Sunday, November 17, 2013

चीन-पाक के मोर्चे पर खाली हाथ

मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल भी लगभग समाप्ति की ओर है। चुनावों की तैयारियां हैं, सियासी माहौल गरमा चुका है। नेताओं की रैलियों के दौर चल रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप और वोटरों को लुभाने के स्टंट भी चरम पर बढ़ रहे हैं। मौका समीक्षा का आ रहा है, सरकार कठघरे में है। पूछा जा रहा है कि दो कार्यकाल में यूपीए सरकार के हिस्से में कितनी उपलब्धियां आई हैं। भारत की आर्थिक स्थिति तेजी से गिरती जा रही है। सोचा जाता था कि भारत की विकास दर चीन के बराबर होगी या कम से कम आठ प्रतिशत तो अवश्य होगी परंतु आज यह गिरकर महज चार प्रतिशत रह गई है। खैर, समस्याएं क्या हैं और उनके कितने हल हुए, यह दीगर है। चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ ने सिद्ध किया है कि हम विदेश नीति के मोर्चे पर ढंग से वार नहीं कर पा रहे, बल्कि रक्षात्मक हुए हैं। चीन-पाकिस्तान के मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के मामले में हमारी उपलब्धियां शून्य हैं। यह हाल तब है जबकि हमारे प्रधानमंत्री ने 10 साल के कार्यकाल में हवाई जहाज से 6,20,000 मील की उड़ान भरी है और 72 बार सरकारी दौरे पर विदेश गए हैं। सबसे पहले चीन के साथ सम्बंधों की बात करें। चीन हाल के दिनों में हमलावर हुआ है और घुसपैठ से भी नहीं हिचक रहा। मनमोहन ने बीजिंग में कहा था कि, भारत और चीन हाथ मिलाते हैं तो दुनिया उत्सुकतापूर्वक देखती है लेकिन चीन जिस तरह से भारत की अवहेलना कर रहा है, उससे लगता है कि वह भारत को दूर-दूर तक अपना प्रतिस्पर्धी नहीं मानता। चीन-भारत शिखर वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच बॉर्डर डिफेंंस कोआॅपरेशन एग्रीमेंट हुआ जिसका अर्थ है चीन और भारत के फौजी सीमा पर आपस में नहीं लड़ेंगे और न उस तरह की घटना होगी जैसी कुछ माह पूर्व लद्दाख में हुई थी, जहां चीनी फौजी करीब तीन हफ्तों तक भारत की सीमा मेंं डटे रहे थे। सवाल यह है कि हम उत्साहित क्यों हैं? कुछ दशकों में दोनों देशों के सम्बंधों का विश्लेषण किया जाए तो चीन की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट हो जाएगा। वह सदैव भारत के साथ मधुर सम्बंध बनाने की बात करता रहा है परन्तु चुपके से हमारी जमीन हड़पने से भी नहीं हिचकता। उसने चार हजार किमी भूमि हड़पी हुई है। कुछ महीने पहले तक वह अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न हिस्सा मानता था लेकिन अब कहने से नहीं हिचकता कि एक दलाई लामा का जन्म चूंकि अरुणाचल प्रदेश में हुआ था इसलिये यह प्रदेश भी चीन का ही हिस्सा है। चीन जाने के इच्छुक लोगों को वह नत्थी वीजा देता है, मनमोहन के कहने पर उसने इस मसले पर अपना रुख बदलने से इंकार कर दिया। उसका तर्क है कि अरुणाचल चीन का हिस्सा है और यहां रहने वाले उसके नागरिक, अपने नागरिकों को चीन जाने के लिए वीजा की कोई जरूरत ही नहीं है। यह शत्रुतापूर्ण रवैये का ही उदाहरण है कि चीन भारत को चारों ओर से घेर रहा है, भारत के कट्टर शत्रु पाकिस्तान को वह हर तरह की आर्थिक और सामरिक मदद दे रहा है। पाकिस्तान के ग्वादर बन्दरगाह को विकसित करने का पूरा खर्च भी उठा रहा है। म्यांमार और श्रीलंका में भी बन्दरगाहों का जाल बिछा रहा है। भारत को नीचा दिखाने के लिए तमिल विद्रोहियों के साथ युद्ध में क्षतिग्रस्त हुए श्रीलंका के पुलों और सड़कों की मरम्मत करा रहा है। तमाम ढांचागत परियोजनाओं में मदद के जरिए वह श्रीलंका को सन्देश दे रहा है कि वही उसका असली मित्र है, भारत नहीं। पाकिस्तान के मोर्चे पर भी मनमोहन का यह दूसरा कार्यकाल कुछ उम्मीद जगाने में नाकाम रहा। भारत ने कोशिश की कि पाकिस्तान उग्रवाद का समर्थन बंद करे और सकारात्मक सम्बंधों की दिशा में आगे बढ़े। इसके लिए समग्र वार्ता की योजना तैयार की गई, जिसमें कश्मीर, व्यापार और मछुआरों-कैदियों की रिहाई जैसे मानवीय मुद्दों को भी शामिल किया गया। आशा थी कि पाकिस्तान व्यापार, कृषि, उद्योग, यात्रा में सुगमता जैसे मामलों में दिलचस्पी लेगा और भारत के प्रति शत्रुता की उसकी भावना कम होने लगेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। भारत को व्यापार में तरजीह का दर्जा देने के नाम पर वह टालमटोली कर रहा है। आर्थिक स्थिति जबर्दस्त ढंग से गड़बड़ाने की वजह से वह व्यापार बढ़ाना तो चाहता है लेकिन अपनी शर्तों पर। उसे लगता है कि वह आंशिक व्यापार के साथ नकारात्मक और आक्रामक नीतियों को भी जारी रख सकता है। उदाहरण देता है चीन का, जिसमें दोनों देशों के मध्य व्यापार और तनाव के साथ-साथ सीमा पर चीनी आक्रामकता का भी सह-अस्तित्व है। मनमोहन सरकार की नीतियों और वार्ता की व्यग्रता से लगता है कि वह पाकिस्तान के रवैये को स्वीकार कर रही है। पाकिस्तान में अभी तक आतंकी ढांचा मौजूद है। हम रक्षात्मक हैं, यह भूल रहे हैं कि रक्षात्मक रुख से युद्ध नहीं जीते जाते। हमारे लचर ढर्रे से लाभ में आतंकी रहते हैं और इसका खामियाजा जनता को भुगतना होता है। हमारी विदेश नीति निर्धारकों का एक तबका यह भी मानता है कि सेना और कट्टरपंथियों को काबू में करके पाकिस्तान सरकार शांति का माहौल बना सकती है, इसके लिए उसे पूरा समर्थन और छूट दी जानी चाहिये। कुछ साल पहले भारत पाकिस्तानी टेक्सटाइल उद्योग को रियायतों के लिए तैयार हो गया था लेकिन बाद में नकारात्मकता देखकर यह सहमति वापस लेनी पड़ी। सरकार यह मानने को तैयार नहीं दिखती कि पाकिस्तान पर वास्तविकता आधारित दीर्घकालीन नीति की जरूरत है। हमें उम्मीद नहीं बांधनी चाहिए कि एक दिन पाकिस्तान शत्रुतापूर्ण रवैया छोड़कर आतंकवाद का समर्थन बंद कर देगा। अमेरिका जिस तरह हर आतंकी हमले पर हमारे रुख का समर्थन करता है, हमारे पास मौका था और है कि हम पाकिस्तान को समझाएं कि आतंकवाद के पोषण के कितने गंभीर नतीजे निकल सकते हैं। हमारा ध्यान पाकिस्तान से निपटने के लिए प्रभावी उपायों की तलाश पर होना चाहिए, न कि वार्ता करने या वार्ता न करने पर। आश्चर्य की बात है कि चीन और पाकिस्तान के अहम और कठिन मोर्चे पर कूटनीतिक असफलताओं के बावजूद यूपीए सरकार कैसे अपनी पीठ ठोंकने की जुर्रत कर सकती है।

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