Wednesday, November 14, 2012

म्यांमार पर सधे कदमों की जरूरत

म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की 40 साल बाद आजकल भारत की यात्रा पर हैं। पिछले चार दशक से म्यांमार के सैन्य शासकों के साथ रिश्ते बनाए रखने वाले भारत को सू की के साथ संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। इसकी वजह भी हैं, सू की अपने देश में शक्तिशाली होने के रास्ते पर हैं, तमाम देशों की विदेश नीतियां उन्हें केंद्रबिंदु में रखकर बनाई-बदली जा रही हैं। म्यांमार से चूंकि भारत के सहयोग की पुरानी परम्परा है इसलिये उस पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। सू की के भारत दौरे और उसके निष्कर्षों को समूचा विश्व जानने को व्यग्र है। भारत ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया है, किसी राष्ट्राध्यक्ष जैसी अहमियत दी है। लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर संतुलन बनाए रखने की एक बड़ी चुनौती भारत के सामने खड़ी है। भारत का मौजूदा नेतृत्व इस देश को कितना महत्व देता है, यह इससे पता चलता है कि 1987 के बाद डॉ. मनमोहन सिंह पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जो म्यांमार गए हैं। सू की राजनीतिक स्तर पर दोनों देशों के लोगों के बीच घनिष्ठ सम्बंध चाहती हैं, क्योंकि हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच चीन आड़े आया है और भारत को शक है कि सैन्य शासक चीन से नजदीकी बनाने को प्रायर्टी देते हैं। भारत से सू की का रिश्ता पुराना है, यहां उनका बचपन बीता है। 60 के दशक में उनकी मां खिन की भारत में बर्मा की राजदूत थीं। उस दौरान वह अकबर रोड के उसी घर में रहती थी जहां आज कांग्रेस का कार्यालय है। म्यांमार की सैनिक सरकार से दो दशक से ज्यादा समय से लोहा लेनेवाली सू की ने दिल्ली के जीसस एंड मैरी कॉन्वेंट में स्कूली शिक्षा ली थी और उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए लेडी श्रीराम कॉलेज में दाखिला लिया था। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चली गई थीं। इस बीच शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडीज में भी उन्होंने दो साल तक अध्ययन किया था। तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। लोकतंत्र की समर्थक सू की अब 67 साल की हो चुकी हंै। भारत ने दशकों तक म्यांमार के सैन्य हुकूमत से संबंध बनाए रखा जिससे पश्चिमी मुल्क नाता तोड़ चुके थे। हालांकि बीच-बीच में वह सू की को भी बराबर अहमियत देता रहा। इसी क्रम में उन्हें 1993 में जवाहर लाल नेहरू अवॉर्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग से सम्मानित किया गया था। उस समय वह म्यांमार की सैनिक सरकार द्वारा अपने घर में नजरबंद रखी गई थीं। 1991 में जब उन्हें नोबेल पुरस्कार देने की आधिकारिक घोषणा हुई तब भी वह नजरबंद हीं थीं। इसके चलते वह अपने इस पुरस्कार को ग्रहण नहीं कर सकी थीं। आंग सान सू की सलाखों के पीछे तो कभी घर में नजरबंद होकर भी लोकतंत्र के लिए लड़ती रहीं। इस संघर्ष में उनका देश की जनता ने भी खूब साथ दिया। यही वजह है कि हाल ही में संपन्न चुनावों में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली और कभी नजरबंद रहने वाली सू की ने एक बार फिर खुली हवा में सांस ली। सांसद बनने के बाद वह अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकलीं तो भाषणों में भारत का कई बार नाम लिया और अपने देश से भारत के निरंतर सहयोग की बार-बार वकालत की। इससे यह सिद्ध हुआ कि वह भारत को काफी महत्व देती हैं। सू की ने 24 वर्षों के बाद अपने देश से बाहर निकलना शुरू किया है। यह बात बेहद महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि जब उनके पति लंदन में बीमारी से जूझ रहे थे तब भी सू की ने देश छोड़ने से मना कर दिया था। उन्हें डर था कि उन्हें वापस म्यांमार में नहीं आने दिया जाएगा। लेकिन चुनाव जीतने के बाद यह डर लगभग खत्म हो गया। उन्हें देश की सरकार ने पिछले माह ही उनका पासपोर्ट सौंपा था। अप्रैल में हुए चुनावों के महीने भर बाद मनमोहन ने म्यामांर की यात्रा की थी। म्यांमार पर चीन के प्रभाव को देखते हुए सिंह ने व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया। इस दौरान भारत और म्यांमार के बीच 12 समझौते हुए, इनमें सुरक्षा, सीमा से सटे इलाकों में विकास, व्यापार और परिवहन में सहयोग की इबारत रचने का संकल्प लिया गया। सू की भारत के इस रुख से दुखी हैं। वह कह चुकी हैं कि भारत को म्यांमार की दिखावटी सरकार के बहकावे में नहीं आना चाहिए। हाल ही में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, मैं निराशा के बजाए दुख शब्द का इस्तेमाल करूंगी क्योंकि भारत के साथ मेरा निजी लगाव है। दोनों देशों के बीच काफी नजदीकी है। अति आशावादी न रहें, लेकिन इतना साहस अवश्य होना चाहिए जिस चीज को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, उसे प्रोत्साहित करें। अति आशा से मदद नहीं मिलती है क्योंकि ऐसे में आप गलत चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं. नजरअंदाजी ठीक नहीं है और ठीक न होना ही गलत है। भारत और म्यांमार के कारोबारी रिश्ते बहुत मजबूत हो सकते हैं। प्रेक्षक मानते हैं कि म्यांमार से सटी भारत की पूर्वी सीमा पर 'सही ढंग से निवेश' किया जाना चाहिए। लोकतंत्र की राह पर चलने की कोशिश करते म्यांमार से अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने कई प्रतिबंध हटा भी दिए हैं। अमेरिका, यूरोप, चीन और भारत के कारोबारी वहां निवेश करना चाहते हैं। सरकारें भी तैयार हैं, अगर सू की यह सिद्ध करने में कामयाब रहती हैं कि बदला माहौल उनके अनुकूल है तो निवेश का यह क्रम तेजी से शुरू हो सकता है। म्यांमार की सैनिक सरकार के पूर्व नेता थीन सेन ने जिस तरह के संकेत दिए हैं, उससे लगता है कि सू की का कद और बढ़ने जा रहा है। सेन के अनुसार, यदि लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की को जनता का समर्थन प्राप्त होता है तो वह देश की राष्ट्रपति बन सकती हैं। सेन ने कहा कि जनता की इच्छाओं का सम्मान किया जाएगा। वर्ष 2015 में चुनाव में जनता जिसके पक्ष में भी मतदान करेगी, उसे स्वीकार किया जाएगा।

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