Friday, June 15, 2012

'रायसीना' के रास्ते पर प्रणब

राष्ट्रपति पद के चुनाव में प्रणब मुखर्जी सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रत्याशी होंगे। समृद्ध राजनीतिक अनुभवों, सामाजिक दायित्वों का अथक निर्वाह करने वाले प्रणब की भावी भूमिका को लेकर उम्मीदें बंध रही हैं। हालांकि डर यह भी है कि वह 'पीपुल्स प्रेसीडेंट' सिद्ध होने के बजाए अपनी पार्टीगत निष्ठाओं में न फंस जाएं। जिस लक्ष्य को लेकर उन्हें कांग्रेस मैदान में उतार रही है, अगली लोकसभा के त्रिशंकु होने की स्थिति में क्या वह काम आएंगे यानि सोनिया गांधी क्या मुखर्जी पर पूरा भरोसा कर सकती हैं? हालांकि नए बने समीकरणों में उनका राष्ट्रपति भवन यानि रायसीना हिल्स पहुंचना तय है। स्वतंत्रता सेनानी परिवार में जन्मे प्रणब 1984 में दुनिया के पांच शीर्ष वित्तमंत्रियों की सूची में स्थान दिया गया। केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री के तौर पर मुखर्जी ने विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी सोच को लेकर अडिग रहने वाले प्रणब मुखर्जी को एक बार राजीव गांधी से अनबन के चलते 1984-89 तक कांग्रेस से बाहर का रास्ता भी देखना पड़ा। उनके हिमायती इसी बात से उनके कठपुतली होने की धारणा को बेबुनियाद बताते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी प्रणब दा की साख बेमिसाल है। वित्त मंत्रालय के अलावा भी सरकार को प्रणब दा के अनुभवों से लाभ मिलता रहता है। वह प्रधानमंत्री नहीं लेकिन सबसे ज्यादा अंतरमंत्रालय समूहों की अध्यक्षता करते हैं। उन्हें सरकार का असली ड्राइवर तक कहा जाता है। प्रणब से और भी उम्मीदें हैं। कहा जा रहा है कि वह अगर राष्ट्रपति पद को नए तरीके से परिभाषित करने में कामयाब रहे तो सशक्त लोकपाल जैसी लोकतंत्र के पहरेदारों की जरूरत समाप्त हो जाएगी। प्रणब दा की थोड़ी सी सक्रियता देश को विकास के नए पथ पर ले जा सकती है। सरकार और विपक्ष को दो पहिए बनाकर देश के विकास रथ को दौड़ने में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं, प्रणब के लिए यह असंभव भी नहीं क्योंकि विपक्ष से सदैव उनके अच्छे संबंध रहते आए हैं। इससे संसद के बाहर बन रहे दबाव समूहों का प्रभाव भी कम होगा, लोगों के अंदर लोकतंत्रात्मक ढ़ांचे को लेकर भरोसा भी पैदा होगा। वक्त की भी मांग है कि राष्ट्रपति की सशक्त भूमिका को फिर से परिभाषित किया जाये, जो लोकतंत्रात्मक ढ़ांचे में बिना टकराव पैदा किये देश के लिए नई आशा का संचार करे। समर्थक कहते हैं कि उनकी कूटनीति के चलते ही आतंकवाद की पनाहगाह बना पाकिस्तान आज उस अमेरिका के निशाने पर है, जो कभी जिगरी दोस्त होने का दम भरता था। असल में प्रणब मुखर्जी का नाम सामने लाकर कांग्रेस ने उन तमाम राजनीतिक सहयोगियों का भी भरोसा जीत लिया है, जो कांग्रेस पर भरोसा करने से कतराते हैं जिनमें शरद पवार सबसे ऊपर हैं। कांग्रेस की रणनीति दरअसल 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर है। कांग्रेस ही नहीं, हर पार्टी की चाहत होती है कि राष्ट्रपति भवन में एकदम भरोसे वाला आदमी ही पहुंचे क्योंकि गठबंधन सरकारों के दौर में राष्ट्रपति की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है। त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की एकसमान सीटें होती हैं तो राष्ट्रपति की भूमिका अहम हो जाएगी तब राष्ट्रपति किसी को भी सरकार बनाने के लिए बुला सकते हैं। यह बात दूसरी है कि सरकार बनाने वाले को सदन के अंदर अपना बहुमत साबित करना होगा लेकिन पहला मौका तो उसे मिल ही सकता है जिस तरह से डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा ने 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था। इसी पहलू के चलते प्रणब मुखर्जी को लेकर आशंकाएं हैं कि क्या वह ऐसी किसी स्थिति के आने पर कांग्रेस की मदद करेंगे? उनको नजदीक से जानने वाले तर्क रखते हैं कि अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम सालों में वह ज्ञानी जैल सिंह तो नहीं ही बनेंगे। इसी से जुड़ा एक सवाल और भी उठ रहा है कि इस तरह के हालात पैदा होने पर क्या वह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने में मदद करेंगे? एक दौर ऐसा भी था, जब देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के नामों को एक साल पहले तक तय कर लिया जाता था। इंदिरा गांधी ने 1981 में आर वेंकटरमन को बता दिया था कि 1982 में हम आपको उपराष्ट्रपति बना रहे हैं लेकिन वह जमाना एक पार्टी के बहुमत वाला था। अब ऐसा नहीं हो सकता। वैसे कांग्रेस पार्टी के काम करने की एक शैली यह भी रही है कि वह आखिरी समय में फैसले करती है। प्रणब का नाम भी देर से घोषित हुआ हालांकि अटकलें पहले से लग रही थीं। जिस तरह से उनका नाम सामने आया, वह हालात भी कांग्रेस के अनुकूल नहीं। उसकी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस बगावत पर उतारू है। हालांकि कांग्रेस के लिए यह राहत की बात है कि ममता का समर्थन कर रही समाजवादी पार्टी ने प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर दिया है। बहुजन समाज पार्टी भी साथ है। दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने प्रणब के चयन से असहमति जताते हुए संकेत दिए हैं कि वह कोई अलग रणनीति बनाएगा। उसके नजदीकी माने जाने वाले दो दल अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के साथ हैं। दिलचस्प बात ये है कि उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने अब तक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर उनके नाम की घोषणा नहीं की है। गठबंधन अंदरखाने पूर्व राष्ट्रपति कलाम के नाम पर रजामंदी जताता रहा है। संगमा का नाम सामने आने ने उसे उलझा दिया है हालांकि ममता के प्रत्याशी का समर्थन उसे पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में फायदे का सौदा प्रतीत हो रहा है।

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