Monday, November 11, 2013

अंतरिक्ष में उम्मीदों के पंख

परम्परागत प्रतिद्वंद्वी चीन और तकनीक का महारथी जापान मीलों पीछे है, और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारत की तूती बोल रही है। पिछले पांच बरस में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने जिस तरह से 15 शानदार मिशन पूरे किए हैं, व्यावसायिक जगत में पैर रखा है, मंगल अभियान की शुरुआत की है, उससे हमें गौरवान्वित होने की बड़ी वजह हासिल हुई हैं। हालांकि एक चुनौती भी है, तीन सौ अरब डॉलर से अधिक के अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का भरोसेमंद विकल्प बनने के लिए इसरो को जीएसएलवी तकनीक पर महारत साबित करनी है, शुरुआती तौर पर हम लगभग नाकाम रहे हैं। भारत में खगोलविद्या आर्य भट्ट-भास्कर के समय की विरासत है, उस समय भी हम आगे हुआ करते थे। लेकिन वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रम करीब 50 वर्ष पुराना है, यह 60 के दशक में शुरू हुआ था। 1981 की एक फोटो बीबीसी ने जारी की है जिसमें एप्पल सैटेलाइट को प्रक्षेपण के लिए बैलगाड़ी में ले जाया जा रहा है। ... और भारत अब उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों और अंतरिक्ष उपयोगों की अंतर्देशीय डिजाइनिंग और विकास की क्षमताएं प्राप्त कर चुका है। हमारी प्रक्षेपण क्षमताओं की विश्व में मान्यता है, यही नहीं, इसरो अन्य देशों के उपग्रहों का भी प्रक्षेपण कर दौलत का ढेर लगा रहा है। हमने अंतरिक्ष प्रयोगों का इस्तेमाल अन्य देशों से उलट, सरकार को लोगों के करीब ले जाने में किया है, विशेष रूप से उन लोगों के, जो दूरदराज के इलाकों में रहते हैं। टेली शिक्षा और टेली-चिकित्सा के जरिए सरकार लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रही है। एजुसैट से स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के तरीके में बदलाव आया है। ग्राम संसाधन केंद्रों से कृषि, बागवानी, मत्स्य पालन, मवेशी पालन, जल संसाधनों, माइक्रो फाइनेंस और व्यवसायिक प्रशिक्षण के क्षेत्रों में लोगों को जानकारी देने में आसानी हुई है। दूर-संवेदन क्षमताओं से प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सुचारू रूप से हो रहा है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की एक महत्वपूर्ण विशेषता शुरू हो रही है, भारतीय उद्योगों के साथ सहयोग का नजरिया। इसके तहत लघु, मध्यम तथा बड़े स्तर के 500 से भी ज्यादा उद्योगों से सम्बंध स्थापित किए हैं। सामान की खरीददारी, जानकारी के आदान-प्रदान अथवा तकनीकी परामर्श के जरिए ये रिश्ते बने हैं। अंतरिक्ष कार्यक्रम से ताल्लुक रखने के कारण अंतरिक्ष उद्योग में अब उन्नत प्रौद्योगिकी को अपनाने या जटिल निर्माण कार्य की सामर्थ्य आ गई है। इसरो ने तमाम लम्बी लकीरें खींच रखी हैं जो चीन जैसे हमारे दुश्मनों को परेशान कर रही हैं। यह हमारे दम का ही नतीजा और चीनी बेचैनी की वजह है कि अर्जेंटीना, आॅस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रुनेई, दारेस्सलाम, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, चीन, मिस्र मौसमी पूर्वानुमानों के लिए हमसे सहयोग ले रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए), फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, इंडोनेशिया, इजरायल, इटली, जापान, कजाकिस्तान, मॉरीशस, मंगोलिया, नार्वे, पेरू, रूस, स्वीडन, सीरिया, थाइलैंड, नीदरलैंड, उक्रेन, ब्रिटेन, अमेरिका और वेनेजुएला के साथ हमने अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोग की संधि कर रखी हैं। अब मंगल अभियान की बात करते हैं। अमेरिका जैसी महाशक्ति बधाई दे रही है लेकिन हमारे देश में ही इस बात को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं कि क्यों आर्थिक विपन्नता की स्थिति में हमने इस अभियान पर साढ़े चार सौ करोड़ की भारी-भरकम राशि खर्च की। हम गुजरात में करीब इतनी ही राशि से सरदार वल्लभ भाई पटेल की गगनचुंबी प्रतिमा स्थापना की योजना बना सकते हैं, हर साल दीपावली पर करीब तीन हजार करोड़ के पटाखे फूंक देते हैं। पर राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए खर्च राशि पर नजरें टेढ़ी करने लगते हैं, जबकि असल में, इस अभियान की सफलता आने वाले दिनों में इसरो के लिए कमाई के नए रास्ते खोल सकती है, इंटर प्लेनेटरी लांचिंग की कामयाबी इसरो को करीब पांच सौ करोड़ रुपये की कमाई करा सकती है। अंतरिक्ष लांचिंग बाजार अच्छा-खासा है जिसमें प्रौद्योगिकी विहीन तमाम देश नासा जैसी एजेंसियों की मदद से अपने सैटेलाइट लांच कराते हैं। चूंकि नासा की मदद बड़ी राशि खर्च कराती है इसलिये यह देश सस्ता विकल्प तलाशते रहते हैं। इस मायने में जापान अब तक सबसे ज्यादा फायदा उठाता रहा है। मंगल अभियान के रास्ते रॉकेट तकनीक को सफलता मिलेगी और हम तीन सौ अरब से ज्यादा के इस अंतरिक्ष लांचिंग बाजार में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हो जाएंगे। अमेरिका और जापान की जगह इसरो को देश अहमियत देने लगें, इसके लिए प्रयास किए जाने की योजना बनाई गई है। नासा के मुकाबले इसरो महज दस प्रतिशत लागत पर ही अंतरिक्ष में सैटेलाइट भेज सकता है। भारत सरकार की नजर अफ्रीका के साथ ही मध्य एशिया के उस देशों पर ज्यादा है, जहां विकास और संचार सुविधाओं के विस्तार ने उपग्रह की जरूरतें बढ़ा दी हैं। हालांकि एक नकारात्मक बिंदु भी है। इसरो की जीएसएलवी तकनीक की असफलता चुनौती बनी हुई है। लांचिंग बाजार में भारी उपग्रह लांचिंग का दमदार और भरोसे के काबिल विकल्प बनने के लिए जीएसएलवी तकनीक पर महारत सिद्ध करने की जरूरत है। समस्या की बात यह है कि 2001 से अब तक हुए इसके परीक्षणों में सिर्फ तीन ही सफल हुए हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि हम अंतरिक्ष की महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहे हैं। मंगल अभियान ने उम्मीदों को पंख लगाए हैं, सटीक कदमों से लग भी रहा है कि यह उम्मीदें पूरी होकर रहेंगी। हम होंगे कामयाब एक दिन... और वो दिन अब दूर नहीं लगता। (लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)

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