Sunday, December 22, 2013
सीमाएं लांघता 'देवयानी एपिसोड'
भारत-अमेरिका कूटनीतिक सम्बन्धों में तनातनी है। शायद पहली बार अमेरिका को किसी देश से इतना प्रबल विरोध सहना पड़ रहा है, तो भारत ने भी संभवतया पहली दफा विवाद के किसी एपीसोड पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया जताई है। साथ ही, यह दिखाने की कोशिश की है कि वह मामले से बेहद खफा है, बदला लेने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता। लेकिन भारतीय रुख तमाम प्रश्न भी खड़े कर रहा है, यदि राजनयिक देवयानी खोबरागडे के विरुद्ध शिकायत है और अमेरिका उसकी जांच कर रहा है तो हम महज विरोध की परंपरा से आगे बढ़ने में इतने व्यग्र क्यों दिख रहे हैं। यह कहां की समझदारी है कि विदेश मंत्री संसद में चीखकर कहें कि मैं देवयानी को सुरक्षित वापस नहीं ला पाया तो सदन को कभी मुंह नहीं दिखाऊंगा। क्यों देवयानी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें सुरक्षा कवच मुहैया कराया जा रहा है, ताकि यह भ्रम ही न रहे कि वह राजनयिकों के लिए तय विशेषाधिकारों की परिधि में आती हैं या नहीं। अरसे से जिसे हम मित्र सिद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे, उसी अमेरिका के साथ ऐसा व्यवहार क्यों हो रहा है कि वह पाकिस्तान जैसा कोई शत्रु देश हो।
राजनयिकों के विशेषाधिकारों का प्रावधान है और सभी देश इन्हें पूरा आदर-सत्कार देते हैं। अमेरिका पर आरोप है कि उसने मर्यादाएं लांघीं और भारतीय राजनयिक की वस्त्र उतारकर तलाशी से भी नहीं हिचका। उन्हें खूंखार कैदियों के साथ हवालात में रखा गया। भारत ने तत्काल प्रतिक्रिया जाहिर की और अमेरिकी राजनयिकों के यह अधिकार जैसे सीज कर दिए। लेकिन यह प्रतिक्रिया बेहद निचले स्तर की रही। कहां की समझदारी है कि जिस अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों ने निशाने पर ले रखा हो, जिसके दूतावासों पर हमले किए हों, जिसके राजनयिकों के अपहरण के उदाहरण हों, उस अमेरिका के दूतावास तो हम इतना असुरक्षित छोड़ दें कि आम यातायात वहां से गुजरने लगे। माना कि आम चुनाव नजदीक हैं और अमेरिका के विरुद्ध नरम रवैये से मतदाताओं में गलत संकेत जा सकते थे लेकिन ईश्वर न करे, कि राजनयिकों और दूतावास के साथ कुछ गलत हो गया होता तो हम क्या जवाब देते। क्या तब हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न चुनावों का मुद्दा नहीं बनते? अगर अमेरिका जांच पर ही उतारू था तो क्यों हम, उसकी प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार नहीं कर रहे। होना तो यह चाहिये कि हम देवयानी के जांच में बेदाग सिद्ध होने का इंतजार करते। बजाए इसके, हमने यह सुनिश्चित करने के लिए देवयानी बची रहें, हमने उन्हें विशेषाधिकारों का कवच मुहैया कराते हुए न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में तैनात कर दिया। इस तरह उन्हें विएना संधि के तहत राजनयिकों को मिलने वाले सारे अधिकार मुहैया करा दिए गए। फिलहाल कौंसुलर अफसर होने के कारण देवयानी को ये अधिकार हासिल नहीं थे। अगर यह जरूरी भी था, तो क्यों हमारा विदेश मंत्रालय अब तक भारतीय दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ का दर्जा दिलाने में कोताही बरतता रहा जबकि वहां स्थित रूसी दूतावास के सभी कर्मचारियों को कूटनीतिज्ञ दर्जा प्राप्त है। इसके उलट, अमेरिका ने यही विशेषाधिकार भारत स्थित अपने कूटनीतिक मिशनों के कर्मचारियों के लिए प्राप्त किया हुआ है। अमेरिका को दोष देने से पहले हमें अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि हमने अपने कूटनीतिज्ञों को कितना सुरक्षा कवच प्रदान कर रखा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि विपक्षी दलों ने भी मुद्दे से ज्यादा नहीं समझा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इंकार किया, तब तक तो खैर थी लेकिन संसद के सत्र में जिस तरह से मर्यादा की सीमाएं पार हुर्इं और अमेरिका को गालियां तक दी गर्इं, वह किस तरह से सही मानी जा सकती हैं। अमेरिका अगर भूल भी रहा था और राजनयिक के साथ गलत व्यवहार पर उतारू था तो हमारे सब्र के बांध का छलक जाना, कहां तक न्यायोचित माना जा सकता है। सियासी पार्टियों का सारा आक्रोश वोटों की राजनीति तक सीमित था, इसीलिये तो भाजपा नेता यशवंत सिन्हा शालीनता की सीमा पार कर गए और यह कह बैठे, 'भारत ने काफी संख्या में अमेरिकी राजनयिकों के साथियों को वीजा जारी किए हैं। जैसे अमेरिका में मानक से कम वेतन देना अपराध है, वैसे ही धारा 377 के तहत हमारे देश में समलैंगिक संबंध भी अपराध हैं तो भारत सरकार ऐसे सभी अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेती! उन्हें जेल में डालिए और यहीं सजा दीजिए।' इन सब बातों से इतर, अगर हम वैश्विक स्थितियों की बात करें तो अमेरिका के साथ रहकर भी हम खुद को नफे में मान सकते हैं वरना रूस की हैसियत अब पहले जैसी है नहीं और चीन जैसा दुश्मन लगातार अपनी ताकत में इजाफा कर रहा है। पाकिस्तान से चीन का गठजोड़ हमारे लिए किसी भी दिन बड़ी चुनौती बनकर रूबरू हो सकता है। ऐसे में अमेरिका ही आशा की एकमात्र किरण है और वह काफी समय से चीन पर अंकुश रखने की नीयत से एशिया में भारत की भूमिका बढ़ाने के लिए कदम उठा रहा है। अमेरिका भारत को अपना रणनीतिक साझीदार मानता है और दोनों के सुरक्षा हित साझा हैं। दोनों ही देश आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त हैं और उससे लोहा लेने के लिए मजबूर हैं। समुद्री सुरक्षा, हिन्द महासागर क्षेत्र, अफगानिस्तान और कई क्षेत्रीय मुद्दों पर दोनों देश व्यापक तौर पर अपने हित साझा करते हैं। बात का लब्बोलुआब यह है कि हमें पूरे प्रकरण में समझदारी दिखानी चाहिये थी जो हमने अभी तक नहीं दिखाई है। यह भारत और अमेरिकी सम्बन्धों के लिए कतई उचित नहीं है। यह आत्मघाती भी हो सकती है।
Saturday, December 14, 2013
सियासत और सोशल मीडिया
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार एक और मंच भी था, जहां भाषण देते नेता नहीं थे और न ही किसी पार्टी के स्तर से घोषणापत्र जारी किए जा रहे थे, वहां आम लोग ही थे और हर मुद्दे पर उनकी बेबाक राय थी। प्रत्याशियों के गुणों का मूल्यांकन था और कमियां भी खूब इंगित की जा रही थीं। सोशल मीडिया के इस मंच का असर जमकर दिखाई दिया। चारों राज्यों में जबर्दस्त मतदान के लिए भी इस मंच की प्रेरणा का अहम रोल है। सियासी पार्टी सकते में हैं, प्रचार के परंपरागत तरीकों से हटकर उन्हें, मीडिया के इस नए रूप के लिए भी रणनीति बनानी पड़ी है। असर कितना व्यापक है कि, चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव में प्रत्येक प्रत्याशी के लिए सोशल मीडिया पर उसकी सक्रियता की हर जानकारी मांगने जा रहा है।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों की एक अहम उपलब्धि है आम आदमी पार्टी का उदय। प्रचार अभियान के परंपरागत तरीकों से हटकर इंटरनेट की दुनिया के जबर्दस्त प्रयोग की बदौलत उसे यह उपलब्धि हासिल हुई है। आज की तारीख में शहरी मध्य वर्ग और उसमें भी युवाओं तक पहुंचने का इंटरनेट सबसे मजबूत माध्यम है। केजरीवाल की पार्टी ने सबसे पहले यह भांप लिया और पहली बार इंटरनेट के संगठित उपयोग की शुरुआत की। यही वो पहली पार्टी है जिसने अपनी एंड्रायड एप्लीकेशन बनवाई। फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के दो प्रमुख मंचों और वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब का जमकर प्रयोग किया। भाजपा भी पीछे नहीं थी। सब-कुछ इतने बेहतर तरीके से संचालित किया गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की हर सभा आनलाइन थी। फेसबुक और ट्विटर पर लिंक शेयर हो रहे थे। दोनों दलों के चुनाव प्रबंधक समझ गए थे कि चुनावी सभाओं में भाग लेने वाले ही लोग वोटर नहीं हैं, बल्कि वो भी हैं जो विभिन्न कारणों से इंटरनेट के जरिए देश के सियासी घटनाक्रमों से जुड़े रहते हैं। सूचनाएं लगातार अपडेट हो रही थीं, यह तत्परता ही है कि मतदान होने से पहले ही चुनाव नतीजों का आंकलन भी कर लिया गया, जैसे दिल्ली में मतदान से एक दिन पूर्व फेसबुक और ट्विटर पर जो ट्रेंड था, उसमें आम आदमी पार्टी को बढ़त हासिल थी। मतदान से एक दिन पहले ट्विटर पर केजरीवाल को सात लाख लोग फॉलो कर रहे थे। फेसबुक पर केजरीवाल प्रशंसकों की संख्या 10 लाख से ज्यादा थी जबकि भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार डॉ. हर्षवर्धन को ट्विटर पर महज 17 हजार लोगों ने फॉलो किया था। भाजपा देर से सक्रिय हुई, मतदान से तीन दिन पहले प्रारंभ हर्षवर्धन के फेसबुक पेज को 65 हजार लोगों ने तीन दिन में लाइक किया। लेकिन शीला दीक्षित को लेकर आकलन गलत रहा, वह लाइक के मामले में हर्षवर्धन से आगे थीं, उनके अधिकृत पेज को सवा लाख लाइक मिले थे। चुनावी मामलों में हर कदम फूंक-फूंककर रखने वालीं राजनीतिक पार्टियां यदि गंभीर हैं तो आंकड़ों के मामले में भी इंटरनेट की ताकत एक वजह है। इन्हीं आंकड़ों की बात करें तो टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी आॅफ इंडिया (ट्राई) के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष 2012-13 के अंतिम दिन देश में इंटरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या 17 करोड़ 40 लाख थी, चुनाव आयोग जैसी प्रमुख इकाई ने जिसमें नौ करोड़ लोगों को वोटर माना है। इंटरनेट उपयोग करने वाले तीन-चौथाई लोग 35 साल से कम उम्र के हैं।
चुनाव आयोग भी मान रहा है कि मतदान प्रतिशत बढ़ने के पीछे इंटरनेट की मुख्य भूमिका रही है। आयोग की साइट पर मतदाता पंजीकरण के लिए पहुंचने वालों में करीब 70 फीसदी लोग युवा हैं और 35 वर्ष से कम आयु के हैं। यह पहला मौका है, जब देश की उस पढ़ी-लिखी विशाल युवा आबादी ने वोटर के रूप में अपना नाम दर्ज कराया है, जो सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हो सकती है। चुनाव सर्वेक्षण संचालित करने वाली कंपनी सी-वोटर का अनुमान बताता है कि इंटरनेट प्रयोग करने वाले नौ करोड़ से ज्यादा लोगों का तीन से चार फीसदी भाग आगामी आम चुनावों को प्रभावित करने की हैसियत में है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के साथ ही बंगलुरू, चण्डीगढ़, अहमदाबाद जैसे नए उभरे महानगरों में यह प्रतिशत इससे अधिक भी होने की संभावना जताई गई है क्योंकि यहां की युवा आबादी सोशल मीडिया पर दूसरे शहरों की अपेक्षा ज्यादा सक्रिय है। सी-वोटर ने अपने मतदान-पश्चात सर्वेक्षण में इंगित किया है कि इन विधानसभा चुनावों में युवाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। चुनाव आयोग के पास सूचनाएं हैं कि पार्टियां और प्रत्याशी अपने चुनावी व्यय का एक अच्छा-खासा हिस्सा सोशल मीडिया पर व्यय करने लगी हैं इसीलिये उसके स्तर से विधानसभा चुनाव से पूर्व निर्देश जारी किए गए कि राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के जरिए सोशल मीडिया पर पोस्ट सामग्री चुनाव आचार संहिता के दायरे में आएगी। उम्मीदवारों को नामांकन करते वक्त अन्य सूचनाओं के साथ अपने सोशल मीडिया एकांउट के बारे में भी सूचना देनी होगी। सोशल मीडिया की निगरानी के लिए वही तरीका अपनाया जाएगा, जो टीवी और अखबारों के लिए अपनाया जाता है। आयोग लोकसभा चुनावों में व्यवस्थाएं और कड़ी करने जा रहा है। दूसरी तरफ, सियासी दल भी मुस्तैद हैं। राष्ट्रीय दलों के साथ ही क्षेत्रीय दल भी इंटरनेट पर अपनी सक्रियता बढ़ाने के लिए कमर कस रहे हैं। फेसबुक पर पेज प्रमोट करने की सुविधा का जमकर प्रयोग हो रहा है। यानि आने वाले दिनों में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव जैसे पुरानी पीढ़ी के नेताओं की भी इंटरनेट सक्रियता बढ़ती नजर आने वाली है।
Saturday, December 7, 2013
नेल्सन मंडेला और मलाला...
नेल्सन मंडेला नहीं रहे और मलाला यूसुफजई को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार पुरस्कार मिला है। एक साथ ये दोनों जिक्र आश्चर्य पैदा करते हैं लेकिन दोनों का सम्बन्ध है और वो भी गहरा। दक्षिण अफ्रीका के गांधी नेल्सन मंडेला और पाकिस्तानी वीरबाला मलाला यूसुफजई एक ही विचारधारा की दो अलग-अलग पीढ़ियों का नेतृत्व करते हैं। मंडेला उन दिनों और देश में रौशनी बनकर उभरे जहां एक बड़ी आबादी का पर्याय अंधेरा था और मलाला उस पाकिस्तान की हैं जहां महिला अधिकार बेमानी हैं। महिलाएं पर्दे के भीतर हैं और उनकी आवाज दबाने के हरचंद कोशिश होती रहती है। बाकी दुनिया की तरह उन्हें तमाम तरह की आजादियां मयस्सर नहीं। समानताएं और भी हैं। नेल्सन ही मलाला के आदर्श पुरुष हैं और दोनों को इस पुरस्कार के काबिल समझा गया है।
नेल्सन युग पुरुष हैं। वह स्वतंत्रता, प्रेम, समानता और ऐसे मूल्यों के प्रतीक हैं जिनकी हमें हमेशा, हर जगह जरूरत होती है। उनका लंबा संघर्ष मानवता का उदाहरण है। वह जब बड़े हुए, तब उनका देश काले-गोरों के बीच खाई में कहीं खोया हुआ था। वहां काले यानि अश्वेत सिर्फ मरने के लिए पैदा हुआ करते थे लेकिन मंडेला सबसे अलग थे। उन्होंने महज 10 साल की उम्र में लड़ने का फैसला किया। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के झण्डे तले ऐसा अभियान छेड़ा कि श्वेत सरकार मुश्किल में आ गई। वह 27 साल जेल में रहे, उगता हुआ सूरज नहीं देखा। यह उनका आत्मबल ही था कि डटे रहे और अफ्रीका की गोरी सरकार को उनके सामने झुक जाना पड़ा। मलाला की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। वह पाकिस्तान में स्वात घाटी के मिंगोरा शहर में पैदा हुर्इं। मिंगोरा पर तालिबान का कब्जा था। महज 11 साल की उम्र में ही मलाला ने डायरी लिखनी शुरू कर दी थी। वर्ष 2009 में छद्म नाम गुल मकई के तहत बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखकर मलाला पहली बार दुनिया की नजर में आ गर्इं। डायरी में उन्होंने स्वात में तालिबान के कुकृत्यों का वर्णन किया और अपने दर्द को बयां किया। लिखा, आज स्कूल का आखिरी दिन था इसलिए हमने मैदान पर कुछ ज्यादा देर खेलने का फैसला किया। मेरा मानना है कि एक दिन स्कूल खुलेगा लेकिन जाते समय मैंने स्कूल की इमारत को इस तरह देखा, जैसे मैं यहां फिर कभी नहीं आऊंगी। मलाला ने ब्लॉग और मीडिया में तालिबान की ज्यादतियों के बारे में लिखना शुरू किया तो धमकियों का अंबार लग गया। महिलाओं पर स्कूल में पढ़ने से लेकर कई पाबंदियां थीं। मलाला भी इसकी शिकार हुई। डायरी लोकप्रिय हो रही थी और उधर, लोगों में जागरूकता बढ़ रही थी। नतीजतन, तालिबान के विरुद्ध एक हवा बन गई। मात्र 14 साल की मलाला पर आतंकवादियों ने हमला किया। वह बुरी तरह घायल हुर्इं और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन गर्इं। महज 16 वर्षीय मलाला का कद आज बड़े-बड़ों से बड़ा है। उन्हें इस प्रतिष्ठित सम्मान से पहले पाकिस्तान का राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार, वैचारिक स्वतंत्रता के लिए यूरो संसद का सखारोव अवार्ड, अंतर्राष्ट्रीय बाल शांति पुरस्कार और मैक्सिको के समानता पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। मलाला एक दिन पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं। एक राजनीतिज्ञ के तौर पर मलाला पाकिस्तान के ज्यादा काम आ सकती है।
पाकिस्तानी में कट्टरपंथियों की सोच का केंद्रीय तत्व बदतर किस्म का लैंगिक शोषण है, वह चाहते हैं कि देश जाहीलिया यानि पूर्वाग्रह और अज्ञानता के दिनों की ओर चला जाए। इस्लाम के सही मायने उन्हें शायद नहीं पता या फिर उनकी अनदेखी का मकसद सुर्खियां पाना है। जहां इस्लाम ने शिशु कन्या की हत्या सरीखी तमाम कुरीतियों को प्रतिबंधित करके अरब महिलाओं का दिल जीता था, वहीं पाकिस्तानी तालिबान और उसके समर्थक उस धर्म को शर्मसार करते हैं, जिसके वे अनुयायी हैं। मलाला उन सियासतदां का अच्छा विकल्प हैं जो शरीर ही नहीं, दिमाग से भी बूढ़े हो चुके हैं। सत्तर साल के परवेज मुशर्रफ की कट्टरता परस्त सोच का वह विकासवादी जवाब हैं। दोगली नीतियों से अपने मुल्क का बुरा करने वाले नवाज शरीफ से ज्यादा समझदार हैं मलाला। लेखिका और पूर्व पीएम बेनजीर भुट्टो की भतीजी फातिमा भुट्टो भी उनकी पैरोकार हैं जो निडर और बुलंद आवाज के लिए जगप्रसिद्ध हैं। वह कहने से नहीं हिचकतीं कि निडर और साफ सोच वाली आवाजें पिछड़े इलाकों से उठनी चाहिए न कि उच्चवर्गीय शहरियों के बीच से। शहरों से उठने वाली आवाजें कुछ निश्चित पृष्ठभूमि और अंग्रेजीदां तबके से आती हैं। इसका कारण यह है कि वे अंतर्राष्ट्रीय स्कूलों में गई होती हैं। पाकिस्तानियों को और ज्यादा मुखर स्वर की जरूरत है। ऐसी ही आवाज भारत, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे तमाम उन देशों से भी आनी चाहिये जहां किसी न किसी तरह की अनियमितताएं या शोषण है। भ्रष्टाचार का दानव पैर पसार रहा है। मलाला यूसुफजई उस विशाल युवा वर्ग की नुमाइंदगी करती हैं जो राजनीति में स्वच्छता चाहता है और नेल्सन मंडेला की तरह वह अन्याय बर्दाश्त करने का इच्छुक नहीं। उसे विकास की आस है, वह भ्रष्टाचार जैसे घुन का समूल नाश चाहता है। भारत जैसे युवाओं के देश का युवा भी बाकी दुनिया से अलहदा नहीं।
Sunday, November 17, 2013
चीन-पाक के मोर्चे पर खाली हाथ
मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल भी लगभग समाप्ति की ओर है। चुनावों की तैयारियां हैं, सियासी माहौल गरमा चुका है। नेताओं की रैलियों के दौर चल रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप और वोटरों को लुभाने के स्टंट भी चरम पर बढ़ रहे हैं। मौका समीक्षा का आ रहा है, सरकार कठघरे में है। पूछा जा रहा है कि दो कार्यकाल में यूपीए सरकार के हिस्से में कितनी उपलब्धियां आई हैं। भारत की आर्थिक स्थिति तेजी से गिरती जा रही है। सोचा जाता था कि भारत की विकास दर चीन के बराबर होगी या कम से कम आठ प्रतिशत तो अवश्य होगी परंतु आज यह गिरकर महज चार प्रतिशत रह गई है। खैर, समस्याएं क्या हैं और उनके कितने हल हुए, यह दीगर है। चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ ने सिद्ध किया है कि हम विदेश नीति के मोर्चे पर ढंग से वार नहीं कर पा रहे, बल्कि रक्षात्मक हुए हैं। चीन-पाकिस्तान के मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के मामले में हमारी उपलब्धियां शून्य हैं। यह हाल तब है जबकि हमारे प्रधानमंत्री ने 10 साल के कार्यकाल में हवाई जहाज से 6,20,000 मील की उड़ान भरी है और 72 बार सरकारी दौरे पर विदेश गए हैं।
सबसे पहले चीन के साथ सम्बंधों की बात करें। चीन हाल के दिनों में हमलावर हुआ है और घुसपैठ से भी नहीं हिचक रहा। मनमोहन ने बीजिंग में कहा था कि, भारत और चीन हाथ मिलाते हैं तो दुनिया उत्सुकतापूर्वक देखती है लेकिन चीन जिस तरह से भारत की अवहेलना कर रहा है, उससे लगता है कि वह भारत को दूर-दूर तक अपना प्रतिस्पर्धी नहीं मानता। चीन-भारत शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच बॉर्डर डिफेंंस कोआॅपरेशन एग्रीमेंट हुआ जिसका अर्थ है चीन और भारत के फौजी सीमा पर आपस में नहीं लड़ेंगे और न उस तरह की घटना होगी जैसी कुछ माह पूर्व लद्दाख में हुई थी, जहां चीनी फौजी करीब तीन हफ्तों तक भारत की सीमा मेंं डटे रहे थे। सवाल यह है कि हम उत्साहित क्यों हैं? कुछ दशकों में दोनों देशों के सम्बंधों का विश्लेषण किया जाए तो चीन की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट हो जाएगा। वह सदैव भारत के साथ मधुर सम्बंध बनाने की बात करता रहा है परन्तु चुपके से हमारी जमीन हड़पने से भी नहीं हिचकता। उसने चार हजार किमी भूमि हड़पी हुई है। कुछ महीने पहले तक वह अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न हिस्सा मानता था लेकिन अब कहने से नहीं हिचकता कि एक दलाई लामा का जन्म चूंकि अरुणाचल प्रदेश में हुआ था इसलिये यह प्रदेश भी चीन का ही हिस्सा है। चीन जाने के इच्छुक लोगों को वह नत्थी वीजा देता है, मनमोहन के कहने पर उसने इस मसले पर अपना रुख बदलने से इंकार कर दिया। उसका तर्क है कि अरुणाचल चीन का हिस्सा है और यहां रहने वाले उसके नागरिक, अपने नागरिकों को चीन जाने के लिए वीजा की कोई जरूरत ही नहीं है। यह शत्रुतापूर्ण रवैये का ही उदाहरण है कि चीन भारत को चारों ओर से घेर रहा है, भारत के कट्टर शत्रु पाकिस्तान को वह हर तरह की आर्थिक और सामरिक मदद दे रहा है। पाकिस्तान के ग्वादर बन्दरगाह को विकसित करने का पूरा खर्च भी उठा रहा है। म्यांमार और श्रीलंका में भी बन्दरगाहों का जाल बिछा रहा है। भारत को नीचा दिखाने के लिए तमिल विद्रोहियों के साथ युद्ध में क्षतिग्रस्त हुए श्रीलंका के पुलों और सड़कों की मरम्मत करा रहा है। तमाम ढांचागत परियोजनाओं में मदद के जरिए वह श्रीलंका को सन्देश दे रहा है कि वही उसका असली मित्र है, भारत नहीं।
पाकिस्तान के मोर्चे पर भी मनमोहन का यह दूसरा कार्यकाल कुछ उम्मीद जगाने में नाकाम रहा। भारत ने कोशिश की कि पाकिस्तान उग्रवाद का समर्थन बंद करे और सकारात्मक सम्बंधों की दिशा में आगे बढ़े। इसके लिए समग्र वार्ता की योजना तैयार की गई, जिसमें कश्मीर, व्यापार और मछुआरों-कैदियों की रिहाई जैसे मानवीय मुद्दों को भी शामिल किया गया। आशा थी कि पाकिस्तान व्यापार, कृषि, उद्योग, यात्रा में सुगमता जैसे मामलों में दिलचस्पी लेगा और भारत के प्रति शत्रुता की उसकी भावना कम होने लगेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। भारत को व्यापार में तरजीह का दर्जा देने के नाम पर वह टालमटोली कर रहा है। आर्थिक स्थिति जबर्दस्त ढंग से गड़बड़ाने की वजह से वह व्यापार बढ़ाना तो चाहता है लेकिन अपनी शर्तों पर। उसे लगता है कि वह आंशिक व्यापार के साथ नकारात्मक और आक्रामक नीतियों को भी जारी रख सकता है। उदाहरण देता है चीन का, जिसमें दोनों देशों के मध्य व्यापार और तनाव के साथ-साथ सीमा पर चीनी आक्रामकता का भी सह-अस्तित्व है। मनमोहन सरकार की नीतियों और वार्ता की व्यग्रता से लगता है कि वह पाकिस्तान के रवैये को स्वीकार कर रही है। पाकिस्तान में अभी तक आतंकी ढांचा मौजूद है। हम रक्षात्मक हैं, यह भूल रहे हैं कि रक्षात्मक रुख से युद्ध नहीं जीते जाते। हमारे लचर ढर्रे से लाभ में आतंकी रहते हैं और इसका खामियाजा जनता को भुगतना होता है। हमारी विदेश नीति निर्धारकों का एक तबका यह भी मानता है कि सेना और कट्टरपंथियों को काबू में करके पाकिस्तान सरकार शांति का माहौल बना सकती है, इसके लिए उसे पूरा समर्थन और छूट दी जानी चाहिये। कुछ साल पहले भारत पाकिस्तानी टेक्सटाइल उद्योग को रियायतों के लिए तैयार हो गया था लेकिन बाद में नकारात्मकता देखकर यह सहमति वापस लेनी पड़ी। सरकार यह मानने को तैयार नहीं दिखती कि पाकिस्तान पर वास्तविकता आधारित दीर्घकालीन नीति की जरूरत है। हमें उम्मीद नहीं बांधनी चाहिए कि एक दिन पाकिस्तान शत्रुतापूर्ण रवैया छोड़कर आतंकवाद का समर्थन बंद कर देगा। अमेरिका जिस तरह हर आतंकी हमले पर हमारे रुख का समर्थन करता है, हमारे पास मौका था और है कि हम पाकिस्तान को समझाएं कि आतंकवाद के पोषण के कितने गंभीर नतीजे निकल सकते हैं। हमारा ध्यान पाकिस्तान से निपटने के लिए प्रभावी उपायों की तलाश पर होना चाहिए, न कि वार्ता करने या वार्ता न करने पर। आश्चर्य की बात है कि चीन और पाकिस्तान के अहम और कठिन मोर्चे पर कूटनीतिक असफलताओं के बावजूद यूपीए सरकार कैसे अपनी पीठ ठोंकने की जुर्रत कर सकती है।
Saturday, November 16, 2013
झूठी शान के बदले जान !
आगरा के एत्मादपुर में एक बेटी पिता की झूठी आन का शिकार बन गई। पिता ने आवेश में आकर उसे ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर मार डाला। आनर किलिंग के इस मामले से फिर उजागर हुआ है कि हमारा सामाजिक ताना-बाना अभी उतना मजबूत नहीं हुआ है जो जाति और धर्म के नाम पर पड़ने वाली चोट सहन कर सके। विचारों में 21वीं सदी की उन्नति की बात कहने वाले वैश्वीकरण के युग में रहने के इस दावेदार समाज को आखिर हुआ क्या है। झूठी शान के लिए आनर किलिंग के ऐसे तमाम मामले गाहे-बगाहे सामने आ ही जाते हैं। देश की राजधानी हो या फिर कस्बे और गांव, प्यार करने वालों को कड़ी सजा दी जाती है। शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव की दुहाई देकर देश के विकास की बात करने वाले हम लोग उस समय क्यों मौन हो जाते हैं, जब हमारे बीच ही आॅनर किलिंग के नाम पर हर साल कई बेगुनाह मौत के घाट उतार दिए जाते हैं?
आनर किलिंग पर खूब हो-हल्ला मचा लेकिन हालात अब भी बदले नहीं हैं। हाल ही में हुए एक शोध से यह उजागर हुआ है कि भारत में जितने लोग आतंकवादी घटनाओं में मरते हैं, उससे कहीं ज्यादा मौतें प्यार या शारीरिक सम्बंधों की वजह से होती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की ओर से जारी वर्ष 2012 के आंकड़े भी चिंताएं पैदा करते हैं, जिनसे साफ है कि निजी दुश्मनी और संपत्ति विवाद के बाद प्यार हत्याओं की तीसरी सबसे बड़ी वजह है। यही नहीं, देश के सात राज्यों में तो प्यार ही हत्याओं की सबसे प्रमुख वजह है। इनमें 445 हत्याओं के साथ आंध्र प्रदेश पहले और 325 के आंकड़े के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। आश्चर्यजनक रूप से आॅनर किलिंग के लिए हरियाणा को कोसा जाता है लेकिन वहां प्यार के बदले महज 50 लोगों को मौत हासिल हुई, जबकि उत्तर प्रदेश में इसका साढ़े छह गुना। लेकिन ऐसी स्थितियों की वजह क्या हैं? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के सर्वेक्षण की ही बात करें तो पता चलता है कि आॅनर किलिंग के मामलों में ज्यादा वो लोग मारे गए जिन्होंने कुछ समय पूर्व ही युवावस्था की दहलीज पार की थी। कौन नहीं जानता कि उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी आता है, जिसमें युवा मन अपनी भलाई के लिए ज्यादा नहीं सोच पाता। उसका दिमाग कहीं एक जगह जाकर टिक जाता है। प्रेम-प्रसंगों की जहां तक बात है, उसे कोई सलाह भी गलत लगती है, लेकिन आज के खुले समाज में माता-पिता, भाई-बहन आपस में दिल की बात खुलकर करते हैं। आगे बढ़ने-बढ़ाने के लिए संघर्ष करते हैं। अगर समझदार, कानूनी भाषा में बालिग, होने पर सेटल होने के लिए अपने जीवनसाथी का चुनाव खुद करता या करती है, तो उस पर आपत्ति क्यों? फिर आपत्ति का यह तरीका, कि किसी को मौत के घाट उतार दिया जाए। बजाए इसके, बातचीत का रास्ता भी तो अपनाया जा सकता है। असल में हमारे समाज में बेटियों के मामले में ज्यादा आन और शान समझी जाती है। कई मामलों में देखा गया है कि बेटे ने अपने पसंद की लड़की से शादी कर ली तो उसे स्वीकार कर लिया गया लेकिन यही कदम परिवार की बेटी ने उठाया तो उसे मार डाला गया।
दरअसल, मध्ययुगीन परंपरा में जीने वाले समाज ही इस अभिशाप को ढो रहे हैं। इसके उलट, जिन समाजों का विकास हो रहा है, वे इन्हें छोड़ते जा रहे हैं। वे महिलाओं का वास्तविक सम्मान और उनको बराबरी का स्थान देने लगे हैं। उनके लिए महिलाएं पुरुष के मनोरंजन का साधन नहीं हैं। अधिकांश घटनाओं के पीछे जातिगत श्रेष्ठता का अभिमान ही मुख्य कारण दिखाई देता है। अंतर्जातीय विवाह इन बर्बरताओं के मूल में दिखते हैं। प्रगतिशील हिंदू या किसी भी दूसरे धर्म के अनुयायियों ने कभी जाति को जन्मना नहीं माना, फिर किन कारणों से यह जन्मना बन गई, इस पर भी विचार करना होगा। अपने प्रिय व्यक्ति के शव को भी जलाने में संकोच नहीं करने वाला हिंदू क्यों अभी तक इस अभिशाप को ढो रहा है? विवाह के समय क्यों वह जाति के खोल में घुस जाता है? जाति के चश्मे से देखने वाले लोग यह क्यों नहीं समझते कि परिवर्तन ही जीवन है और जड़ता मौत का प्रतीक। यह उस देश की बात है, जो मंगल अभियान की बदौलत दुनिया की अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, जो सूचना प्रौद्योगिकी की महाशक्ति है। हम बेटियों को पढ़ाने-लिखाने के बड़े-बड़े दावे किया करते हैं, उन्हें बराबर सिद्ध करने के लिए क्या-कुछ नहीं कहा करते, तो फिर इस तरह की घटनाएं कैसे संकेत देती हैं? क्या छोटे-छोटे घावों के नासूर बन जाने से पहले उसका इलाज नहीं किया जाना चाहिए? क्या हमारे घरों का माहौल ऐसा नहीं बनना चाहिए कि बच्चे अपने भविष्य के बारे में सोचें और अपना करियर बनाएं। ऐसे में यदि उन्हें अपने हिसाब से योग्य जीवनसाथी नजर आए तो हम उसे सहमति प्रदान करें या सही मार्गदर्शन कर दूसरे रास्ते पर ले जाएं। पुलिस और कानून के स्तर पर भी कड़ाई की जरूरत है, क्या यह वक्त नहीं है आॅनर किलिंग के तमाम मामलों को देखते हुए हमारे नीति-नियंताओं को ठोस कदम उठाने चाहिए? कोई तो ऐसा कानून बनना चाहिए कि सम्मान के नाम पर होने वाली ये हत्याएं तत्काल प्रभाव से रुक जाएं। इंसानियत का खून होना बंद होना ही चाहिये।
Monday, November 11, 2013
अंतरिक्ष में उम्मीदों के पंख
परम्परागत प्रतिद्वंद्वी चीन और तकनीक का महारथी जापान मीलों पीछे है, और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारत की तूती बोल रही है। पिछले पांच बरस में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने जिस तरह से 15 शानदार मिशन पूरे किए हैं, व्यावसायिक जगत में पैर रखा है, मंगल अभियान की शुरुआत की है, उससे हमें गौरवान्वित होने की बड़ी वजह हासिल हुई हैं। हालांकि एक चुनौती भी है, तीन सौ अरब डॉलर से अधिक के अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का भरोसेमंद विकल्प बनने के लिए इसरो को जीएसएलवी तकनीक पर महारत साबित करनी है, शुरुआती तौर पर हम लगभग नाकाम रहे हैं।
भारत में खगोलविद्या आर्य भट्ट-भास्कर के समय की विरासत है, उस समय भी हम आगे हुआ करते थे। लेकिन वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रम करीब 50 वर्ष पुराना है, यह 60 के दशक में शुरू हुआ था। 1981 की एक फोटो बीबीसी ने जारी की है जिसमें एप्पल सैटेलाइट को प्रक्षेपण के लिए बैलगाड़ी में ले जाया जा रहा है। ... और भारत अब उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों और अंतरिक्ष उपयोगों की अंतर्देशीय डिजाइनिंग और विकास की क्षमताएं प्राप्त कर चुका है। हमारी प्रक्षेपण क्षमताओं की विश्व में मान्यता है, यही नहीं, इसरो अन्य देशों के उपग्रहों का भी प्रक्षेपण कर दौलत का ढेर लगा रहा है। हमने अंतरिक्ष प्रयोगों का इस्तेमाल अन्य देशों से उलट, सरकार को लोगों के करीब ले जाने में किया है, विशेष रूप से उन लोगों के, जो दूरदराज के इलाकों में रहते हैं। टेली शिक्षा और टेली-चिकित्सा के जरिए सरकार लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रही है। एजुसैट से स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के तरीके में बदलाव आया है। ग्राम संसाधन केंद्रों से कृषि, बागवानी, मत्स्य पालन, मवेशी पालन, जल संसाधनों, माइक्रो फाइनेंस और व्यवसायिक प्रशिक्षण के क्षेत्रों में लोगों को जानकारी देने में आसानी हुई है। दूर-संवेदन क्षमताओं से प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सुचारू रूप से हो रहा है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की एक महत्वपूर्ण विशेषता शुरू हो रही है, भारतीय उद्योगों के साथ सहयोग का नजरिया। इसके तहत लघु, मध्यम तथा बड़े स्तर के 500 से भी ज्यादा उद्योगों से सम्बंध स्थापित किए हैं। सामान की खरीददारी, जानकारी के आदान-प्रदान अथवा तकनीकी परामर्श के जरिए ये रिश्ते बने हैं। अंतरिक्ष कार्यक्रम से ताल्लुक रखने के कारण अंतरिक्ष उद्योग में अब उन्नत प्रौद्योगिकी को अपनाने या जटिल निर्माण कार्य की सामर्थ्य आ गई है। इसरो ने तमाम लम्बी लकीरें खींच रखी हैं जो चीन जैसे हमारे दुश्मनों को परेशान कर रही हैं। यह हमारे दम का ही नतीजा और चीनी बेचैनी की वजह है कि अर्जेंटीना, आॅस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रुनेई, दारेस्सलाम, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, चीन, मिस्र मौसमी पूर्वानुमानों के लिए हमसे सहयोग ले रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए), फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, इंडोनेशिया, इजरायल, इटली, जापान, कजाकिस्तान, मॉरीशस, मंगोलिया, नार्वे, पेरू, रूस, स्वीडन, सीरिया, थाइलैंड, नीदरलैंड, उक्रेन, ब्रिटेन, अमेरिका और वेनेजुएला के साथ हमने अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग की संधि कर रखी हैं।
अब मंगल अभियान की बात करते हैं। अमेरिका जैसी महाशक्ति बधाई दे रही है लेकिन हमारे देश में ही इस बात को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं कि क्यों आर्थिक विपन्नता की स्थिति में हमने इस अभियान पर साढ़े चार सौ करोड़ की भारी-भरकम राशि खर्च की। हम गुजरात में करीब इतनी ही राशि से सरदार वल्लभ भाई पटेल की गगनचुंबी प्रतिमा स्थापना की योजना बना सकते हैं, हर साल दीपावली पर करीब तीन हजार करोड़ के पटाखे फूंक देते हैं। पर राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए खर्च राशि पर नजरें टेढ़ी करने लगते हैं, जबकि असल में, इस अभियान की सफलता आने वाले दिनों में इसरो के लिए कमाई के नए रास्ते खोल सकती है, इंटर प्लेनेटरी लांचिंग की कामयाबी इसरो को करीब पांच सौ करोड़ रुपये की कमाई करा सकती है। अंतरिक्ष लांचिंग बाजार अच्छा-खासा है जिसमें प्रौद्योगिकी विहीन तमाम देश नासा जैसी एजेंसियों की मदद से अपने सैटेलाइट लांच कराते हैं। चूंकि नासा की मदद बड़ी राशि खर्च कराती है इसलिये यह देश सस्ता विकल्प तलाशते रहते हैं। इस मायने में जापान अब तक सबसे ज्यादा फायदा उठाता रहा है। मंगल अभियान के रास्ते रॉकेट तकनीक को सफलता मिलेगी और हम तीन सौ अरब से ज्यादा के इस अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो जाएंगे। अमेरिका और जापान की जगह इसरो को देश अहमियत देने लगें, इसके लिए प्रयास किए जाने की योजना बनाई गई है। नासा के मुकाबले इसरो महज दस प्रतिशत लागत पर ही अंतरिक्ष में सैटेलाइट भेज सकता है। भारत सरकार की नजर अफ्रीका के साथ ही मध्य एशिया के उस देशों पर ज्यादा है, जहां विकास और संचार सुविधाओं के विस्तार ने उपग्रह की जरूरतें बढ़ा दी हैं। हालांकि एक नकारात्मक बिंदु भी है। इसरो की जीएसएलवी तकनीक की असफलता चुनौती बनी हुई है। लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का दमदार और भरोसे के काबिल विकल्प बनने के लिए जीएसएलवी तकनीक पर महारत सिद्ध करने की जरूरत है। समस्या की बात यह है कि 2001 से अब तक हुए इसके परीक्षणों में सिर्फ तीन ही सफल हुए हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि हम अंतरिक्ष की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहे हैं। मंगल अभियान ने उम्मीदों को पंख लगाए हैं, सटीक कदमों से लग भी रहा है कि यह उम्मीदें पूरी होकर रहेंगी। हम होंगे कामयाब एक दिन... और वो दिन अब दूर नहीं लगता।
(लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)
Saturday, November 2, 2013
दुनियाभर में दीपावली
दीपावली देशों की सीमाएं पार कर चुकी है। अप्रवासी और भारतीय मूल के नागरिकों के जरिए इस प्रमुख त्योहार ने पहले अन्य देशों में दस्तक दी और अब वहां की संस्कृति में घुलने-मिलने लगा है। आप इस पर आश्चर्य करेंगे, अमेरिका में प्रतिवर्ष दीपावली के पटाखों पर खर्च में दो सौ गुना तक वृद्धि हुई है। वहां की संसद दीपावली पर प्रस्ताव पारित करती है। इसी तरह ब्रिटेन जैसे देशों में भारतीय अब वहां के स्थानीय माहौल के मुताबिक ध्वनि प्रदूषण की चिंता नहीं किया करते बल्कि जमकर आतिशबाजी करते हैं। दिवाली के दिन त्रिनिडाड और टुबैगो में सार्वजनिक अवकाश होता है। बेशक, यह भारतीयों की बढ़ती आर्थिक और सियासी हैसियत का असर है लेकिन विशाल भारतीय बाजारों की भूमिका भी इसमें कम नहीं है, तभी तो पटाखे अमेरिका-आस्ट्रेलिया के नामी सुपरस्टोर्स में मिला करते हैं।
वो ज्यादा पुराने दिन नहीं जब विदेशों में रहने वाले हमारे भाई-बंधु संक्षिप्त-सी दीपावली मनाया करते थे। ध्वनि-वायु प्रदूषण जैसे डर उन्हें डराते थे। पटाखों के बारे में वो सोचने तक से घबराते थे। दक्षिण-पूर्व इंग्लैण्ड के हैम्पशायर की एक घटना ने तब खूब तूल पकड़ा था जब वहां के अप्रवासी भारतीय परिवार के विरुद्ध पुलिस ने महज इस आधार पर कार्रवाई कर दी थी कि उनके चलाए पटाखों से पड़ोसी का कुत्ता डर गया था। तब रक्षाबंधन पर कलाइयों पर बंधी राखियों को वह शर्ट की फुलस्लीव से छिपाते थे। अब इंग्लैण्ड के आसमान पर भी दनादन रॉकेट दागे जाते हैं। यह मामूली बात नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी के संदर्भ में भारत विश्व की नौवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अपने भौगोलिक आकार के मामले में सातवां सबसे बड़ा देश है। जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है। हाल के वर्षों में गरीबी और बेरोजगारी से सम्बन्धित मुद्दों के बावजूद हमारा देश विश्व में सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरा है। यही हमारे दम की वजह है और विदेशों में हमारे अप्रवासी और भारतीय मूल के लोगों का दबदबा बढ़ा है। आतंकवादी वारदातों में छवि खराब होने से त्रस्त पाकिस्तानी या बांग्लादेशी ऐसे खुले माहौल में नहीं जी पाते। यह भारतीय समुदाय की 'सॉफ्ट पावर' है, उनके पास नकदी है। उन्होंने विकास की कहानियां रची हैं। व्यवसाय जगत में उनका बड़ा नाम है। उनमें से तमाम लोग तो राजनीतिक हस्तियां हैं। उनका संख्याबल है जो सत्ता के पास ला सकता है और दूर भगा सकता है। उनसे सम्बन्धित देश को उम्मीदें हैं। संस्कृति का सत्ता से सीधा रिश्ता होता है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं। पूंजी के वर्तमान दौर में सत्ता बाजार के पास है और एक बहुत बड़ा बाजार भारत में है। इसी तरह की व्यावसायिक महत्वाकांक्षाओं ने अंग्रेजों को भारत का दरवाजा दिखाया था। कपास, चाय और मसालों की बेशुमार मौजूदगी ने उन्हें आकृष्ट किया था। वर्तमान बिहार के चंपारण में चंपा के जंगलों में उन्हें नील की फसल उगानी थी। भूण्डलीकरण के मौजूदा दौर में आज वह घुस तो नहीं सकते लेकिन भारत के विशाल बाजार में अपनी वस्तुओं से घुसपैठ की उनकी मंशा है और यह उनके लिए हजारों-करोड़ डॉलर की कमाई की वजह बन सकती है। भारत की सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देकर उनकी उम्मीदें बढ़ा ही दी हैं।
अरबों डॉलर की आस्ट्रेलियाई ट्रांसपोर्ट और लाजिस्टक कंपनी लिनफॉक्स के संस्थापक लिंडसे फॉक्स की बातें उस सपने को उजागर करती हैं कि भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने से आय तो बढ़ती है, रोजगार के मौके भी कई गुना बढ़ जाते हैं। अकेले आस्ट्रेलिया यदि इस व्यापार को दोगुना कर 40 अरब डॉलर तक पहुंचा लेता है तो सात प्रतिशत नए उद्योग स्थापित करने होंगे और इससे तमाम लोगों को रोजगार हासिल होगा। भारत अकेली अर्थव्यवस्था है जहां हर साल 10 करोड़ नए लोग चीजें खरीदने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह संख्या आॅस्ट्रेलिया की आबादी का पांच गुना है। इसके साथ ही देश के मध्यवर्ग की खान-पान की बदलती आदतों के कारण रेस्तरां कारोबार काफी फल-फूल रहा है, यही वजह है कि विदेशी रेस्टोरेंट चेन भारत में आएदिन अपने नए-नए प्रतिष्ठान खोल रही हैं। भारत का भोजन-सेवा बाजार 50 अरब डॉलर का है जो कुछ छोटे देशों के सालाना बजट के बराबर है। इसी वजह से चिली सरीखे देशों की कम्पनियां भी ललचा रही हैं। भारतीय बाजार में चिली की शराब और समुद्री भोजन ने अपनी जगह स्थापित कर ली है। आॅटोमोबाइल बाजार भी तमाम देशों की कम्पनियों को अपने यहां मौका दे चुका है इसीलिये तमाम विदेशी नामचीन ब्रांड भारत में आसानी से सुलभ हैं। अमेरिका और यूरोप ही नहीं, अन्य देश भी हमारे दम को सलाम कर रहे हैं। त्रिनिडाड और टुबैगो में भारतीयों की अच्छी-खासी संख्या है। वहां दीपावली पर सार्वजनिक अवकाश घोषित होता है। समूचा देश एक मनचाही उत्सवधर्मिता में डूब जाता है। यहां भी पिछले दो-तीन बरस में बहुत परिवर्तन आया है। हजारों मील दूर एक भारत-सा होता है वहां। हजारों अनिवासी भारतीय अपनी मिट्टी की गंध महसूस करने के लिए ढेरों आयोजन करते हैं। सामूहिक आतिशबाजी हुआ करती है। फिजी और मॉरीशस में भी भारतीयों की संख्या काफी है। दीपावली यहां भी खूब उत्साहित करती है। दुकानों पर महीने पहले दीपावली की सेल आरंभ हो जाती है। समाचार पत्रों में दीपावली के समाचार भरने लगते हैं। एफएम रेडियो और टेलीविजन स्टेशन दीपावली के गीत, भजन और चर्चाएं प्रसारित करते हैं। खास बात यह है कि दीपावली के लिए विदेशों में उत्साह प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। विदेशों में बसे भारतीय जहां पहले भारत आकर त्योहार मनाने को प्राथमिकता दिया करते थे, आज अपने देश में ही उल्लास और उमंग का आनंद ले रहे हैं। दीपों का यह त्योहार समूचे विश्व में फैल रहा है तो यह भी तय है कि इसके उद्देश्य और मनाने की वजह का प्रचार भी हो रहा होगा, बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश तो पूरी दुनिया में आखिरकार फैलना ही चाहिये।
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