Thursday, June 7, 2012

डिंपल को वॉकओवर का मतलब...

समाजवादी पार्टी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि फीरोजाबाद से लोकसभा का चुनाव हारने वालीं मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधु डिंपल यादव कन्नौज में इतनी आसानी से जीत सकती हैं। डिंपल समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी हैं और वहां न प्रमुख विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी का प्रत्याशी मैदान में है और न ही खुद को केंद्र की सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार मानने वाली भारतीय जनता पार्टी ही वहां चुनौती दे रही है। अपने-अपने स्वार्थों में सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने जैसे सियासत का नंगा खेल दिखाया है। ठगा सा महसूस कर रही जनता यदि सपा से नाराजगी का इजहार करना चाहे तो कैसे करे। लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत तो यह कतई नहीं है। कन्‍नौज लोकसभा सीट पर सपा ने मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव की पत्‍नी डिंपल यादव को प्रत्‍याशी घोषित किया है। इसके बाद कांग्रेस ने एलान करने में देरी नहीं लगाई कि वह डिंपल के खिलाफ प्रत्‍याशी नहीं उतारेगी। राजनीतिक हल्‍कों में इसे राष्‍ट्रपति पद पर सौदेबाजी के तौर भी देखा जा रहा है। लोगों का आंकलन है कि कांग्रेस जिस किसी को भी राष्‍ट्रपति पद का उम्‍मीदवार बनाएगी, सपा उसे समर्थन देगी। वजह और भी हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के लिए यहां हार से मुश्किलें हो सकती थीं। हाल ही में पेट्रोल पर बड़ी मूल्यवृद्धि से खफा जनता उसके विरुद्ध मतदान का विकल्प प्रयोग कर सकती थी। बुरी तरह हार से यह संकेत देने में अन्य दल देर नहीं लगाते कि कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों में हार के रास्ते जा रही है और यह उसकी हार की कहानी का आगाज है। लोकसभा चुनाव बाद की सियासत में यदि मुलायम सिंह यादव की पार्टी का पलड़ा भारी होता है तो इस समर्थन से सौदेबाजी का रास्ता खुलने में आसानी रहेगी। विधानसभा चुनावों में सपा की जबर्दस्त जीत से उसे यह तो लगता ही है कि वह खुद तो राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनने से रही, सपा की मदद से उसे केंद्र की सत्ता दोबारा मिल सकेगी। एक और वजह है। चुनाव पूर्व यदि सपा से गठबंधन की स्थिति आती है तो उसमें भी आसानी होगी। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, कांग्रेस पार्टी का यहां कोई विशेष जनाधार नहीं है। योगगुरू बाबा रामदेव और समाजसेवी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की छवि को बहुत धक्का पहुंचाया है। आजादी के बाद से कांग्रेस सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रही है। इसलिये देश में आजादी के पश्चात् भ्रष्टाचार के फलने-फूलने की जिम्मेदारी भी उस पर आती है। कांग्रेस के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुद्दा उससे सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है। सबसे बड़ा वोट बैंक सिद्ध होते रहे मुसलमान भी उसके पक्ष में नहीं रहे। उसने गरीब मुसलमानों को आरक्षण का चारा फेंका, बटला हाउस मुठभेड़ में गलत रवैया अपनाया, मुस्लिम वोट फिर भी उसके पास नहीं आए। दूसरी तरफ सपा को यह वोट मिलते हैं, कांग्रेस को लगता है कि सपा को उप चुनाव में समर्थन मुसलमानों में अच्छा संकेत देगा। पार्टी का कहना है कि लोकसभा के 2009 के चुनाव में भी कन्नौज सीट से अखिलेश यादव के खिलाफ कांग्रेस का कोई प्रत्याशी नहीं था। सबसे ज्यादा आश्चर्य बसपा के रुख से हो रहा है। विधानसभा चुनावों में 177 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही यह पार्टी भी डिंपल के विरुद्ध चुनावी मैदान में नहीं है। बसपा का कहना है कि सपा के विकास के दावे की पोल खोलने के लिए पार्टी लोकसभा और विधानसभा उपचुनाव में प्रत्याशी नहीं उतार रही है। बसपा दरअसल, डरी हुई है। उसका डर भी कांग्रेस जैसा है और वह भी नहीं चाहती कि लोकसभा चुनावों से पहले हार से जनता में गलत संदेश जाए। उसकी इच्छा राजनीति के उस पाठ पर टिकी है जिसमें कहा गया है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर हुआ करती है और वह बहुत जल्दी भूल जाया करती है। इसी तरह विस चुनावों की हार भी जनता भूल जाएगी। बसपा इसीलिये निकाय चुनाव अपने चुनाव चिह्न पर नहीं लड़ रही। इसके अलावा कन्नौज बसपा की जमीन भी नहीं और यहां उसका हारना शत-प्रतिशत तय था। बसपा भी आरोपों में घिरी है। सर्वविदित है कि उसने प्रदेश के विकास से भी अधिक पार्कों के विकास और वहां हाथी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर और अपनी सुप्रीमो मायावती की मूर्तियां लगवाने में अधिक रुचि दिखाई और जनता की गाढ़ी कमाई के चालीस हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिए।.यह धन यदि उद्योगों के विकास पर खर्च होता तो प्रदेश बहुत से युवाओं को रोजगार मिल सकता था। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उसने प्रदेश विभाजन का प्रस्ताव लाकर राजनीतिक स्टंट किया किंतु जनता ने नकार दिया। कन्नौज में सपा का जबर्दस्त जनाधार है और राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यहां के सांसद रहे हैं। उन्हीं के त्यागपत्र के बाद यहां उपचुनाव हो रहा है। उसके रुख से जनता कुछ भी सोचे, पर यहां वह अपनी फजीहत बचा पाने में कामयाब रही है। भारतीय जनता पार्टी ने अलग नाटक रचा। अंतिम समय में उसने जगदेव सिंह यादव को प्रत्याशी घोषित किया लेकिन पूरी प्रक्रिया में इतनी देर लगवा दी कि वह परचा भर ही नहीं पाए। वह भी यहां से चुनाव हारना नहीं चाहती थी। इसके साथ ही निकाय चुनावों में पूरी तरह व्यस्त है। अन्य प्रमुख दलों के चुनाव चिह्न के बगैर मैदान में न उतरने को प्लस प्वाइंट मानकर चल रही इस पार्टी को लगता है कि निकाय चुनाव में जबर्दस्त जीत से वह लोकसभा चुनावों से पहले अच्छा संकेत देने में कामयाब रहेगी।

4 comments:

Mayur Sharma said...

Fantastic Mamaji

Mayur Sharma said...
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Mayur Sharma said...
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Mayur Sharma said...
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