Friday, November 23, 2012
सियासी अखाड़े में चित्त ममता
बिना तैयारी के लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव ने तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां कम से कम खुशी से कोई नहीं जाना चाहेगा। इतना हो-हल्ला करना और समर्थन के नाम पर अकेले बीजू जनता दल का सामने आना, ममता की बड़ी सियासी मात है। इससे सत्ताधारी यूपीए की नेता कांग्रेस को ममता का मजाक उड़ाने का मौका मिल गया है। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले छिड़ी बेमुरव्वत जंग में, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता अपने कल तक के सहयोगियों को यह कहकर चिढ़ाने से नहीं हिचक रहे हैं कि जनतंत्र के इतिहास में पहली बार है कि एक पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव लाना पहले तय कर लिया और उसके लिए लोकसभा में पचपन की संख्या पूरी करने के लिए समर्थकों की खोज करने के लिए बाद में निकली। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि कहीं बनर्जी को एक बार फिर राष्ट्रपति चुनाव के मौके जैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ गई।
पाखंड, चाहे वामपंथ से बढ़कर वामपंथी दीखने का ही क्यों न हो, अक्सर ऐसे ही शर्मिंदा कराता है। ऐसी नौबत क्यों आती है, यह समझने के लिए किसी भारी राजनीतिक विद्वत्ता की जरूरत नहीं है। सचाई यह है कि जिस वामपंथ से बढ़कर कांग्रेस विरोधी नजर आने की कोशिश में तृणमूल कांग्रेस अपने अविश्वास प्रस्ताव को लेकर इतना उछल रही है, उसने ही नहीं विपक्ष के बाकी सभी घटकों ने भी, तृणमूल के प्रस्ताव के प्रति कोई गर्मजोशी नहीं दिखाई। इसकी वजह सीधे-सीधे संसदीय संख्याओं और राजनीतिक कतारबंदियों के उस गणित में है, जिसे ध्यान में रखते हुए वामपंथ ने खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के सरकार के फैसले के खिलाफ, संसद के दोनों सदनों में ऐसे नियमों के तहत प्रस्ताव के लिए नोटिस दिए हैं, जिनमें चर्चा पर निर्णय मतदान से होने की व्यवस्था है। दूसरे शब्दों में इस तरह सरकार में विश्वास-अविश्वास के प्रश्न को बरतरफ करते हुए, खुदरा व्यापार में एफडीआई के फैसले पर जरूर, संसद के विश्वास-अविश्वास का निर्णय कराया जा सकता है। इस प्रस्ताव के सफल होने की संभावना ज्यादा होने की और अविश्वास प्रस्ताव की विफलता ही पहले से तय होने की वजह भी किसी से छुपी हुई नहीं है। वास्तव में अगर तृणमूल कांग्रेस के नाता तोड़ने के बाद भी मनमोहन सिंह की सरकार कम से कम अब तक लोकसभा में बहुमत साबित करने को लेकर बहुत आश्वस्त नजर आई तो इसीलिए कि समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने, सबसे बढ़कर अपनी आपसी प्रतिद्वंद्विता के चलते भी, यूपीए-द्वितीय की सरकार के लिए अपना आम समर्थन बनाया हुआ है। इन दोनों पार्टियों के चालीस से ज्यादा लोकसभा सदस्यों का समर्थन, कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार को बहुमत का भरोसा दिलाने के लिए काफी है। इसके विपरीत, खासतौर पर खुदरा व्यापार में एफडीआई के मुद्दे पर, समाजवादी पार्टी विरोध का दो-टूक रुख ही नहीं अपना चुकी है बल्कि सपा इसी निर्णय को केंद्र में रखकर वामपंथी पार्टियों व अन्य धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए, 20 सितंबर को देशव्यापी विरोध कार्रवाई के आह्वान में भी शामिल थी। इतना ही नहीं, सत्ताधारी यूपीए में अब भी शामिल, द्रमुक ने भी उक्त विरोध कार्रवाई के लिए समर्थन का ऐलान किया था। सच तो यह है कि यूपीए में शामिल पार्टियों के ससंदीय सत्र की पूर्व-संध्या में आयोजित भोज में भी द्रमुक ने प्रधानमंत्री को इसका इशारा किया कि एफडीआई के मुद्दे पर पर अगर मतदान की नौबत आयी, तो उसके लिए सरकार के पक्ष में खड़े होना मुश्किल होगा।
साफ है कि अगर सरकार के खिलाफ किसी प्रस्ताव के संसद में मंजूर होने की संभावनाएं हैं, तो खुदरा व्यापार में एफडीआई के खिलाफ प्रस्ताव के ही मंजूर होने की संभावनाएं हैं। मामला इससे बढ़कर राजनीतिक है। अविश्वास प्रस्ताव की निश्चित हार का मतलब है कि सरकार को अभयदान। इससे सरकार को अनावश्यक रूप से संसद में अपने बहुमत का सबूत पेश करने का बहाना मिलता। यह न सिर्फ अगले छ: महीने के लिए सरकार को किसी भी तरह के अविश्वास प्रस्ताव की चिंता से बरी कर देता, शेष शीतकालीन सत्र में सरकार को अपने सत्यापित बहुमत के डंडे से, अपनी तमाम आलोचनाओं को पीटने का भी मौका दे देता। इसके बाद, एफडीआई के मुद्दे पर संसद में किसी सार्थक चर्चा तथा निर्णय की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस तरह, खुद को वामपंथ से गर्मपंथी दिखाने की हड़बड़ी में तृणमूल कांग्रेस, वस्तुगत रूप से तो अपने पूर्व-सहयोगी की ही मदद करने पर उतारू नजर आई। तृणमूल कांग्रेस के और देश के भी दुर्भाग्य से, शेष विपक्ष की अनिच्छा के बावजूद, तृणमूल कांग्रेस विपक्ष को इस प्रकटत: आत्मघाती रास्ते पर घसीटने की कोशिश कर रही थी। इसका तृणमूल कांग्रेस के लिए कहीं कम नुकसानदेह रास्ता यह हो सकता था कि अन्नाद्रमुक तथा बीजू जनता दल जैसी पार्टियों से अविश्वास प्रस्ताव के लिए सांसदों की उसकी संख्या पूरी करा लेती। प्रस्ताव का गिरना और उसका कांग्रेस की मदद करना तो तय था, पर तृणमूल को शायद इसका ज्यादा राजनीतिक खामियाजा नहीं भुगतना पड़ता। दूसरी सूरत यह हो सकती है कि आगे चलकर एनडीए का विस्तार करने के अपने क्षुद्र स्वार्थ को देखते हुए, भाजपा तथा उसकी पहल पर एनडीए अनिच्छापूर्वक ही सही, सुश्री बनर्जी को मौजूदा मुश्किल से निकालने में मदद करने के लिए तैयार हो सकती थी। उस सूरत में अविश्वास प्रस्ताव के संबंध में वस्तुगत स्थिति तो नहीं बदलती पर तृणमूल कांग्रेस का एनडीए के समर्थन का अतीत जरूर फिर से प्रासंगिक होकर, उसके अल्पसंख्यक-हितैषी मुखौटे को दरका देता। दूसरे शब्दों में, ममता बनर्जी ने अपने लिए आगे कुंआ, पीछे खाई की स्थिति पैदा कर ली है। अविश्वास प्रस्ताव की उछलकूद, खुद उन्हें महंगी ही पड़ने जा रही है। इसकी शुरुआत हो चुकी है।
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