Monday, December 3, 2012

सियासी बिसात पर सपा का जाति कार्ड

उत्तर प्रदेश में सियासत की नई बिसात बिछ रही है। सपा ने लोकसभा चुनावों की रणनीति के तहत जातिवाद का वह कार्ड चलने की तैयारी की है जो विपक्षी बसपा की नींद उड़ा रहा है। वह 17 उन जातियों को पिछड़ी से अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने जा रही है, जो अब तक बसपा की वोट बैंक कही जाती थीं। ज्यादा फायदे का सौदा किसे पसंद नहीं, सत्ता की इस रिश्वत से वोट बैंक का हस्तांतरण तय माना जा रहा है। सपा का यह दांव अन्य विपक्षी दलों पर भी भारी पड़ना तय है। निषाद, मल्लाह, केवट, बिंद, कश्यप, कहार, राजभर अब तक बसपा की वोट बैंक हैं। इन जातियों के कार्यकर्ताओं की बात छोड़ें, सबसे ज्यादा नेता तक बसपा में हैं। सरकार ने इन जातियों समेत 17 उप जातियों को फिर से अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने के लिए उप समिति गठित की है। कैबिनेट से गठित इस उप समिति की सिफारिश पर राज्य सरकार केंद्र को रिपोर्ट भेजेगी, क्योंकि अनुसूचित जाति में शामिल करने या हटाने की प्रक्रिया केंद्र स्तर पर ही सम्पन्न की जाती है। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में इस सम्बन्ध में प्रस्ताव भेजा गया था, उप समिति दो महीने के भीतर नई संस्तुतियां भेजेगी। बसपा विरोध कर रही है। उसका कहना है कि यदि प्रस्ताव भेजा ही जा चुका है, तो उप समिति के गठन का औचित्य क्या है। सत्ता हाथ से जाने के बाद मानसिक तौर पर शून्य की सी स्थिति में पहुंच गई बसपा काट ढूंढ नहीं पा रही। वह प्रदेश के अवाम का मिजाज जानती है जो जाति और धर्म को प्रथम प्राथमिकता दिया करता है। यह वह राज्य है जहां वोट हासिल करने के लिए जाति और धर्म के प्रयोग की लम्बी परंपरा है। किसी समय यहां ह्यअजगरह्ण और ह्यमजगरह्ण की बात हुआ करती थी। अहीर, जाट, गूजर और राजपूत इस समीकरण के सबसे बड़े आधार होते थे। मुस्लिम वोट लंबे समय तक कांग्रेस के माने जाते थे, पर बाद में जब समाजवादियों के कारण उनका वोट बैंक बना, तो उसमें मुस्लिमों को शामिल कर उसे ह्यमजगरह्ण कहा जाने लगा। सपा मुस्लिमों में बसपा से बढ़त प्राप्त करती रही है। दलित और पिछड़े वोटों को भुनाने के लिए यहां प्रतिस्पर्धा है। पिछड़े और अशिक्षित उत्तर प्रदेश से जब उत्तराखंड को अलग किया गया, तब से राजनीतिज्ञों के मन में यह बात घर कर गई कि भविष्य में प्रदेश का और भी विभाजन हो सकता है इसीलिए मायावती ने प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव तैयार किया। कहा जाता है कि मायावती के समर्थक पहले वोट, फिर रोटी के नारे पर मतदान के दिन सुबह ही घर से निकला करते हैं और वोट डालकर ही अन्य काम किया करते हैं। उन्हें डर रहता है कि बाद में उनके वोट फर्जी ढंग से बसपा से इतर किसी अन्य प्रत्याशी को न पड़ जाएं। इन समर्थकों में सबसे ज्यादा अनुसूचित जाति के लोग हैं। सपा हो या अन्य कोई दल, बसपा के इन जुनूनी मतदाताओं पर सभी की लार टपकती रहती है। इन्हें अपनी ओर लाने की कोशिशें भी इसीलिये की जाती हैं। राज्य में मुसलमान वोटों की मारामारी भी कम नहीं है। आपातकाल के बाद मुस्लिम वोट भले ही कांग्रेस की झोली से निकल गए हों, पर वे जिसको भी मिले, एकमुश्त मिले, इसलिए हर पार्टी इनको लुभाने के दांव चलती रही। सपा के बाद मुस्लिम मत बसपा और कांग्रेस में बंटते नजर आते हैं। केंद्र सरकार ने इस वोट बैंक को रिझाने के लिए कई प्रयास किए हैं। उसने उन्हें पिछड़ों के कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रखा है। प्रभावशाली देवबंद मदरसे को खुश करके अपना घोड़ा आगे बढ़ाया है। पिछले कुछ वर्षों से कानून-कायदे और संसद में पास होने वाले बिलों में भी इस स्वर को अधिक बुलंद किया गया कि कांग्रेस मुस्लिमों के प्रति समर्पित है। आतंकवाद के आरोपियों को विभिन्न जेलों से छोड़े जाने और उन पर लगे आरोपों को निरस्त कराने की कवायद भी यह पार्टी करती रही है। हालांकि इस होड़ में अब सपा भी है, उसने दंगों समेत तमाम गंभीरतम आरोपों में फंसे लोगों से मुकदमे वापस लेने की कवायद शुरू की है, उसके यह प्रयास अदालती चक्रव्यूह में फंसे हैं और उनकी आलोचनाएं भी हुई हैं। मुस्लिम मतों पर इतनी मारामारी है कि इतने प्रयासों पर भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को उतनी अहमियत नहीं दी गई जितनी उसने अपेक्षा की थी। एक समय था कि मुस्लिम मतदाताओं पर उनके नेताओं की जोर-जबर्दस्ती चलती थी, पर पिछले वर्षों में मतदाता परिपक्व हुआ है। नेता तो ठीक, अब तो मौलानाओं के फतवों की भी चिंता वह नहीं किया करता है। दरअसल, वर्तमान पीढ़ी की सोच बदली है। वह धमकी और लालच से परे है, इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि कोई भी दल उन्हें आसानी से फुसला सकता है। यह समस्या और है, जनमोर्चा, यूनाईटेड फ्रंट, पीस पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल, वेलफेयर पार्टी आॅफ इंडिया जैसे दल भी मुस्लिम मतों पर हिस्सा बंटाने आ गए हैं। गत चुनावों में इन्हें भी खासे वोट हासिल हुए हैं। स्थानीय मुसलमानों पर अपनी पकड़ के चलते कई इलाकों में इन दलों ने राज्य और राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का खेल बिगाड़ा है। प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक की चर्चा करते वक्त यह भी ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि यहां कुल 16 प्रतिशत वोटों में 11 प्रतिशत वोट सुन्नियों के हैं और पांच प्रतिशत शियाओं के। यदि विधानसभा सीट वार आंकलन करें तो 23 विधानसभा सीटों पर शिया निर्णायक हैं जबकि 106 सीटों पर शिया मतदाता हैं। सुन्नी मुस्लिमों की संख्या प्रदेश में तमाम सीटों पर अच्छी-खासी हैं, विशेषकर मुरादाबाद, आगरा, कानपुर, वाराणसी आदि में। मुस्लिम मतों पर इसी आपाधापी और अपना अच्छा स्थान होने से निश्चिंत सपा ने इसीलिये बसपा के वोट बैंक मानी जाने वाली जातियों को अपने पाले में खींचने की कोशिशें की हैं। इनके अनुसूचित जाति में शामिल होने का प्रदेश की सियासत पर बड़ा असर पड़ेगा, यह तय है। सपा ने समझदारी से बड़ा कार्ड चला है, इससे न केवल बसपा या कांग्रेस बल्कि कांग्रेस के खेमे में भी बड़ी हलचल मची है। सत्ता के इस प्रस्ताव की काट उन्हें ढूंढे नहीं मिल रही। लोकसभा चुनावों के लिए सपा का यह बड़ा दांव है।

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