Monday, June 18, 2012

'लॉस काबोस' से यूरोजोन की उम्मीदें

मैक्सिको के लॉस काबोस में जी-20 की शिखर बैठक में भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जो कहा, उम्मीदें उससे ज्यादा की थीं। दिग्गज अर्थशास्त्री और बैठक के भागीदार नेताओं में सबसे बुजुर्ग 79 वर्षीय मनमोहन का भाषण मात्र अपने स्वभाव के अनुरूप गहराते आर्थिक संकट पर चिंता और उम्मीद जताने तक ही सिमटकर रह गया। ऐसे समय में जबकि यूरोजोन संकट की वजह से दुनिया एक बार फिर भीषण मंदी की चपेट में आने की आशंका से भयभीत है, सीमित दायरे का यह भाषण निराशा पैदा कर रहा है। भारत भी भारत को फिलहाल कम आर्थिक वृद्धि दर की समस्या से दो-चार है और आर्थिक वृद्धि दर पिछले लगभग एक दशक के सबसे निचले स्तर पर रह गई है। दरअसल विश्व समुदाय में वर्ष 2008 की तरह ही हालात फिर से पैदा होते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में विश्व आर्थिक मंदी के संकट से घिरता दिखाई दे रहा है। समूह की यह सबसे अहम बैठक है। नवम्बर 2011 के कान सम्मेलन के बाद इतनी जल्दी बैठक आयोजित करने का मकसद ही आर्थिक समस्या का हल ढूंढना है। दरअसल, वैश्विक अर्थव्यवस्था को इस समय जिन चुनौतियों से खतरा है, वे वही हैं जिनका सामना फ्रांस के कान में आयोजित अपनी पिछली शिखर बैठक में थीं बल्कि अब अधिक खतरनाक रूप में सामने हैं। कान शिखर बैठक का एजेंडा यूरो क्षेत्र में एक के बाद एक सामने आ रहे संकट की भेंट चढ़ गया था। खासतौर पर ग्रीस का मसला उस वक्त हावी था। शिखर बैठक समस्या पर समग्र विचार करने में नाकाम रही। इसके परिणामस्वरूप समस्या पुर्तगाल, आयरलैंड और ग्रीस से कहीं अधिक आगे निकलकर यूरो क्षेत्र की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले मुल्कों स्पेन, इटली और यहां तक कि फ्रांस की ओर बढऩे लगी। कान में आयोजित बैठक के बाद से ही उनके सॉवरिन बॉन्ड नियंत्रण से बाहर होने लगे। उस वक्त यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) ने लंबी अवधि की पुनर्वित्तीय योजनाओं (एलटीआरओ) के जरिये यूरोपीय क्षेत्र को बचाया लेकिन अब उस उपाय के बाद सॉवरिन बॉन्ड बाजार में हालात एक बार फिर खराब होने लगे हैं। स्पेन ने 6 फीसदी के खतरनाक अवरोध को तोड़ दिया है और इटली को भी बेहतर प्रतिफल की तलाश है। आश्चर्यजनक रूप से फ्रांस में सत्ता परिवर्तन होने के बाद वहां प्रतिफल लाभ की स्थिति में जा रहा है। लॉस काबोस में नेताओं को यूरो क्षेत्र की कहीं अधिक चिंताजनक स्थितियों से दो चार होना पड़ रहा है क्योंकि विभिन्न मुल्कों की सरकारें चुपचाप ग्रीस को संगठन से बाहर करने की कवायद में लगी हैं। आशंका है कि एक बार फिर लॉस काबोस में आयोजित जी 20 शिखर बैठक भी यूरो क्षेत्र की चर्चाओं पर ही केंद्रित रह जाएगी। कान में नेताओं के सामने एक और बड़ी चुनौती फिजूलखर्ची रोकने (बाजार जनित वित्तीय समायोजन) और विकास (उत्पादन के अंतर को पाटने के लिए वित्तीय विस्तार) में से किसी एक का चयन था। इस उधेड़बुन से निकलने के लिए लंबी और छोटी अवधि की दो योजनाएं सुझाई गईं। संदेश दिया गया कि जिनके पास वित्तीय सहूलियत है वे इसमें तेजी लाएं और जिनके पास नहीं है वे वित्तीय समायोजन पर ध्यान दें। इस तरह बाजार को यह संदेश गया कि अर्थव्यवस्थाओं को तब तक तेजी लाने की कोशिश करनी चाहिए जब तक बाजार उन्हें अनुशासित न बना दे या फिर वे ऐसे मोड़ पर न पहुंच जाएं जहां उत्पादन में अंतर के बावजूद उन्हें समायोजन की जरूरत पड़े। हालांकि सॉवरिन बॉन्ड्स की वजह से कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में यह भ्रम पैदा हुआ है कि उन्हें वित्तीय तेजी की जरूरत है और फिलहाल उन्हें समायोजन की जरूरत नहीं है। लॉस काबोस में नेताओं के सामने और गंभीर चुनौती होगी मतदाताओं ने मसलों को बाजार के साथ जोड़ दिया है और जहां कहीं भी चुनाव हुए हैं वहां फिजूलखर्ची के विरोध में मतदान कर सत्ता में काबिज सरकार को बाहर का रास्ता दिखाया है। उनसे एक संयोजित कार्य रणनीति तैयार करने की उम्मीद की जाएगी ताकि सुस्त पड़ते विकास में नई जान फूंकी जा सके। कान में नेताओं के सामने तीसरी बड़ी चुनौती लंगड़ाता वैश्विक सुधार और बेरोजगारी खासतौर पर युवा बेरोजगारी का ऊंचा स्तर है। कान की कार्य योजना को विकास और रोजगार का नाम दिया गया था क्योंकि बेरोजगारी एक गर्म राजनीतिक मुद्दा बन गया था और विकास, वैश्विक असंतुलन और विनिमय दरों को लेकर फिक्रमंदी भी बनी हुई थी। अगर बेरोजगारी के आंकड़े में उन हतोत्साहित कामगारों को जोडऩे की छूट दी जाए जिन्होंने अपने काम की खोज छोड़ दी है तो परिभाषा के अनुसार वे अब बेरोजगार नहीं कहलाएंगे। मगर कान के बाद से ज्यादातर विकसित देशों में रोजगार की स्थिति और खराब हुई है। लॉस काबोस एजेंडे में एक बार फिर विकास और रोजगार सबसे ऊपर रहेगा। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरो क्षेत्र और चीन, ब्राजील व भारत जैसे प्रमुख उभरते देशों के लघु अवधि के आर्थिक आंकड़े एक बार फिर से मंदी की ओर इशारा कर रहे हैं। कान में वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए चौथा खतरा तेल बाजार में उतार-चढ़ाव को लेकर था जो वैश्विक बाजार में कमजोर मांग और विश्वास की वजह से निराशाजनक स्थिति में था और इस तरह उभरते बाजारों में सुधार के पटरी से उतरने का खतरा बना हुआ था। इस बार न केवल कान की तरह ही खतरा बना हुआ है बल्कि स्थिति पिछली बार से गंभीर है और आपूर्ति में कमी का नया खतरा भी मंडराने लगा है। तो फिर कान से लेकर अब तक क्या बदलाव आया है? पहला, कान सम्मेलन के बाद से स्पेन, इटली और फ्रांस के सॉवरिन बॉन्ड के यील्ड बढ़े थे, पर इस दफा सम्मेलन के पहले भी ये बढ़ रहे हैं। दूसरा, यह विश्वास अब गहरा गया है कि वैश्विक असंतुलन के लिए जिम्मेदार सबसे बड़े देश चीन का चालू खाता सरप्लस अब हमेशा के लिए कम हो गया है। वैश्विक असंतुलन का सबसे बड़ा स्रोत अब तेल निर्यातक देशों (खासतौर पर ओपेक, नॉर्वे और रूस) की ओर खिसक गया है। इस नए असंतुलन से निपटने के लिए जी-20 को एक नई रणनीति बनानी होगी। तीसरे, अब चूंकि मतदाता फिजूलखर्ची के खिलाफ मतदान कर रहे हैं, ऐसे में जी-20 की प्रतिबद्धताओं की साख को बाजार बारीकी से परखेगा। लॉस काबोस सम्मेलन को तीन संवेदनशील मसलों पर विचार करना होगा। पहला, जर्मनी यूरो क्षेत्र मामले में जी-20 के हस्तक्षेप को बहुत सहजता से स्वीकार नहीं करेगा, इस वजह से जी-20 को वैश्विक आर्थिक सहयोग का प्रमुख फोरम मानने में उसे आपत्ति होगी। दूसरा, हरित विकास पर मेक्सिको काफी ध्यान दे रहा है और उसके अमेरिकी पड़ोसी ब्राजील को इस पर आपत्ति है क्योंकि जी-20 के तत्काल बाद रियो 20 सम्मेलन होने जा रहा है, जिसका महत्व इस वजह से कम हो सकता है। तीसरा, चीन भी जी-20 से नाराज है क्योंकि उसे उसके पुनर्संतुलन प्रयासों के लिए पर्याप्त वाहवाही नहीं मिली है। जी-20 का मध्यम अवधि का एजेंडा सफलतापूर्वक धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है तो वहीं लॉस काबोस सम्मेलन कितना सफल रहता है इसका पता इस बात से चलेगा कि वह इन चार बड़े खतरों पर क्या कदम उठाती है। नेतृत्व संकट होने की वजह से जी-20 के सातवें सम्मेलन से किसी बड़े निष्कर्ष की उम्मीद नहीं है। लॉस काबोस से तो इतनी कम उम्मीदें हैं कि यहां से जो भी निकलेगा वह ज्यादा ही होगा, कम की तो गुंजाइश ही नहीं बनती है।

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