Sunday, November 18, 2012

बाल ठाकरे की विरासत का सवाल

मराठा शेर बाल ठाकरे के अवसान पर यह सवाल सबको मथ रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीति का अगला खेवैया कौन होगा होगा, राज ठाकरे या उद्धव ठाकरे? अपने चाचा बाल ठाकरे की शैली में सियासत करने वाले राज के बाद अपना अलग दल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है जिसे उन्होंने छह साल में पाल-पोसकर बड़ा किया है। उद्धव के पास पिता की बनाई, पाली-पोसी शिवसेना है जिसका पूरे महाराष्ट्र के साथ कुछ अन्य राज्यों में संगठन है, कार्यकर्ता हैं। मुश्किल यह है कि उद्धव के पास तेवर नहीं। बाल ठाकरे चाहते थे कि राज और उद्धव फिर एक हो जाएं, हालांकि इस बारे में आंकलन अभी दूर की कौड़ी है और राज-उद्धव तैयार हो जाएं, यह संभव नहीं दिख रहा। फिर भी, यह संभव हो जाए तो शिवसेना में आया बल राजनीतिक समीकरणों में बड़ा उलटफेर कर देगा। बाल ठाकरे के जीते-जी राजनीतिक हलकों में राज ठाकरे को उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था। राज का उठने-बैठने और यहां तक कि भाषण देने का अंदाज अपने चाचा पर गया था। उद्धव को भी पार्टी में ऊंचा मुकाम हासिल था लेकिन लोकप्रियता और स्वीकार्यता में वह राज से उन्नीस बैठते थे। पिछले विधानसभा चुनाव में जहां शिवसेना को 44 सीटें मिली थीं, राज ठाकरे की एमएनएस 14 सीटें जीतने में सफल हुई थी। दोनों भाइयों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ती चली गई। उद्धव की बीमारी के दिनों में राज न सिर्फ उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे बल्कि उन्हें अपनी कार में बैठा कर वापस मातोश्री लाए। राज की इस पहल पर कई लोगों की भौंहें तनी लेकिन दोनों कैंपों से यही प्रतिक्रिया आई कि इसके राजनीतिक अर्थ नहीं लगाए जाने चाहिए लेकिन राज के इस कदम को बारीकी से देखा जाए तो इसके गहरे राजनीतिक माने समझ में आते हैं। भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठबंधन कम से कम कागज पर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एनसीपी गठबंधन को हराने की क्षमता रखता है। बाल ठाकरे जैसे राजनीतिक रूप से सजग इंसान के लिए मौके की नजाकत को भांपना और उसका राजनीतिक फायदा उठाना बाएं हाथ का खेल था। बाल ठाकरे अब नहीं रहे। उनके घोषित उत्तराधिकारी उद्धव को एक महीने के अंदर दिल के दो-दो आॅप्रेशन कराने पड़े हैं। अंतिम क्षणों में बाल ठाकरे का अपने नाराज भतीजे से संपर्क साधना और उन्हें अपने चचेरे भाई से मतभेदों को दूर करने के लिए राजी करना, एक राजनीतिक सूजबूझ भरा कदम था। बाल ठाकरे का फॉर्मूला था कि अगले विधानसभा चुनावों के बाद राज को शिवसेना विधानमंडल दल का नेता बनाया जाए और उद्धव को पार्टी की कमान दी जाए। राज को इस फॉमूर्ले से कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उद्धव की तरफ से इसे हरी झंडी नहीं मिली है। बाल ठाकरे के इस असंभव से समझे जाने वाले प्रस्ताव पर गुपचुप तरीके से ही सही लेकिन विचार तो चल रहा है लेकिन देखने वाली चीज यह होगी कि ठाकरे के जाने के बाद दोनों भाई उनकी विरासत को अक्षुण्ण रख पाते हैं या नहीं। पार्टी में फूट के बाद राज्य के दूरदराज इलाकों में हुए सर्वेक्षणों में संकेत मिले थे कि दोनों भाइयों का आपसी मतभेद कभी दुश्मनी में नहीं बदल सकता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि दोनों पार्टियां फिर से एक हो जाएं। लेकिन अब, जबकि छह साल में पहली बार ठाकरे परिवार में मेल-मिलाप की जरूरत महसूस हो रही है तो क्या ये मुमकिन है कि नव निर्माण सेना शिवसेना में फिर से वापस चली जाए। इसका जवाब शायद अभी न मिले लेकिन दोनों पार्टियों का फिर से मिल जाना इतना आसान भी नहीं होगा। राज ठाकरे ने अपनी पार्टी को राज्यभर में स्थापित कर दिया है। चुनावी सफलताओं के कारण अब राज्य में उनकी पार्टी को संजीदगी से लिया जाता है। दूसरी तरफ शिव सेना के समर्थकों को अपनी तरफ खींचकर उन्होंने अपने भाई और चाचा की पार्टी को कमजोर करने का भी काम किया है। अगर राज ठाकरे शिवसेना में लौटेंगे तो इसकी कीमत भी चाहेंगे। क्या उद्धव उन्हें वो पद देने के लिए तैयार होंगे जिसके न मिलने पर वो पार्टी से अलग हुए थे या फिर उन्हें उद्धव की बराबरी का कोई दर्जा दिया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो राज उद्धव को लोकप्रियता में काफी पीछे छोड़ देंगे। क्या उद्धव ये सियासी खुदकुशी करने को तैयार होंगे। दूसरी तरफ शिव सेना के नेतागण इस बात को जानते हैं कि राज ठाकरे की वापसी से 2014 के आम चुनाव और उसी साल होने वाले विधानसभा के चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त फायदा होगा। इससे भी ज्यादा शिवसेना और नवनिर्माण सेना के जमीनी कार्यकतार्ओं की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो जाएगी। अब देखना है दोनों भाइयों की दोबारा दोस्ती का सफर ठाकरे परिवार तक ही सीमित रहता है या फिर राजनीति में अपना रंग लाता है। यहां यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि बाला साहेब खुद की तरह अपने बेटे को भी किंग मेकर बनाना चाहते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, मैंने शुरू से यही किया। सत्ता से अलग रहा हूं। और चाहता हूं उद्धव भी ऐसा ही करे। मैंने उससे कहा है कि सत्ता के पीछे न भागे। इसके बदले सामाजिक काम करे। शिवसेना को अच्छी तरह चलाए। और लोगों को सत्ता हासिल करने का मौका दे। ताकि जनता के साथ न्याय हो सके। बाला साहेब के रहते ही शिवसेना के टुकड़े हुए थे, तब पिछड़े वर्ग के छगन भुजबल और कद्दावर नारायण राणे जैसे बड़े नाम अलग हो गए थे। लेकिन शिवसेना पर असर उतना नहीं पड़ा जितना कोई दल होता तो उसे पड़ता। ठाकरे नाम के बाद शिवसेना का वजूद नहीं। यह वैसा ही है, जैसे गांधी नाम के बिना कांग्रेस की कल्पना करना। शिवसेना में दो नंबर के नेताओं के कोई मायने नहीं हैं। शिवसैनिकों की भीड़ ही शिवसेना की असली ताकत है। यह साफ है कि राज और उद्धव में से जो भी शिवसैनिकों की भीड़ जुटाएगा, वही सही मायने में 'हिंदू हृदय सम्राट' बन पाएगा। गणित उतना सरल नहीं है, भीड़ जुटाने के मामले में राज और उद्धव के बीच राज ही सरस हैं। फिलहाल तो शिवसेना ब्रांड ही उद्धव के पास है। जब तक उद्धव खुद शिवसेना का नेतृत्व नहीं छोड़ते या बालासाहेब को बेतहाशा प्रेम करनेवाली शिवसैनिकों की भीड़ एमएनएस में शामिल नहीं होती, तब तक राज उस पर काबिज नहीं हो सकते। यह बड़े सवाल हैं जिनका जवाब सियासत के जानकारों के साथ ही आम जनता भी ढूंढ रही है।

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