Tuesday, November 27, 2012
सोना और महंगाई का रिश्ता
सोने आज उस मूल्य पर है, जहां पहले कभी नहीं था। कभी शादी-ब्याहों के मौसम में महंगाई का रास्ता पकड़ने वाली यह पीली धातु अब सालभर रफ्तार पर रहने लगी है। यह संकेत है महंगाई बढ़ने का। मौद्रिक नीति में भारतीय रिजर्व बैंक की कड़ाई के बावजूद ब्रेक जरूर लगा किंतु ठहराव नहीं आया है। कीमतों में स्थिरता के मोर्चे पर भारत अन्य देशों से पिछड़ रहा है। सोने का बढ़ता आयात बता रहा है कि लोगों में इसकी दीवानगी बढ़ रही है। दरअसल, सोने की कीमतों और महंगाई का महत्वपूर्ण सम्बन्ध है।
मुद्रास्फीति की गति में लगातार वृद्धि की कई तरह से विवेचना की जा सकती है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि पहली श्रेणी में शुरूआत में ही मौद्रिक चक्र में सख्ती न करने के कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है यानि देश के नीति-नियंताओं की लापरवाही इसकी वजह बनती है। फिर घरेलू खाद्य कीमतों में इजाफे से महंगाई उछाल पाती है। यह स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य के रास्ते आती है। मानते तो यह भी हैं कि सरकारी पात्रता योजनाओं के कारण ग्रामीण लोगों की आय में वृद्धि से कीमतों पर दबाव बढ़ा है। पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड नहीं आती थी, वहां कृषि से आय प्रमुख थी इसलिये यह समस्या पिछले तीन दशकों से लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर विभिन्न खाद्यान्नों की ऊंची कीमत भी इसके लिए जिम्मेदार रही है। रिजर्व बैंक जो रास्ता अपनाती है, उस रास्ते यानि ब्याज दरों में बदलाव के जरिये मुद्रास्फीति पर नियंत्रण का तरीका यह है कि इससे मौजूदा निवेश और खपत को प्रभावित किया जाए। इसके तहत ऋण को और महंगा किया जा सकता है। केंद्रीय बैंक ने पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में रेपो दर में 13 बार वृद्धि की, और इसे पौने पांच से बढ़ाकर साढ़े आठ प्रतिशत तक पहुंचा दिया। इस अवधि का जिक्र इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यही वो काल था जब सरकार केंद्रीय बैंक के जरिए महंगाई पर काबू करने का पहला अस्त्र चला रही थी। हालांकि इसका असर उतना नहीं हुआ जितना अपेक्षित था और थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पांच-साढ़े पांच फीसदी के सहज दायरे से बाहर चली गई। इस प्रयोग का मनचाहा नतीजा न निकलने के बाद अर्थशास्त्री मानने लगे कि मुद्रास्फीति के आंकलन के बारे में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ज्यादा कारगर है। इस सूचकांक के अनुसार अप्रैल 2012 से मुद्रास्फीति की दर नौ-दस फीसदी के इर्द-गिर्द बनी हुई है। उल्लेखनीय यह है कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में मुद्रा के मुद्रण का काम सन 2007 के पश्चात पूर्ववर्ती समय की तुलना में अधिक तेजी से चल रहा है। तमाम सर्वेक्षणों, यहां तक कि सरकारी राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आफिस के भी सर्वे, का निष्कर्ष है कि गत कुछ वर्षों में देश में लोगों की निजी संपत्ति और हैसियत में जबर्दस्त तेजी आई है। संपत्ति में हुई इस वृद्धि के मूल में अक्टूबर 2009 से करीब एक वर्ष तक वैश्विक स्तर पर स्वर्ण की कीमतों में 75 फीसदी की तेजी बड़ा कारण है।
याद करें, तब सोने की कीमत प्रति औंस 1000 डॉलर के मुकाबले 1750 डॉलर प्रति औंस तक पहुंच गई थी। रुपये की कसौटी पर कसें तो यह अंतर और भी अधिक है। आयात के आंकड़ों का जिक्र भी प्रासंगिक है, भारत में सोने का आयात 13 हजार से 40 हजार टन के बीच है। इसके पीछे भारत के लोगों में सुरक्षित निवेश के तौर पर बड़ी मात्रा में सोना भंडारित करने का चलन है। सोने से बेइंतिहा प्रेम करने वाला भारत अकेला देश है। यहां महिलाओं की भी यह पसंदीदा धातु है। गरीब हो या अन्य किसी भी तबके की, हर महिला चाहती है कि उसके पास सोने का अच्छा-खासा संग्रह हो ताकि वक्त-जरूरत उसे बेचकर काम भी चलाया जा सके। यह तथ्य भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि केवल सोना ही कोई ऐसी वैश्विक जिंस नहीं जिसके मूल्यों में इतनी तेजी से वृद्धि हुई हो। सोने में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो उसे अन्य जिंसों से अलग खड़ा कर देती हैं। यह पीढ़ियों तक घरों में रखी जाती है, यही नहीं यह पीढ़ी दर पीढ़ी अन्य संपत्तियों की तरह हस्तांतरित भी होती है। सोने को मानक मानना पुरानी बात है। बावजूद इसके, आधिकारिक दस्तावेजों में आज भी विभिन्न देशों के सरकारी खजानों और अन्य संस्थानों में रखे हुए स्वर्ण भंडारों को विदेशी मुद्रा के बराबर माना जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक वर्ष 2009 में भारत में निजी तौर पर 17 हजार टन सोने का स्टॉक था जिसकी कीमत वर्ष 2012 के अक्टूबर महीने में तकरीबन 960 अरब डॉलर यानी कुल जीडीपी के 50 फीसदी से ज्यादा थी। इससे तीन साल पहले यह मात्र 550 अरब डॉलर था। देश में लोगों के बाद ज्यादा वित्तीय परिसंपत्तियों की कीमतों में गिरावट के दौरान भी सोने के मूल्यों में हुई बढ़ोतरी ने एक सीमा तक घरेलू खपत को सहारा दिया है। माना यह जा रहा है अगर सोने की कीमतों में तेजी का क्रम आगे भी जारी रहता है तो देश के मौद्रिक प्रशासन को मुद्रास्फीति को काबू करने में और अधिक मशक्कत करनी पड़ेगी। सरकार इस मोर्चे पर सोच नहीं रही। वह भी तब जबकि देश की कमान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथों में है। सन् 1991 में वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन ने नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में आर्थिक उदारवादी नीति अपनाई और विदेशी निवेश को आमंत्रित किया। इससे देश में विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ, परन्तु उनका यह महत्वपूर्ण निर्णय देश के तत्कालीन हालात के वशीभूत होकर मजबूरी में उठाया गया कदम था, न कि सरकार की कल्याणकारी नीतियों का नतीजा। तब हालात ऐसे थे कि आवश्यकता पूरी करने के लिए पेट्रोलियम पदार्थों को खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भी खजाने में नहीं थी। रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर तेल खरीदना पड़ा था। मनमोहन ने इसी वजह से उदारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनाया था। कोशिश थी कि देश में विदेशी मुद्रा का प्रवाह हो सके और विश्व पटल पर साख बच जाए। बाद की सरकारों में भी स्थितियां बहुत बदली नहीं और अन्य दलों की सरकारें भी नीति बदल नहीं पार्इं। कोई यदि उदारवादी नीतियों के लिए मनमोहन को श्रेय देता है तो यह उसकी गलती है। दरअसल, यह देश की अर्थव्यवस्था की मजबूरी ही है।
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