Monday, February 17, 2014
अमर कांत का परलोक गमन
हिंदी जगत के लिए बेहद दु:खभरी खबर है कि उसके सशक्त सिपाहियों में से एक अमर कांत नहीं रहे। अमर कांत क्या थे, हिंदी साहित्य में वो किस योगदान के लिए जाने जाते हैं, यह प्रश्न भी उनका कद बौना करने की कोशिश ही माने जाएंगे। वह जिस स्थान पर थे, वहां कभी मुंशी प्रेमचंद रहे थे, वो साहित्य के ऐसे चितेरे थे जिनका लेखन यथार्थ के धरातल पर था। हालांकि वह साहित्य जगत की राजनीति के शिकार भी बने, राजकमल प्रकाशन से 2003 में पहली बार प्रकाशित उनके उपन्यास... इन्हीं हथियारों से... को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला लेकिन प्रतीत ऐसा हुआ जैसे मजबूरीवश दिया गया है। महानता ही थी इस युगपुरुष की, कि उन्होंने इस राजनीति को बेहद सहजता से स्वीकार किया।
अमर कांत को जानने के लिए इसी उपन्यास का सहारा लेना न्यायोचित होगा। यह उपन्यास सन 1942 के आंदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की घटनाओं पर केंद्रित है जहां आम जनता ने लगभग एक सप्ताह तक अंग्रेजी शासन को मिटाकर अपना राज स्थापित किया था। वह इतने संवेदनशील थे, कि उपन्यास में आजादी के बाद की घटनाओं को भी शामिल किया ताकि आजादी के लिए लड़ने वाली जनता और कांग्रेस पार्टी के रिश्तों का संज्ञान लेकर पहली सत्ता की गलतियां भी इंगित की जा सकें। उनकी कोशिश समझाने की थी कि दुनिया के सबसे परिपक्व स्वतंत्रता आंदोलन की आखिर ऐसी परिणति क्यों हुई। एक ऐतिहासिक घटना से जुड़े होने के कारण इसमें कथा की अनुपस्थिति की जो आशंका थी, उसे उन्होंने खूबसूरती के साथ विभिन्न पात्रों की निजी जिंदगी में आए उलटफेर के साथ जोड़कर औत्सुक्य का तत्व पैदा किया है, जो कहीं से भी कथा से अलग पैबंद की तरह नहीं लगता । लेकिन उस घटना के ऐतिहासिक-सामाजिक महत्व पर गंभीर सोच विचार का आमंत्रण भी दिया। 1942 का आंदोलन कांग्रेसी नेतृत्व की हदों के पार चला गया था और उसमें तरह-तरह के आंदोलनकारी शरीक हो गए थे। और सन 42 ही क्यों, कांग्रेस नेतृत्व में चले स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसात्मक होने के बावजूद उसकी शक्ति को समझने की एक महत्वपूर्ण कोशिश के बतौर भी इस उपन्यास को देखा जा सकता है। बलिया में आजादी के आंदोलन के गौरवशाली इतिहास का बयान करने के बाद वे गांधी की रणनीति की व्याख्या करते हैं। कहते हैं- जहां तक अहिंसा का सवाल है, आज के जमाने में उसकी उपयोगिता जनता के व्यापक हितों के लिए इस्तेमाल किए जाने से ही सिद्ध हो सकती है। शोषक इसका इस्तेमाल अपने पक्ष में कर सकते हैं। इससे सावधान रहने की जरूरत है। अमर कांत ने समझाया कि अहिंसा, कायरता और पलायन का पर्याय नहीं है। गांधीजी ने स्वातंत्र्य आंदोलन और स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए इसका इस्तेमाल न किया होता तो इसकी विशेष उपयोगिता और सार्थकता न होती।
कहानीकार के रूप में उनकी ख्याति सन 1955 में 'डिप्टी कलेक्टरी' कहानी से हुई। अमरकांत के स्वभाव के संबंध में रवीन्द्र कालिया लिखते हैं- वे अत्यन्त संकोची व्यक्ति थे। यहां तक कि अपना हक मांगने में भी संकोच कर जाते। प्रारम्भिक पुस्तकें उनके दोस्तों ने ही प्रकाशित की थीं। एक बार बेकारी के दिनों में उन्हें पैसे की सख्त जरूरत थी, पत्नी मरणासन्न थीं। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रकाशक से ही सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। बच्चे छोटे थे। अमर कांत ने अत्यन्त संकोच, मजबूरी और असमर्थता में मित्र प्रकाशक से रॉयल्टी के कुछ रुपये मांगे मगर उन्हें दो टूक जवाब मिला, 'पैसे नहीं हैं।' उन्होंने सब्र कर लिया और एक बेसहारा मनुष्य जितनी मुसीबतें झेल सकता था, चुपचाप झेल लीं। 1954 में अमर कांत को हृदय रोग हो गया और उन्होंने जीवन में सख्त अनुशासन अपना लिया। लड़खड़ाती जिंदगी में अनियमितता नहीं आने दी। उनकी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन की पक्षधरता का चित्रण मिलता है। वे भाषा की सृजनात्मकता के प्रति सचेत थे। उन्होंने काशीनाथ सिंह से कहा था- बाबू साब, आप लोग साहित्य में किस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं? भाषा, साहित्य और समाज के प्रति आपका क्या कोई दायित्व नहीं? अगर आप लेखक कहलाए जाना चाहते हैं तो कृपा करके सृजनशील भाषा का ही प्रयोग करें। अपनी रचनाओं में अमर कांत व्यंग्य का खूब प्रयोग करते थे। 'आत्म कथ्य' में उन्होंने लिखा- उन दिनों वह मच्छर रोड स्थित 'मच्छर भवन ' में रहता था। सड़क और मकान का यह नूतन और मौलिक नामकरण उसकी एक बहन की शादी के निमंत्रण पत्र पर छपा था। उनका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन म्युनिसिपैलिटी पर व्यंग्य करना था अथवा रिश्तेदारों को मच्छरदानी के साथ आने का निमंत्रण। उनकी कहानियों में उपमा के भी अनूठे प्रयोग मिलते हैं, जैसे, 'वह लंगर की तरह कूद पड़ता', 'बहस में वह इस तरह भाग लेने लगा, जैसे भादों की अंधेरी रात में कुत्ते भौंकते हैं', 'उसने कौए की भांति सिर घुमाकर शंका से दोनों ओर देखा। आकाश एक स्वच्छ नीले तंबू की तरह तना था। लक्ष्मी का मुंह हमेशा एक कुल्हड़ की तरह फूला रहता है।''दिलीप का प्यार फागुन के अंधड़ की तरह बह रहा था' आदि- आदि। यशपाल ने लिखा था- अमर कांत वो साहित्यकार हैं जो जीएंगे तो सम्मान पाएंगे और जीवन के पश्चात भी उन्हें भुलाया नहीं जा सकेगा। सच से ओतप्रोत है उनका कथन।
Saturday, February 15, 2014
दिल्ली का चक्रव्यूह
महज 49 दिनों की सत्ता के बाद अरविंद केजरीवाल ने पद छोड़ दिया। अब बातें कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप के कितने भी सिलसिले चलें, लेकिन दिल्ली की सियासत अब एक चक्रव्यूह की तरह है। केजरीवाल ने अपने छोटे से शासनकाल में दिल्ली की जनता को वो सपने दिखा दिए हैं जो पहले किसी मुख्यमंत्री ने नहीं दिखाए, वह लड़ते रहे तो लोगों को लगा कि वह उनके लिए लड़ रहे हैं, सस्ती बिजली, भरपूर पानी और जन लोकपाल के उनके आधे-अधूरे मुद्दे आने वाली किसी भी सत्ता के लिए मुश्किलों का सबब बनेंगे, यह तय है। फिर चुनाव हुए और वह सत्ता तक नहीं पहुंच पाए तो दिल्ली की जनता नए सीएम में केजरीवाल की छवि तलाशेगी। उसे लालबत्ती पसंद नहीं आएगी, जनप्रतिनिधि हमेशा साथ रहे, यह आकांक्षा नए नेतृत्व को जीने नहीं देगी। सबसे ज्यादा मुश्किल तो भारतीय जनता पार्टी के लिए है। अकेले सबसे बड़े दल के नाते फिलहाल उससे सरकार बनाने की अपेक्षा की जाएगी, वह बनाती है तो मुश्किल और नहीं बनाती तो मुश्किल, यानी इधर कुआं-उधर खाई।
केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति का बिल्कुल अलग एपीसोड है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि छोटी-सी उम्र की पार्टी सत्ता तक पहुंच जाए, सभी स्थापित दलों को चकरघिन्नी बना डाले और बिना देर किए इस्तीफा देकर भी जीत की मुद्रा में नजर आए। आईआईटी से इंजीनियरिंग स्नातक अरविंद ने यह करके दिखाया है। उन्होंने लोगों की उस नब्ज पर हाथ रखा जिसे बाकी दल नजरअंदाज करते रहे थे। केजरीवाल ने सड़क पर आम जनता की शिकायतें सुनने के लिए आम दरबार लगाने की कोशिश की और इसमें अफसरों के साथ एक मंत्री को भी बैठाने का निर्णय लिया। हालांकि भारी भीड़ के चलते यह योजना अटक गई परंतु जनता को उनकी नीयत पर कोई संदेह नहीं हुआ। जनता के बीच उनकी सरकार का शपथ ग्रहण समारोह, रिश्वतखोरों को पकड़ने के लिए हेल्पलाइन, 26 जनवरी की परेड में आम आदमी की सरकार का आम आदमी की ही तरह शामिल होना, जनशिकायतों पर तत्काल संज्ञान, दिल्ली सरकार के मंत्रियों का किसी भी समय सड़कों पर आम लोगों के बीच घूमते-फिरते रहना तथा जनता की शिकायतों को व्यक्तिगत रूप से सुनना-समझना तथा उनका समाधान करना जैसे और कई कदम नि:संदेह लोकतांत्रिक व्यवस्था में बड़ी बात थे। जन लोकपाल के जिस मुद्दे पर केजरीवाल ने त्यागपत्र दिया, वो उनका मूल मुद्दा था। समाजसेवी अन्ना हजारे के जिस आंदोलन को केजरीवाल के राजनीतिक जन्म की वजह माना जाता है, वह भी जन लोकपाल के लिए ही था। लोकपाल को हजारे के समर्थन के बाद भी केजरीवाल अड़े हुए थे, वह जन लोकपाल चाहते थे और अगर दिल्ली में, वह पीछे हट जाते तो छीछालेदार का जवाब देना मुश्किल हो जाता। उप राज्यपाल नसीब जंग ने विधेयक के लिए जो प्रक्रिया बताई, कहा कि केंद्र की मंजूरी के बगैर इसे पारित नहीं किया जा सकता, केजरीवाल उस प्रक्रिया को भी पक्षपातपूर्ण सिद्ध करने में कामयाब रहे। उनका तर्क था कि पूर्ववर्ती शीला दीक्षित सरकार विद्युत सुधार के विधेयकों को केंद्र की मंजूरी के बिना पारित कर चुकी है। कांग्रेस और भाजपा ने जिस तरह एकजुट होकर विधानसभा में नसीब जंग के पक्ष में हो-हल्ला किया, उससे केजरीवाल की इस बात को बल मिला कि दोनों दल उन्हें सत्ता में देखना नहीं चाहते और दोनों की मिलीभगत है।
राज्यों के मामले में केंद्र के हस्तक्षेप का विरोध करने वाली भाजपा से सवाल पूछा जाना चाहिये कि क्यों वह दिल्ली में अपने इस ज्वलंत मुद्दे से भटककर कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई। राजनीतिक प्रेक्षक मान रहे हैं कि प्राकृतिक गैस के मुद्दे पर रिलायंस और मुकेश अंबानी के विरुद्ध जंग भी केजरीवाल के प्रति जनता में सहानुभूति का विषय बन सकती है। कांग्रेस और भाजपा यहां भी यह जवाब देने में मुश्किल महसूस करेंगी कि क्यों उन्होंने एक उद्योगपति को बचाने के लिए सरकार गिरवा दी। केजरीवाल के साथ कई और प्लस प्वॉइंट्स भी हैं। वह अपने वोटरों के बीच गंभीरता से लिये जाते हैं, उन्हें ईमानदार मानने में किसी को हिचक नहीं होती क्योंकि वे आयकर विभाग की बड़ी नौकरी छोड़कर आए थे, वह चाहते तो वहीं नोटों के ढेर लगा सकते थे। अब तक इसी इतिहास ने उन्हें लोगों के बीच स्वीकार्य और विश्वसनीय बनाया है। सूचना अधिकार से लेकर बिजली, साफ-सफाई, राशन तथा अन्य कई क्षेत्रों में अपनी परिवर्तन नामक संस्था के जरिए काम ने लोगों को उन पर भरोसा करने की वजह दी थी। केजरीवाल दिल्ली के लिए नए नहीं थे बल्कि तकरीबन 15 साल से सक्रिय थे। दिल्ली की उन तमाम झुग्गियों से उनका रिश्ता बरसों पुराना है जहां नेता सिर्फ चुनाव के समय ही जाया करते हैं। कुछ मुश्किलें भी हैं जो आने वाले लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें हल करनी होंगी। जिस तरह से उनकी पार्टी देशभर में अपने विस्तार की बात कर रही है, उसके लिए जरूरी है कि हर राज्य का सक्षम प्रतिनिधित्व सामने आए यानी पार्टी सिर्फ केजरीवाल के भरोसे न रहे। पूरे देश में वह मात्र केजरीवाल के सहारे रह भी नहीं सकती। बहरहाल, एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इस नवोदित राजनीतिक पार्टी ने न केवल देश की जनता बल्कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समक्ष ऐसे प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश की है जिससे भारतीय राजनीति में परिवर्तन की एक नई आस जगी है। कल तक सत्ता को आम जनता पर राज करने का साधन समझने वाले नेता अब सड़कों पर घूमते-फिरते, आम लोगों के बीच उठते-बैठते, बातें करते तथा उनका दु:ख-दर्द सुनते दिखाई देने लगे हैं। अब इसे 'केजरीवाल इफेक्ट' कहें या पैरों के नीचे से जमीन खिसकने का भय, देश के लोगों के लिए तो यह एक शुभ संकेत ही है।
Wednesday, February 5, 2014
नई चुनौतियों के बीच सत्या
यह अच्छी खबर है। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनी माइक्रोसॉफ्ट की कमान सत्य नारायण नडेला संभालेंगे। यहां पिछले 22 साल से काम कर रहे 46 वर्षीय नडेला की नियुक्ति इस मामले में भी अहम है कि कंपनी के सह-संस्थापक बिल गेट्स ने संस्तुति की थी और वह खुद नए मुख्य कार्यकारी अधिकारी सत्या के सलाहकार होंगे। ऐसे समय में जबकि पूरी दुनिया कंप्यूटर सॉफ्टवेयरों पर आश्रित होती जा रही है, सत्या के सामने चुनौती होगी कि वह करीब एक लाख 30 हजार कर्मचारियों की इस कंपनी का सॉफ्टवेयर बाजार पर दबदबा कायम रखें। हालांकि रास्ते इतने आसान नहीं। उन्हें ऐसे वक्त में जिम्मेदारी मिली है जबकि कंपनी प्रतिस्पर्धा में रहने के लिए संघर्ष कर रही है। बेशुमार खर्च करने के बावजूद कंपनी टैबलेट और सर्च इंजन जैसे नए क्षेत्रों में कुछ खास हासिल नहीं कर पा रही है। उसका सर्च इंजन बिंग कामयाब नहीं रहा है, जिसकी जिम्मेदारी नडेला के ही पास थी। इसके साथ ही, माइक्रोसॉफ्ट की जटिलता भी अपने-आप में चुनौती है। वह जोखिम न उठाने की अपनी नीति की वजह से हर नए मोर्चे पर मात खा रही है। निर्णय लेने में बिल गेट्स और अपने पूर्ववर्ती स्टीव बामर के हस्तक्षेप भी उनकी मुश्किलें बढ़ाएंगे। उन्हें तय करना होगा कि कंपनी को टेक्नोलॉजी के हर क्षेत्र में आगे रहने का बामर का विजन ही लेकर चलना है या उन क्षेत्रों में बढ़ना है, जिनमें वह मजबूत है। दूसरे विकल्प में दिक्कत यह है कि माइक्रोसॉफ्ट का दबदबा ऐसे बाजार में है जिसका आकार निरंतर कम हो रहा है। वह आॅपरेटिंग सिस्टम विंडोज की मास्टर है पर यह अब परंपरागत पीसी यानी पर्सनल कंप्यूटरों और लैपटॉप बाजार तक सीमित है और स्मार्टफोन, टैबलेट्स जैसी नई डिवाइसों के बमुश्किल 15 फीसदी हिस्से में इसका उपयोग होता है। कंपनी के मोबाइल, टैबलेट और मोबाइल विंडोज सफल नहीं रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता बाजार में उसे मुख्य रूप से गूगल, एप्पल, अमेजन से चुनौतियां मिल रही हैं जबकि औद्योगिक उपभोक्ता जगत में एचपी, आईबीएम और ओरेकल जैसी पुरानी प्रतिद्वंद्वी अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रही हैं। बहरहाल, सत्या के भारत में जन्मे होने की वजह से हम भारतीय खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह भारतीयों के हर क्षेत्र में बढ़ते दबदबे का सबसे नया उदाहरण है। सूचना प्रौद्योगिकी के उस जगत में वह नई जिम्मेदारी के साथ सामने आए हैं जिसमें भारतीयों को सर्वश्रेष्ठ माना जा चुका है। उनके पहले वक्तव्य का जिक्र सामयिक होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि मेरी पहचान मेरी जिज्ञासा और सीखने की उत्कंठा है। बेशक, इसी विशेषता की वजह से वह कामयाब भी होंगे। गेट्स ने यह कहकर उनका उत्साहवर्धन किया है, परिवर्तन के इस दौर में माइक्रोसॉफ्ट का नेतृत्व करने के लिए सत्या नडेला से बेहतर कोई और व्यक्ति नहीं हो सकता। रही चुनौतियों की बात तो हम भारतीय इनका सामने करने से डरते नहीं हैं।
Monday, January 27, 2014
मील का एक पत्थर
यह मानवाधिकारों की जीत है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 15 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। बेशक, यह समय की मांग है। मानवाधिकार संरक्षण के लिए जिस तरह दुनियाभर में तेज अभियान चल रहे हैं, सजा के नए मायने सामने आ रहे हैं, उसमें यह फैसला मील का पत्थर सिद्ध होना तय है। जिस देश में अपराध और सजा में औसतन साढ़े 11 वर्ष का फासला हो जहां निचले कोर्ट से फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद से राष्ट्रपति के स्तर से दया याचिका निस्तारण का समय तकरीबन छह साल हो, वहां जेल में निरुद्ध व्यक्ति की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है।
भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शुमार है जहां आज भी 'रेयरेस्ट आॅफ द रेयर' मामले में फांसी की सजा दी जाती है। पिछले साल मुंबई हमलों के दोषी अजमल कसाब और संसद पर हमले की योजना बनाने वाले अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया गया तो आठ साल बाद भारत में किसी को फांसी देने के इस फैसले ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को सकते में डाल दिया। ऐसी स्थिति में शीर्ष कोर्ट का फैसला सकारात्मक संकेत दे रहा है। कोर्ट ने फांसी को उम्रकैद में बदलने के पांच आधार दिए हैं। पहला देरी। दूसरा पागलपन। तीसरा जिस फैसले के आधार पर उसे दोषी माना गया है, वह फैसला गलत घोषित हो जाए। चौथा कैदी को एकांतवास मे रखा जाना और पांचवां प्रक्रियात्मक खामी रह जाना। हालांकि कोर्ट ने कहा है कि फांसी माफी की याचिका पर विचार करते समय देरी के कारण पर भी विचार किया जाएगा। अगर अनुचित और अतार्किक देरी हुई होगी तो फांसी उम्रकैद में बदली जा सकती है। कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या भारत फांसी की सजा को अलविदा कहने को तैयार हो रहा है। मानवाधिकारवादी मौत की सजा पाए लोगों पर इस आधार पर रहम की वकालत करते हैं कि वह सजा सुनाए जाने और मिलने के बीच के समय में रोजाना मानसिक मौत मरा करते हैं। दो वर्ष पूर्व अमेरिकी इलिनॉइस यूनिवर्सिटी ने एक शोध के निष्कर्ष सार्वजनिक किए थे, इनमें सजा की प्रतीक्षा में शरीर में आने वाले बदलावों का जिक्र किया गया था। शोध के तहत मौत की सजा वाले जघन्य अपराध में निरुद्ध एक व्यक्ति से कहा गया कि एक सप्ताह बाद उसे सांप से कटवाकर मौत की सजा दी जाएगी। इस सप्ताह के बाद उसे आंखों में पट्टी बांधकर ले जाया गया, उसे प्लास्टिक के सांप से कटवाने का उपक्रम किया गया तो उसकी मौत हो गई। निष्कर्ष यह था कि बुरा होने की आशंकाएं शरीर में ऐसे नकारात्मक विचार पैदा कर देती हैं जो विष का रूप धर लेते हैं। इस व्यक्ति के पोस्टमार्टम में भी यही विष पाया गया। विष विज्ञान के ही एक अन्य अध्ययन के अनुसार, तनाव जनित स्थितियों में शरीर में बनने वाले रसायन विष के समान घातक रूप दिखाने में सक्षम होते हैं। एसिडिटी अपने चरम में इतनी तीव्र प्रभाव वाली हो जाती है कि कागज में छेद कर दे। कहने का तात्पर्य यह है कि सजा के इंतजार में व्यक्ति जिन बुरे मानसिक हालात से गुजरता है, वह भी मृत्यु की सजा से कम नहीं हुआ करते।
सुप्रीम कोर्ट ने भी दया याचिकाओं के निपटारे मे देरी और दोषियों के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के आधार पर फांसी को उम्रकैद में बदला है। मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में मिला माफी देने का अधिकार संवैधानिक दायित्व है। उनके दया याचिका निपटाने की कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती लेकिन अगर दोषी दया याचिका दाखिल करता है तो प्राधिकरण का दायित्व है कि वे उसे जल्दी निपटाएं। हर स्तर पर तेजी से काम किया जाए। पिछले एक दशक के मामलों पर गौर किया जाए तो यही प्राधिकरण देरी की वजह बने हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में फांसी की सजा पाए देवेंदर पाल सिंह भुल्लर का ही मामला लें। उसकी दया याचिका 11 साल तक राष्ट्रपति के स्तर पर लंबित रही और तत्पश्चात खारिज की गई। आज वह पागलपन का शिकार है। अजमल कसाब और अफजल गुरु के मामलों में भी देरी हुई जिसके राजनीतिक कारण थे। खास तबका नाराज न हो जाए इसलिये सरकार फैसला नहीं कर पा रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे भी करीब 11 वर्ष से मौत की सजा पर फैसले का इंतजार कर रहे हैं। और तो और... मौत की सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद ऐसे कैदियों को एकांतवास में रखा जाता है। कोर्ट ने इसे भी यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया है कि राष्ट्रपति से दया याचिका खारिज होने तक ऐसा नहीं होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय जेलों की स्थिति पर भी प्रकाश डालता है जहां कैदी नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार जेल में कारावास के दौरान वर्ष 2012 में मृत्यु की 414 घटनाएं हुर्इं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी भारत को मानवाधिकार हनन के लिए आड़े हाथों लिया जा रहा है। ह्यूमन राइट्स वॉच की अपनी विश्व रिपोर्ट में कहा है कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा, और लम्बे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह मानने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति बदतर हो गई है। हालांकि श्रीलंका में सरकार के स्तर से जातीय हिंसा को संरक्षण के विरुद्ध रुख के लिए भारत की सराहना भी हुई है। रिपोर्ट में पुलिस हिरासत में हिंसा पर चिंता के साथ ही फांसी की सजा जारी रखने के औचित्य पर भी प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। बहरहाल, शीर्ष न्यायालय ने मानवाधिकारों पर भारत के दावों को बल दिया है। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स के अध्यक्ष सुहास चकमा कहते हैं कि यह फैसला मील का पत्थर है जो भारत को मौत की सजा को पूरी तरह खत्म करने की ओर ले जाएगा, हालांकि उन्होंने उम्मीद नहीं कि देश की सुरक्षा के मामले में भी मौत की सजा पर रोक लगाई जाएगी लेकिन बाकी मामलों में वह नरमी बरते जाने की उम्मीद करते हैं। बाकी के 90 फीसदी मामले ऐसे हैं जहां लोगों को कत्ल या बलात्कार के लिए मौत की सजा सुनाई गयी है और इन सब लोगों को फांसी पर लटकाया नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद संभव है सरकार भी इस दिशा में सोचे।
Saturday, January 25, 2014
गणतंत्रः जन की उम्मीदें और... दर्द
गणतंत्र दिवस सामने है। मनन का वक्त है कि गण ने अपने तंत्र से क्या पाया? तमाम सवाल हर ऐसे राष्ट्रीय त्योहार पर अपना हल पूछते नज़र आते हैं। हमारी उम्मीदें पूरी हुईं? संविधान ने हमें जिन अधिकारों से लैस किया, वो हासिल हुए या नेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के नापाक गठजोड़ ने झटक लिये? हम तो सुरक्षित भी नहीं, सीमाओं पर पड़ोसी देश दुश्मन बनकर आंखें दिखाते हैं तो भीतर, बहन-बेटियां असुरक्षित दिखती हैं। कब क्या हो जाए, पता नहीं। हमें मारने के लिए किसी बम-मिसाइल की जरूरत नहीं, महंगाई जैसे दैत्य हमें रोज मारते हैं। संविधान की धाराएं कुछ लोगों के लिए संरक्षण का काम करती हैं तो कुछ का उनकी आड़ में उत्पीड़न होता है।
वह आम आदमी है जिसकी न कोई सोर्स, न सिफारिश। ले-देकर एक उल्लास भर है कि वह महान गणतंत्र का गण है। जब-जब गणतंत्र दिवस आता है, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। वह बल्लियों उछलता है। एक दिन की छुट्टी जो मिल जाती है। राष्ट्रीय ध्वजों के साथ राष्ट्रभक्ति के गीतों से उल्लासमय वातावरण में मन खुद ही गुनगुनाने लगता है- जन-गण-मन....सारे जहां से हिंदुस्तां हमारा...। वह टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड देखता है। एकाध बार दिल्ली में विशाल झांकियों के रूप में देश के वैभव को देख आया है। जब-जब इसकी तस्वीर उसके जेहन में घूमती है, उसे लगता है कि अपना मुल्क भी किसी से कोई कम नहीं है, 64 साल के गणतंत्र में चाहे आर्थिक विकास हो, चाहे सुरक्षा या सम्मान, इंफ्रास्ट्रक्चर, जमीन से लेकर आसमान तक की वैज्ञानिक खोजें, चिकित्सा सुविधा हर क्षेत्र में एक बेहतरीन मुकाम हासिल किया है। युवा मेधा दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का डंका बजाए हुए है। लेकिन जब वह किसी थाने या चौकी में जाता है तो उसका यह नशा उतर जाता है। उसकी हिम्मत ही नहीं होती परिसर में भी घुसने की। अव्वल तो उसकी सुनी ही नहीं जाएगी, हो सकता है कि उसे ही हवालात में बंद कर दे। एफआईआर के लिए सिफारिशें करानी होंगी, पैसे भी देने होंगे। कार्रवाई कराने के लिए जूते घिस जाएंगे। सिर भी उसका और जूती भी उसकी जबकि दूसरे कई मुल्कों में सूचना करो पुलिस हाजिर, फटाफट कार्रवाई की जाती है। उसके घर के पास एक गड्ढा है, लोग अक्सर उसमें गिरते रहते हैं। सड़क भी न जाने किस जमाने की बनी है। तारकोल उसमें जहां-तहां चिपका रह गया है। जबकि उसके बगल की कालोनी में हर बार सड़क बनती है। यह अलग बात है कि सड़क वह भी ज्यादा दिन नहीं चलती। बार-बार टूटती रहती है लेकिन उसके लिए पैसे की कमी नहीं रहती। कोई वीआईपी आ जाए तो रास्ता बंद कर दिया जाता है। घंटों न किसी न तो बाहर निकलने दिया जाता है और न बाहर से अंदर जाने दिया जाता। लगता है कि देश अब भी काले अंग्रेजों के हाथ में है। वह खूब पढ़ा लिखा है। नंबर भी औसत हैं लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली जबकि उससे कम अंक वाले उसके अनेक साथी नौकरी पा गए। हालांकि बहुत से लोग उससे भी गए बीते हैं। ऐसे बेरोजगार लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नेशनल सैंपल सर्वे आॅर्गनाइजेशन की 68 वीं रिपोर्ट के अनुसार देश में जनवरी 2010 में 9.8 मिलियन लोग बेरोजगार थे जो जनवरी 2012 में बढ़कर 10.8 मिलियन हो गए। उसके पास ले-देकर प्राइवेट नौकरी है, जिसमें अगले दिन का कभी भरोसा नहीं रहता। ऊपर से महंगाई की मार। चाहे पेट्रोल-डीजल हो अथवा अन्य जरूरी चीजें, उसकी आसमान छूती कीमतें, शिक्षा, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च जाड़े में रजाई से बाहर पैर की तरह हालात कष्टकारी हो चले हैं। इस पर भी कोई काम बिना रिश्वत के नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में आंदोलन किया तो उसे भी उम्मीद बढ़ी थी। जो पैसा उसे एक मामले में रिश्वत में देना था, उसे खर्च करके वह दिल्ली के रामलीला मैदान में धरने में भाग लेने भी पहुंचा था। उसने खूब जोर-जोर से नारे लगाए। लगा था कि अब रिश्वत कैसी? इतना बड़ा आंदोलन है, पूरा देश एक है। लेकिन अब लग रहा है कि वह तो धोखा था। अन्ना भी कहने लगे हैं कि इससे तीस प्रतिशत तक ही भ्रष्टाचार खत्म हो सकेगा। लोकपाल विधेयक भले ही पारित हो गया है लेकिन उसका काम बिना घूस के होते नहीं दिख रहा। पहले उससे दो हजार रुपये देने पड़ रहे थे, उसके अब पांच हजार रुपये मांगे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि महंगाई बढ़ गई है। भविष्य को लेकर भी उसे उसे कोई बहुत अच्छी उम्मीद नहीं दिख रही क्योंकि न तो औद्योगिक प्रगति हो रही है और न ही बाहर से निवेश के लिए कोई कंपनी आ रही है। विकास दर लगातार पीछे खिसक रही है। औद्योगिक उत्पाद चीनी उत्पादों के मुकाबले में बाजार में टिक नहीं पा रहे। न केवल दूसरे मुल्कों में बल्कि अपने देश में भी भारतीय उत्पादों के लिए मुश्किल पैदा हो रही है। आईटी, सॉफ्टवेयर आदि जिसमें भारतीय युवाओं का डंका बजता था, वहां चीनी और ब्राजील के युवा उन्हें चुनौती देने लगे हैं। विकास दर घटने लगी है। देश की जो विकास दर वर्ष 2000 में 7.5 प्रतिशत थी, वह 2010 में 10.1 प्रतिशत हो गई और पिछले साल घटकर 4.4 प्रतिशत पर आ गई । बच्चे जब घर से बाहर निकलते हैं, एक अजीब आशंका सी बनी रहती है। जब तक वापस नहीं आ जाते, चैन नहीं मिलता। पता नहीं कहां कब विस्फोट हो जाए। दुनिया के दादा अमेरिका से बेहतरीन संबंधों के बावजूद आतंकवाद की यह समस्या जबर्दस्त चुनौती बनी हुई है। जहां तक विदेश संबंधों की बात है, सिवाय मार्केट के रूप में खुद के इस्तेमाल अपनी कोई धाक नहीं है। न तो हमारे अपने पड़ोसियों पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका से बेहतर संबंध हैं और नहीं दूसरे मुल्कों से। सबसे ज्यादा मदद देने के बावजूद अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसे हुए हैं। इसी तरह हर तरह की मदद के बावजूद बंग्ला देश से भी अपने विवादों को नहीं सुलझा पा रहे हैं। देश में केंद्र और राज्यों के संबंध भी सुगम नहीं है। कई राज्य अक्सर चिल्लाते रहते हैं कि उनके अधिकार क्षेत्र में दखल दिया जा रहा है। उनकी मदद नहीं की जा रही। केंद्र को शिकायत रहती है कि उनकी योजनाओं का न तो ठीक क्रियान्वयन किया जाता है और न ही उसके निर्देशों का पालन किया होता है। ताजा मामला राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र का है, केंद्र के पुरजोर प्रयास के बावजूद राज्यों के विरोध के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका। जब वह पड़ोस की झुग्गी-झोपड़ियों में चक्कर लगाकर आता है तो उसे दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं। हे भगवान, ये भी इंसान हैं! इनके न खाने के लिए भरपेट भोजन है और न ही तन पर पहनने के लिए कपड़े। योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार गरीबों की संख्या कम हुई है। पहले 37.2 फीसदी लोग गरीब थे, अब 22 प्रतिशत रह गए हैं। लेकिन वास्तव में अमीर और गरीबों के बीच की खाई बढ़ी है। एक वर्ग ऐसा है, जिसकी आमदनी हर साल बढ़ जाती है और दूसरे वर्ग की आय घट रही है। एक ओर सरकारी गोदामों में खाद्यान्न सड़ता है दूसरी ओर लोग भूखों मरने के लिए मजबूर हैं। लहलहाती फसलों की जमीन पर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी होती जा रही हैं। खेती की जमीन सिकुड़ रही है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में जनवरी 2009 में 60.57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन थी जो जनवरी 2011 में घटकर 60.53 प्रतिशत रह गई। पहले जहां 80 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर थे, वे अब घटकर 60 प्रतिशत भी नहीं रहे। यदि बदलाव की यही गति और प्रक्रिया बनी रही तो आने वाले सालों में खेती किसी के परिवार का पूरा बोझ झेल नहीं पाएगी। अब जो किसान खेती करके अपने परिवारों का पालन कर रहे हैं, उनके बच्चों में हरएक को रोजगार की जरूरत पड़ेगी। यह देश के गणतंत्र के लिए जबर्दस्त चुनौती है।
Saturday, January 4, 2014
बदलाव की नई बयार
... तो क्या दिल्ली की हवाएं देश के दूसरे हिस्सों में भी पहुंचने लगी हैं? हरियाणा में पुलिस में आईजी रणबीर शर्मा ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आम जनता को सियासी पार्टियों की गलत नीतियों के विरुद्ध आगाह करने का बीड़ा उठाया है, भीड़ उनकी बात सुन रही है। अब तक सिर्फ अपने काम से काम रखने और राजनीति की बातों से दूर रहने वाले तमाम नामी-गिरामी लोग इरादे बदल रहे हैं। अरविंद केजरीवाल के उद्भव से उन्हें उम्मीद जगी है, वह मानने लगे हैं कि आम आदमी तकदीर बदलने में सक्षम हो सकता है और राजनीति के शुद्धिकरण का जटिल सपना भी हकीकत बन सकता है।
विचारों में बदलाव की बयार लोकपाल के लिए समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू हुई। दिल्ली में गैंगरेप हुआ तब जनाक्रोश के समंदर ने सिद्ध किया कि जनता अब बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं। केजरीवाल पहले भी सक्रिय थे, सूचना का अधिकार कानून के लिए उनकी प्रसिद्धि थी, मैग्सेसे अवार्ड मिल चुका था उन्हें लेकिन अन्ना के आंदोलन ने उन्हें पहली बार आम जनता से जोड़ दिया। अन्ना के विचारों से हटकर उनके राजनीतिक सफर का निर्णय भी लोगों के आसानी से गले नहीं उतरा। पर आज उसी बेतुके से लगते रहे निर्णय की बदौलत वह दिल्ली के सीएम हैं। केजरीवाल ने उम्मीदें जिंदा की हैं। उनके साथ जनता की सहानुभूति है, समर्थन है तभी तो वह वीआईपी सुविधाएं न लेने का फैसला करते हैं तो जनता साथ होती है और अगर, यह कहते हुए सरकारी आवास में जाने की तैयारी कर लेते हैं कि इससे काम करने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा, जनता उनके इस तर्क का भी समर्थन करने लग जाती है, जैसे उन पर अविश्वास का मन ही न हो। बड़ा मकान ठुकराने पर उनका समर्थन और बढ़ जाता है। असल में, इसके पीछे सरकार और उसका संचालन करने वाले राजनीतिक तंत्र के प्रति बरसों पुरानी निराशा है। यही वजह है कि रणबीर शर्मा के पीछे भीड़Þ जुट रही है। वह कहते हैं कि देश चलाने वालों से लोग निराश हैं, समस्याओं का हल नहीं हो रहा इसलिये यह निराशा आक्रोश में बदल रही है। रणबीर जब तक सेवा में रहे, सरकार में मौजूद नकारात्मक विचारों वाले लोगों का निशाना बने रहे। उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा व रियल एस्टेट कंपनी डीएलएफ के बीच संदिग्ध भूमि सौदों पर मुखर आईएएस अफसर अशोक खेमका की तरह बेवजह तबादले झेलने पड़े। यहां तक कि सत्ता संरक्षण में आंदोलनों से भी उनका सामना हुआ। शर्मा कहने से नहीं हिचकते कि जरूरी हुआ तो वह राजनीतिक भूमिका भी निभाएंगे। हरियाणा में ही केजरीवाल के सहयोगी योगेंद्र यादव की सभाएं भीड़ खींच रही हैं। भारतीय किसान यूनियन ने उन्हें बिना शर्त समर्थन दिया है यानी वह साथ तो देगी लेकिन किसी चुनाव में सीटें नहीं मांगेगी। आम आदमी पार्टी की सक्रियता बढ़ी है और वह छोटे-बड़े मुद्दे पर सामने आने लगी है।
देश के अन्य हिस्सों में भी कमोवेश यही हाल है। मुंबई में बॉलीवुड के लोग बदलाव का झण्डा उठाने के लिए तैयार हैं और यह कोई छोटे नहीं, गायक कैलाश खेर, रेमो फर्नांडिस जैसे बड़े नाम हैं। कैलाश खेर तो यहां तक कह चुके हैं कि राजनीतिक शुद्धिकरण के हवन में यदि मेरी आहुति जरूरी है तो मुझे इसमें भी हिचक नहीं। मुंबई में लम्बे समय से सामुदायिक विकास कार्यक्रमों और नीतिगत सुधारों से जुड़ी रहीं मीरा सान्याल भी हालात में पूर्ण बदलाव की आकांक्षी बनी हैं। रॉयल बैंक आॅफ स्कॉटलैंड की पूर्व इंडिया हेड मीरा सान्याल ने आम आदमी पार्टी में शामिल होकर दक्षिण मुंबई से लोकसभा का टिकट मांगा है। वह इसी सीट पर मुरली देवड़ा के विरुद्ध चुनाव लड़ भी चुकी हैं। उनकी ही तरह देश की दूसरी बड़ी सॉफ्टवेयर सेवा निर्यातक कंपनी इंफोसिस के पूर्व मुख्य वित्त अधिकारी वी. बालकृष्णन दक्षिण में केजरीवाल के सारथी बनने के दावेदार हैं। एचसीएल के एक बड़े पद से त्यागपत्र देकर आर. कृष्णमूर्ति ने भी उनके साथ रहने का इरादा जताया है। तकनीकी दुनिया के ही एक अन्य महारथी आदर्श शास्त्री भी नई भूमिका में आए हैं। वह सालाना एक करोड़ के पैकेज पर बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक्स कंपनी एप्पल में काम कर रहे थे। उनका इरादा आम आदमी पार्टी के लिए काम करने का है और आजीविका के लिए वह एक छोटी सॉफ्टवेयर कंपनी स्थापित करेंगे। वह उन पूर्व पीएम लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र हैं जिन्हें केजरीवाल अपना आदर्श मानते हैं। रेमो गोवा में सक्रिय राजनीति करने के इच्छुक हैं। वह फिलहाल नहीं चाहते कि चुनाव लड़ें लेकिन जरूरत हुई तो हिचकेंगे भी नहीं। बड़े नामों के जुड़ने का क्रम यहीं खत्म नहीं हो रहा, मध्य प्रदेश में रिटायर्ड बिक्रीकर कमिश्नर आरसी गुप्ता और प्रमुख टेलीकॉम कंपनी के चीफ आॅपरेटिंग इंजीनियर रहे एससी त्रिपाठी अभियान संभालने के लिए मैदान में उतर चुके हैं। दूरदराज की बात करें तो आंध्र प्रदेश में समीर नायर और अरुणाचल प्रदेश में हाबुंग प्यांग ऐसे नाम हैं जो केजरीवाल ब्रिगेड के हमराह बने हैं। समीर नायर एक प्रमुख टीवी चैनल के सीईओ रहे हैं और हाबुंग सूचना आयुक्त। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे राकेश सिन्हा उत्तर प्रदेश में संजय सिंह के साथ पार्टी की बागडोर संभाल रहे हैं। उत्तराखण्ड में देशदीपक सचदेवा सक्रिय हैं जो प्रमुख व्यवसायियों में शुमार हैं और विज्ञापन की दुनिया का जाना-पहचाना नाम हैं। अनूप नौटियाल भी उनके साथ हैं जो राज्य आपात फोन सेवा 108 के प्रभारी रहे हैं और अमेरिकन-इंडिया फाउंडेशन में ट्रस्टी भी हैं। ओंकार भाटिया भी उत्तराखण्ड में संगठनात्मक ढांचे का बड़ा नाम हैं, वह आपदा प्रबंधन एवं नवनिर्माण तंत्र की अहम जिम्मेदारी संभालते हैं। सचदेवा की बात में दम दिखता है कि बयार चल रही है इसलिये कुछ स्वार्थी तत्व भी जुड़ सकते हैं, हमें सतर्कता बरतनी होगी। लेकिन यह तय है कि स्थितियां बदल रही हैं, बड़े नामों के सक्रिय होने से संकेत मिल रहे हैं कि दिल्ली से हुई शुरुआत देश में कुछ और गुल तो जरूर खिलाएगी।
Saturday, December 28, 2013
यमुना तट पर केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल ने आखिरकार दिल्ली की कमान संभाल ही ली। कठिन चुनौतियां हैं और वह बार-बार कह रहे हैं कि इनसे निपटने में खरा सिद्ध होंगे। अहम मोर्चा है राजधानी के हर घर में प्रतिदिन सात सौ लीटर पानी की आपूर्ति का। बिजली की कीमतें घटाने के मामले में वह चाहें कुछ कर दिखाएं भी, लेकिन पानी का मामला बेहद मुश्किल है। जिस यमुना से उनकी दिल्ली की पानी मिलता है, पहली बात तो साल के ज्यादातर महीनों में उसमें पानी की कमी रहती है और दूसरा, हरियाणा सामने खड़ा है। कांग्रेस शासित हरियाणा आसानी से मान जाएगा, यह कतई संभव नहीं।
केजरीवाल ने बड़े वादे किए थे। शक है कि उन्हें दिल्ली फतह का यकीन था। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा जता दिया। पानी दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश का भी बड़ा दर्द है। वर्ष 1995 में पांच राज्यों हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश औऱ हरियाणा के बीच यमुना जल पर समझौता हुआ था, पर यह अक्सर विवादों का विषय बनता है।हरियाणा से गुजरने के बाद यमुना दिल्ली पहुंचती है तो वह उसे काफी प्रदूषित कर देती है। उत्तर प्रदेश, खासकर ब्रज, में यमुना जल बड़ा मुद्दा है। यमुना आस्था से भी जुड़ी नदी है, भगवान कृष्ण की वजह से उसे आस्था का यह दर्जा हासिल हुआ है। हर साल ब्रज में करीब आठ करोड़ श्रद्धालु आते हैं, लेकिन जब ये लोग यमुना में गिरते नालों को देखते हैं तो उनकी भावनाएं आहत होती हैं। यही कारण है कि यमुना के किनारे भूमिगत जल भी प्रदूषित हो चुका है। आसपास के क्षेत्र में गंभीर बीमारियां फैल रही हैं। आगरा-मथुरा समेत पूरा ब्रज यमुना शुद्धिकरण के लिए आंदोलनरत रहा है। संतों ने तो यमुना मुक्ति यात्रा तक आयोजित की है। ऐसे में आम आदमी पार्टी के नायक का रास्ता खासा कठिन हो जाता है कि वह दिल्ली को अपने वादे के मुताबिक पानी दे पाएंगे। केजरीवाल एक तरफ तो दिल्ली के निकटवर्ती हरियाणा में पैर पसारने की योजना बना रहे हैं, दूसरी तरफ, इसी हरियाणा के विरुद्ध उनका मोर्चा खुलने जा रहा है। वह कैसे मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा उन्हें पानी देने के लिए तैयार हो जाएंगे जबकि कृषि प्रधान हरियाणा के तमाम इलाकों के खेतों में सिंचाई और जलापूर्ति यमुना पर ही आश्रित है। आंकड़ों पर जाएं तो दिल्ली की जलापूर्ति हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर निर्भर है। दिल्ली जल बोर्ड वहां प्रतिदिन करीब 835 एमजीडी पानी की सप्लाई करता है जिसका करीब 50 प्रतिशत भाग हरियाणा से मिलता है और करीब 25 फीसदी हिस्सा गंग नहर से। उत्तर प्रदेश जहां पानी को प्रदूषित करने के लिए दिल्ली से दो-दो हाथ करने के लिए मजबूर है, वहीं हरियाणा से उसकी लड़ाई पानी की समुचित आपूर्ति को लेकर है।
हरियाणा और दिल्ली के बीच भी यही विवाद है और गर्मियों में अक्सर केंद्र सरकार को दखल देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बदली स्थितियों में सवाल यह है कि केंद्र सरकार क्यों कांग्रेस शासित हरियाणा से पानी छोड़ने के लिए कहेगी जबकि पानी न मिलने पर आम आदमी पार्टी से जनता के मोहभंग का लाभ उसे मिल सकता है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार भी अपनी जनता का हक काटकर दिल्ली का गला तर करने को तैयार नहीं होगी, क्योंकि वह भी राजनीतिक रूप से आम आदमी पार्टी के बिल्कुल करीब नहीं है। उत्तर प्रदेश तो खुलकर यमुना मुक्ति आंदोलन के साथ है। यमुना रक्षक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संत जयकृष्ण दास के नेतृत्व में संचालित आंदोलन के कार्यकर्ताओं के समक्ष प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव खुलकर कह चुके हैं कि यमुना की गंदगी के लिए दिल्ली जिम्मेदार है और हरियाणा ने उसे हथिनीकुंड में रोक दिया है। सरकार की ओर से मंत्री ने हरियाणा सरकार से बात की है, आंदोलनकारी भी हुड्डा के संपर्क में हैं। अखिलेश सरकार की योजना यमुना के समानांतर नाले के निर्माण की है, साथ ही यमुना के समानांतर पाइप लाइन डालकर गंदे पानी का शोधन कर इसे कृषि और अन्य उपयोग में लाने का उसका मन है। इन परिस्थितियों में अरविंद का मोर्चा और कठिन हो जाता है।
दुःख की बात यह है कि सारी मारामारी यमुना के उस जल के लिए है, जिसके जहरीला होने की हद तक प्रदूषित होने के कारण दिल्ली जल बोर्ड साल में कई बार शोधन कार्य रोक देता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी स्वीकार करता है कि हालात बहुत खराब हैं। राष्ट्रीय गंगा घाटी प्राधिकरण ने 764 ऐसी औद्योगिक इकाइयों को चिह्नित किया, जिनसे नदियों में सबसे अधिक प्रदूषण फैलता है। कुछ के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई लेकिन पूरा तंत्र भूल गया कि प्रदूषण बढ़ाने में ऐसे बहुत सारे छोटे कल-कारखाने जिम्मेदार हैं, जो अपंजीकृत हैं और ऐसी इकाइयां दिल्ली में सर्वाधिक हैं। इसके अलावा मौजूदा जलमल शोधन संयंत्रों की क्षमता पर भी शुरू से सवाल उठते रहे हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि आदर्शों की राजनीति का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल ने इतना बड़ा वादा करने से पहले जमीनी हकीकत का आंकलन क्यों नहीं किया। इसके बजाए, वह यमुना शुद्धिकरण और उसके बाद बढ़ी जल की मात्रा से दिल्ली को ज्यादा पानी देने का वादा करते तो ज्यादा अच्छा रहता। तब बदलाव की उम्मीद करने वाली उत्तर प्रदेश और हरियाणा की जनता भी उनके साथ आ पाती।
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