Monday, December 17, 2012

मुलायम का दांव और सवर्ण-मुस्लिम पाले में

समाजवादी पार्टी ने बरसों से बंद आरक्षण की वो पिटारी खोल दी है जो जब-जब खुली, आक्रोश की वजह बन गई। सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के आरक्षण का मुद्दा फंस चुका है और सपा अन्य दलों से बहुत आगे है। सवर्ण और मुस्लिम मतों पर उसका निशाना एक साथ लगा है। राज्यसभा ने बेशक, इस सम्बन्ध में संविधान संशोधऩ का बिल पास कर दिया है लेकिन उत्तर प्रदेश में हड़ताल जारी है और आग उत्तराखण्ड समेत अन्य राज्यों में पहुंच गई है। हड़ताल से राज्य कर्मचारी समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के खेमों में बंट गए हैं। राजनीतिक नुकसान का आंकलन होने लगा है, कांग्रेस और भाजपा को डर लग रहा है कि कहीं सवर्ण और पिछड़ा वर्ग की जातियां उनसे रूठ न जाएं। कांग्रेस को तो मुस्लिमों का भी डर है। इस बार सपा मुखिया राजनीति के चाणक्य सिद्ध हुए हैं। प्रोन्नति में आरक्षण विरोध कर जहां वह सवर्णों के दिल के करीब पहुंचे हैं, वहीं सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर मुस्लिमों के लिए आरक्षण मांगकर मुसलमानों को अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे हैं। पूरा गणित उन्होंने जिस तरह फैलाया है कि अन्य दल चारों खाने चित्त हैं। विरोध बसपा की मजबूरी है और इससे उसे फायदा नहीं हो रहा बल्कि पुराना वोट बैंक बच भर रहा है। सपा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देकर विरोध पर उतारू है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले से उत्तर प्रदेश की सरकारी नौकरियों में दलित वर्ग के लिए पदोन्नति में आरक्षण और वरिष्ठता के नियम को गैरकानूनी करार दिया था। समाजवादी पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करके पांच साल से रुकी पदोन्नति की प्रक्रिया को पुन: शुरू कर दिया है और दलित वर्ग के लोग सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए संविधान संशोधन की मांग कर रहे हैं। सरकार संशोधन को तैयार भी है। इसके तहत संविधान संशोधन 17 साल पहले के पूर्ववर्ती प्रभाव से लागू किया जा रहा है। आरक्षण विरोधी कह रहे हैं कि इससे कनिष्ठ कर्मचारी अपने सीनियर के ऊपर हो जाएंगे। आरक्षण की समस्या बरसों पुरानी है जो संविधान बनने से लेकर आज तक सुलझने के बजाए उलझती ही रही है। दरअसल, समाज का वह वर्ग, जो समाज की दिशा तय करता आया है, इसे अपनी परंपरागत स्थिति के लिए खतरा मानता है। आरक्षण जातिबद्ध समाज को समता आधारित समाज में बदलने का एकमात्र संवैधानिक उपाय माना गया था और इसकी समयसीमा तय हुई थी लेकिन बाद में वोटों की राजनीति के तहत निर्णय किए जाते रहे। समानता के लिए पहला कदम जातिवार जनगणना के जरिए जातियों के संबंध में सही आंकड़े इकट्ठा करना था लेकिन इससे सभी सरकारें बचती रहीं। शासक वर्ग ने समस्या का हल करने और उपेक्षित जातियों को समानता तक लाने के स्थान पर आरक्षण को पैंतरे की तरह प्रयोग किया। वह अंग्रेजी की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति के तहत चलते रहे। फूट नहीं होती तो सत्ता के समीकरण वो नहीं होते, जो आज हैं। जातिगत विभाजन की कोशिशें 1932 में शुरू हुर्इं जब कम्युनल अवार्ड से अनुसूचित जातियों और जनजातियों को शेष हिंदुओं से अलग किया गया। इसके बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उस शूद्र समाज से भी अलग किया जो एक इकाई के रूप में जाति-व्यवस्था के खिलाफ लम्बे समय से संघर्षरत था। 1907 में डिप्रेस्ड क्लासेस लीग बनने से लेकर 1932 तक जाति-व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाला यही एक जरिया था। ब्रिटिश सरकार के बाद कांग्रेस भी उसी नीति पर चली। तय है कि इससे अनुसूचित जातियों में बेचैनी का भाव है। वह किसी भी तरह आरक्षण का अपना हक खोना नहीं चाहतीं। याद कीजिए, मंडल आयोग की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद की स्थिति को। तब इंदिरा साहनी मामले (1992) में आए इस फैसले के पश्चात अनुसूचित जातियों ने पिछड़े वर्गों पर क्रीमीलेयर का संविधान-विरोधी सिद्धांत लागू करने का विरोध नहीं किया क्योंकि यह उनके आरक्षण पर लागू नहीं हुआ था। इसी तरह पदोन्नति में आरक्षण का निषेध भी पिछड़े वर्गों के संदर्भ में ही हुआ था, यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर लागू नहीं होता था। फिर भी उन्हें चिंता हुई कि यह नियम किसी भी दिन उन पर भी लागू हो सकता है। उन्होंने राजनेताओं पर जोर डालना शुरू किया कि उनकी पदोन्नतियों में आरक्षण को सुरक्षित रखा जाए पर पिछड़ों को भी पदोन्नतियों में आरक्षण मिले यह मांग उन्होंने कभी नहीं की। देश में अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की सियासत के रूप में भी राजनीति का वर्गीकरण हुआ है। बसपा जैसे दल जहां खुलकर अनुसूचित जातियों की सियासत करते हैं, वहीं अन्य कई पार्टियां पिछड़े वर्ग की भावनाओं का इस्तेमाल कर रही हैं। मौजूदा स्थिति बसपा के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है क्योंकि आरक्षण का मसला उसके वोट बैंक से सीधे जुड़ा हुआ है। राज्यसभा में मर्यादाओं से आगे बढ़कर सभापति हामिद अंसारी पर कटाक्ष का मायावती का मकसद भी यही था कि उनके वोट बैंक के पास यह संकेत कतई न जाए कि उनका रवैया ढीला है। अनुसूचित जातियों के वोटों पर कांग्रेस की भी नजर है, इसीलिये वह संविधान संशोधन विधेयक को किसी तरह पारित कराना चाहती है। यह वही कांग्रेस है जिसने 1995 में संविधान संशोधन के माध्यम से ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था की थी और पिछड़े वर्गों को इसमें शामिल नहीं किया था। इससे अनुसूचित जातियां और जनजातियां प्रसन्न हुई थीं कि पिछड़ों को यह लाभ नहीं मिलेगा। 1992 के फैसले में यह व्यवस्था भी थी कि कोटे के जो पद भरे नहीं जाएंगे वे खत्म नहीं होंगे बल्कि जमा रहेंगे। हालांकि उसने आरक्षण पर पचास प्रतिशत की सीमा बांध दी थी। आरक्षण के इस मसले पर सभी सरकारों का जो रवैया रहा है, वह कुल मिलाकर निराशाजनक ही कहा जा सकता है। सरकारें वोट बैंक के आधार पर फैसले कर रही हैं और सामाजिक असंतुलन की स्थिति से मुंह मोड़े हुए हैं। जरूरत सतर्क विश्लेषण और निर्णय की है। सरकारी नौकरियों में चयन सरकार की अपनी ही दी हुई एक निश्चित व्यवस्था के अधीन होता है। इसके बावजूद यदि उसे लगातार आरक्षण का दायरा बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है तो तय है कि उसकी खुद की व्यवस्था में ही खामियां हैं। और अपनी दी हुई व्यवस्था की निष्पक्षता पर स्वयं सरकार का ही भरोसा नहीं है, बाकी जनता उस पर कैसे विश्वास कर सकती? यह सीधे तौर पर स्वयं सरकार की अपनी अक्षमता और विफलता है। अगर स्वतंत्रता के बाद से अब तक के 65 वर्षों में आरक्षण की व्यवस्था से हम उपेक्षित वर्गों का उत्थान सुनिश्चित नहीं कर पाए तो साफ है कि हम भविष्य में भी कामयाब होने का सपना नहीं पाल सकते। यह सिर्फ एक प्रलोभन है और किसी के हित के अनुकूल नहीं।

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