भीड़ उनके पीछे जुटने से उद्धव को मुश्किलें महसूस हो रही हैं। हालांकि मूल सवाल यही है कि क्या वास्तव में राज और उद्धव राजनीतिक गठजोड़ की संभावना तलाशने में जुटे हैं। राजनीति का कुछ भी निश्चित या अनिश्चित न होने का स्वभाव है और ऐसे में कोई संभावना से इंकार नहीं कर सकता कि राज ठाकरे और उद्धव एक राजनीतिक गठजोड़ कायम कर सकते हैं। वैसे भी, राज न तो खुद ही शिवसेना में शामिल होने का इरादा रखते हैं और न ही शिवसेना के भीतर उन्हें शामिल कराने की कोई जल्दबाजी मची है। राज का अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बन चुका है और उद्धव के लिए उनके पिता की विरासत को संभालने की जिम्मेदारी मिली हुई है। ऐसी स्थिति में दोनों ही अपने रास्ते आगे बढ़ने में विश्वास करते हैं। हां, इस बात की संभावना जरूर विकसित की जा रही है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को उस राजनीतिक युति में शामिल कर लिया जाए जिसमें अभी भाजपा, शिवसेना और आरपीआई एक साथ हैं। पहल भाजपा की ओर से हुई है लेकिन उद्धव भी साथ हैं। भाजपा की रणनीति में दम है, दोनों दलों के भी गठबंधन में शामिल होने से उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सीटों में बड़ी वृद्धि होना लगभग तय ही है। राज ठाकरे ने अपना वोट बैंक बना लिया है, इसके साथ ही उन कार्यकर्ताओं की भीड़ उनके साथ है जो पुराने शिवसैनिक हैं और उद्धव के बजाए उनके समर्थक थे। अकेली मुंबई की ही बात करें तो वहां भी कई इलाकों में शिवसेना के बजाए राज की पार्टी का दबदबा बन चुका है। कमोवेश, यही स्थिति महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में है। राजनाथ सिंह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद प्रभावशाली हुई प्रदेश इकाई की एक लॉबी भी इस प्रयास में जुटी है। दरअसल, राजनाथ समेत इस लॉबी के नेताओं को बाल ठाकरे के बाद राज ठाकरे में ही वह करिश्मा दिख रहा है जो उनके लिए महाराष्ट्र में वोटों का थोक इंतजाम कर सकता है। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं। महाराष्ट्र की राजनीति के जानकारों को लगता है कि उद्धव ठाकरे का यह बयान कि ह्यताली एक हाथ से नहीं बजती। बजती है क्या? एकता का सवाल दोनों से एक साथ पूछा जाना चाहिये क्योंकि यह जवाब तो दोनों को ही देना होगाह्ण, सोच-समझकर दिया गया है। मकसद इतना है कि संभावनाओं पर उठने वाले हर प्रश्न को शिवसेना के पाले से निकालकर मनसे की तरफ फेंक दिया जाए। शिवसेना के सियासी सिस्टम को करीब से देखने से पता चलता है कि पार्टी के भीतर राज ठाकरे की अहमियत और जरूरत उतनी है नहीं, जितनी बाहर प्रचारित की जाती है परंतु बार-बार उठने वाले सवालों से सीधे तौर पर शिवेसना को नुकसान होता है और राज को लाभ। लोग समझने लगते हैं कि उम्दा सियासी कौशल की वजह से उनकी इतनी पूछ है। गेंद राज ठाकरे की तरफ उछालकर शिवसेना इस तर्क के बोझ से बरी हो जाती है उसकी ओर से कोई पहल नहीं की गई। इसके पीछे उसके सियासी फायदा भी है। वह न केवल संभावित क्षति से बचती है बल्कि कार्यकर्ताओं की मनसे की ओर भगदड़ की आशंकाओं को विराम लग जाता है। साथ ही, उद्धव उन सहयोगियों को भी रोक पाने में सक्षम हो जाते हैं जो राज में शिवसेना का विकल्प ढूंढ रहे हैं। इसी क्रम में पार्टी के नेता यह कहने में पूरा जोर लगा रहे हैं कि शिवसेना राजनीति में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की पार्टी बन चुकी है और भाजपा मनसे के वर्तमान स्वरूप से इत्तेफाक नहीं रखती। जाहिर है, आपत्ति मराठावाद यानि एक प्रकार के क्षेत्रवाद से हैै। यह क्षेत्रवाद यदि भाजपा को स्वीकार हो भी जाता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर धक्का लगेगा। बावजूद इसके, अगर भाजपा मनसे को मिलाने के प्रयास जारी रखती है तो शिवसेना के पास यह कहने का मौका होगा कि उसने तो कभी इस पर आपत्ति ही नहीं की। मराठी माणुस की राजनीति को बांटने का दोष राज के सिर मढ़कर उद्धव ने ऊपरी तौर पर भले ही राज ठाकरे से मिलन की संभावनाओं को जन्म दे दिया हो लेकिन ऐसा करके वह राजनीति में नौसिखिया होने का आरोप झूठा सिद्ध करने में सफल सिद्ध हो रहे हैं। शिवसेना विरोधी दल यह कहकर उनकी बात को बेशक, गंभीरता से नहीं लें कि यह सूझबूझ से भरी चाल है जिसमें राज के साथ-साथ सहयोगी भारतीय जनता पार्टी को भी उलझाने का प्रयास किया गया है। ऐसी स्थिति में उद्धव जो चाहते हैं, वह कर पाने में सफल रहे हैं।

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