Saturday, March 22, 2025

प्रवासियों को लेकर बवंडर


अमेरिका के बाद अब यूरोप में भी प्रवासियों को लेकर बवंडर खड़े होने लगे हैं। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में बसे अन्य देशों के प्रवासियों के बीच गहरी चिंता घर कर गई है कि कहीं ग्रीन कार्ड निरस्त करने की घोषणा जल्द ही साकार न हो जाए। इस बेचैनी की लहर अब यूरोप तक पहुंच चुकी है, जहां विदेशी प्रवासियों की बढ़ती संख्या से स्थानीय नागरिकों के बीच असंतोष गहराने लगा है।


प्रवासियों की यह अनिश्चित स्थिति भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक नई चुनौती बन सकती है। वर्षों से भारतीय प्रतिभाएं विदेशों में जाकर अपने कौशल और मेहनत से उन देशों की अर्थव्यवस्था और तकनीकी प्रगति में योगदान दे रही थीं। अगर ये प्रतिभाएं बड़े पैमाने पर स्वदेश लौटती हैं तो भारत को एक ओर 'ब्रेन गेन' का फायदा मिल सकता है, लेकिन दूसरी ओर इतनी बड़ी संख्या में कुशल पेशेवरों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना सरकार के लिए कठिन चुनौती हो सकता है। असल में, सभी बड़े और विकसित देशों ने विदेशी प्रतिभाओं के सहारे ही अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। प्रवासी डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और अन्य विशेषज्ञों ने इन देशों के विकास में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन इन देशों के मूल निवासी हमेशा से इस स्थिति को लेकर असहज रहे हैं। उनका मानना है कि प्रवासियों की बढ़ती संख्या से उनके रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान भी खतरे में पड़ रही है। यही नाराजगी समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर विस्फोटक रूप लेती रही है।

अब सवाल यह उठता है कि अगर प्रवासियों के खिलाफ ये रुझान मजबूत होता है और बड़ी संख्या में लोग स्वदेश लौटने पर मजबूर होते हैं, तो इससे भारत जैसे देशों की स्थिति पर क्या असर पड़ेगा? क्या भारत में उनके कौशल और अनुभव का सही उपयोग हो सकेगा? या फिर यह प्रवासी लहर देश के भीतर बेरोजगारी और असंतोष को और बढ़ा देगी? इसके अलावा, भारत जैसे देश में स्थानीय स्तर पर भी प्रतिभाएं पहले से ही अपना वर्चस्व जमा चुकी हैं। तकनीकी, चिकित्सा, शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में पहले से ही घरेलू स्तर पर मजबूत प्रतिस्पर्धा है। ऐसे में विदेश से लौटने वाले पेशेवरों के लिए यहां नई जगह बनाना आसान नहीं होगा। अगर वे अपने अनुभव और कौशल के बल पर यहां स्थापित भी हो जाते हैं, तो इससे स्थानीय प्रतिभाओं के लिए नए संघर्ष का दौर शुरू हो सकता है। इससे सामाजिक असंतोष और तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है।

हालांकि, छोटे परिवारों के माता-पिता के लिए यह स्थिति थोड़ी राहत भरी हो सकती है। वे वर्षों से इस दर्द को झेल रहे हैं कि उनके बच्चे विदेशों में जाकर बस गए और वे यहां अकेलेपन का जीवन जीने को मजबूर हैं। अगर उनके बच्चे अब स्वदेश लौटते हैं, तो इससे पारिवारिक संबंध मजबूत हो सकते हैं और बुजुर्गों को मानसिक और भावनात्मक सहारा मिल सकता है। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती। यदि विदेशों से लौटने वाले लोग भारत की सामाजिक और कार्य संस्कृति में खुद को ढाल नहीं पाए, तो इससे उनके भीतर कुंठा और असंतोष पनप सकता है। विदेशों में एक उन्नत और व्यवस्थित जीवनशैली के बाद भारत की कार्य संस्कृति, नौकरशाही और सामाजिक ताने-बाने में सामंजस्य बैठाना उनके लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इससे उनमें गहरी निराशा और मानसिक तनाव उत्पन्न हो सकता है, जो आगे चलकर सामाजिक अशांति और तनाव का कारण बन सकता है।

इसके अलावा, लौटने वाले पेशेवरों की ऊंची अपेक्षाएं भी समस्या बन सकती हैं। विदेशों में उच्च वेतन, बेहतर जीवनशैली और सुविधाओं के आदी हो चुके लोग जब यहां सीमित संसाधनों और अवसरों से रूबरू होंगे, तो इससे उनकी नाराजगी और हताशा और बढ़ सकती है। इसका असर सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ सकता है। सबसे बड़ी चुनौती उन अप्रवासियों के लिए है, जिन्होंने विदेशों में अपना पूरा जीवन बिता दिया है। दो-चार साल से विदेश में गए लोगों की स्थिति फिर भी संभल सकती है, क्योंकि उनके लिए भारत लौटकर खुद को दोबारा स्थापित करना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। लेकिन जिन लोगों ने वहां अपना घर-परिवार बसा लिया है, स्थायी संपत्ति खरीद ली है और अपने बच्चों को वहां की शिक्षा व्यवस्था और जीवनशैली में ढाल लिया है, उनके लिए स्वदेश लौटना एक बड़ा आघात साबित हो सकता है।

विदेशों में दशकों से रह रहे इन अप्रवासियों ने वहां की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में खुद को पूरी तरह ढाल लिया है। उनके बच्चों की शिक्षा, करियर और भविष्य की योजनाएं वहां की व्यवस्था पर निर्भर हैं। अगर ऐसे लोगों को मजबूर होकर स्वदेश लौटना पड़ा, तो यह उनके लिए मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद कठिन होगा। उनके लिए भारत लौटकर खुद को यहां के माहौल में ढालना केवल पेशेवर चुनौती ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक चुनौती भी होगी। उनके बच्चों के लिए यहां की शिक्षा प्रणाली और सांस्कृतिक माहौल में ढलना आसान नहीं होगा। इससे उनके भीतर असंतोष और तनाव गहराएगा, जिसका असर उनके पारिवारिक जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है। भविष्य की तस्वीर अभी धुंधली है, लेकिन इतना तय है कि वैश्विक राजनीति में प्रवासियों का मुद्दा आने वाले समय में और अधिक गरमाएगा। इस स्थिति से निपटने के लिए न सिर्फ विकसित देशों को संतुलित नीति अपनानी होगी, बल्कि भारत जैसे देशों को भी अपने यहां लौटने वाले प्रवासियों के लिए एक ठोस रणनीति तैयार करनी होगी। रोजगार के नए अवसरों का सृजन, सामाजिक समायोजन की नीति और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ही इस चुनौती से निपटने का सही तरीका हो सकता है। तभी इस स्थिति को अवसर में बदला जा सकेगा।

अंततः, सवाल यही है- क्या प्रवासी भारतीयों के लिए स्वदेश लौटना एक सुनहरा अवसर होगा या एक नई चुनौती? यह जवाब भविष्य के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक घटनाक्रम पर निर्भर करेगा।

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