Wednesday, November 28, 2012
कांग्रेस की राहुल से उम्मीदें
'जाएंगे तो लड़ते हुए जाएंगे' के जिस नारे के आसरे कांग्रेस आर्थिक सुधारों का फर्राटा भरने वाले मनमोहनी अर्थशास्त्र की अपनी लीक पर चल रही है और उसी की थाप पर उसके युवराज राहुल गांधी आगामी लोकसभा चुनाव का रास्ता तैयार कर रहे हैं। वहीं मनमोहन सिंह के पास भी कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को पूरा करने की एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी है। प्रश्न यह है कि आधी-अधूरी रणनीति के दम पर अभी तक हर चुनावी समर में उतरे राहुल से ज्यादा उम्मीदें करना क्या ठीक रहेगा?
सूरजकुंड के मंथन में तय हो चुका है कि कांग्रेस को राहुल की अगुवाई में ही 2014 का रास्ता तय करना है और पार्टी ने इसी को ध्यान में रखकर राहुल को राष्ट्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाया है। गौर करने लायक बात है कि इस पूरी उपसमिति में भी सोनिया के सलाहकारों की छाप साफ देखी जा सकती है। जहां गठबंधन और चुनावी घोषणा पत्र वाला विभाग सोनिया के सबसे भरोसेमंद एके एंटनी के पास है तो वहीं प्रचार-प्रसार का जिम्मा गांधी परिवार के सबसे वफादार दिग्विजय सिंह संभालेंगे। राहुल को आगे करने की अटकलें कांग्रेस में लम्बे समय से चल रही थीं। सूरजकुंड के बाद पार्टी के किए गए फैसलों ने एक बात तो साफ कर दी है कि आने वाला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन के बजाए राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करके लड़ने जा रही है। इस चुनाव में पार्टी के टिकट आवंटन में भी राहुल गांधी की ही चलेगी और वही नेता टिकट पाने में कामयाब होगा जो राहुल गांधी की चुनावी बिसात के खांचे में फिट बैठेगा। ऐसा ना होने की सूरत में कई नेताओं के टिकट कटने का अंदेशा अभी से बनने लगा है। पार्टी में एक बड़ा तबका लम्बे समय से उनको आगे करने की बात कह रहा था। खुद मनमोहन सिंह भी उनसे मंत्रिमंडल में शामिल होने का आग्रह कर चुके थे। राहुल को कांग्रेस आने वाले लोकसभा चुनाव में उस ट्रंप कार्ड के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रही है जो अपनी काबिलियत के बूते देश में युवाओं की एक बड़ी आबादी के वोट का रुख कांग्रेस की ओर मोड़ सके। लेकिन राहुल गांधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान भी नहीं है। 2009 के लोकसभा चुनावों में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा, आरटीआई, किसान कर्ज माफी जैसी योजनाओं के सिर ही बंधा था। उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गांधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था और भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्योंकि वह आम आदमी से जुड़ने चले थे। वह दलितों के घर आलू-पूड़ी खाने जाते थे, कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस के दौरान उजागर करते थे। लेकिन संयोग देखिये राजनीति एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है, यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है। अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है। साथ ही ‘आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ’ जैसे नारों की भी हवा निकली हुई है क्योंकि महंगाई चरम पर है। सरकार ने घरेलू गैस की सब्सिडी सीमित कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में दी है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है। वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई, घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे से लेकर तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही, एफडीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है। देश की अर्थव्यवस्था जहां सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है, वहीं आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्योंकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है। यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनॉमिक्स के जरिए आम आदमी के बजाए कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा दिखा रही है। ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है कि राहुल गांधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है। यूपीए-2 की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा काम नहीं हुआ है। उल्टा कांग्रेस कॉमनवेल्थ, 2-जी, कोलगेट जैसे घोटालों पर लगातार घिरती रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है। ऊपर से रामदेव, अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदाराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है। देश में मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्योंकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई साख वापस नहीं आ सकती। दाग तो दाग हैं, वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते। ऊपर से आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने नहीं रखते। उसके लिए दो जून की रोजी-रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है। वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है । ज्यादा समय नहीं बीता जब 2009 में 200 से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावों में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु के विधान सभा चुनावों में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरूर लेकिन यहां भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही। इन जगहों पर राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी। संगठन भी अपने बजाय राहुल के करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगों की भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गांधी ने भी उन इलाकों का दौरा नहीं किया जहां कांग्रेस कमजोर नजर आई। चुनाव निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए जबकि दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है।
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