
Monday, June 25, 2012
मुर्सी के सामने चुनौतियों का ढेर

Tuesday, June 19, 2012
रायसीना और राजनीति के गठजोड़ का डर
यह अब लगभग तय हो रहा है कि प्रणब मुखर्जी देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। बेशक, वह विद्वान हैं, विनम्र हैं और राजनीति के महापंडित हैं लेकिन एक सवाल सबसे ज्यादा उठ रहा है कि केंद्र सरकार के संकटमोचक प्रणब राष्ट्रपति भवन को राजनीति का केंद्र बनने से रोक पाएंगे या नहीं? कई मौके आने हैं, यूपीए सरकार तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसी बैसाखियों पर टिकी है जो कब संकट बन जाएं पता नहीं। आर्थिक संकट मुंहबायें खड़ा है, वित्तमंत्री हों या नहीं, प्रणब इससे निपटने का रास्ता बताते रहे हैं। फिर अगले लोकसभा चुनावों के बाद देश में त्रिशंकु लोकसभा की संभावना बताई जा रही है जिसमें सबसे अहम राष्ट्रपति का रोल होगा। अध्यापक और फिर पत्रकार भी रहे प्रणव मुखर्जी अपनी सारी विद्वता और विनम्रता के बावजूद इन दिनों लगातार झुकने का रिकार्ड बनाए जा रहे हैं, वह एक निष्पक्ष राष्ट्रपति भी बनकर दिखाएंगे, मन में संदेह खड़ा करता है। चुनौती बड़ी है, प्रणब को अपने निर्णयों को गैर राजनीतिक सिद्ध करना है जिसके लिए संविधान में राष्ट्रपति भवन की प्रतिष्ठा है।
केंद्र की राजनीति में प्रणब से बड़े पद पर बेशक, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हों लेकिन उनकी जैसी छवि किसी की नहीं। उनका बड़ा कद है। सत्ता के बड़े फैसले उनकी भागीदारी के बिना नहीं होते। गठबंधन के दलों की तरफ से मुश्किलें आएं तो वही सम्हालते हैं। हर संकट का हल उनकी भूमिका शुरू होने के बाद होता है, इसलिये वह सरकार के संकटमोचक हैं। यूपीए की केंद्रीय सत्ता के असली संचालक वही हैं। केंद्र सरकार के फैसले लेने वाले मंत्री समूहों और उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूहों में उनकी प्रभावी हिस्सेदारी है। प्रधानमंत्री ने 12 उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह गठित किए हैं, उन सभी के अध्यक्ष प्रणब ही हैं। यह समूह उन मुद्दों पर फैसले करते हैं जो दोबारा कैबिनेट के विचारार्थ नहीं आते और सीधे सदन में भेज दिए जाते हैं। इसके साथ ही अंतर मंत्रालय विवाद हल करने के लिए गठित 30 मंत्री समूहों में 13 की अध्यक्षता उनके हवाले है। कैबिनेट के अधीन 42 अन्य मंत्री समूहों में 25 का अध्यक्ष पद बंगाल का यह नेता संभाल रहा है। कैबिनेट का बोझ हल्का करने के मकसद से छोटे मुद्दों पर विचार के लिए गठित मंत्री समूहों में भी एक उनके सीधे निर्देशन में है। फ़िलहाल तो जैसा कि बताया जाता है कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद अभी भी मनमोहन सिंह उन्हें 'सर' कहकर संबोधित करते हैं। जैसा वह रिज़र्व बैंक के गवर्नर के टाइम में उन्हें कहा करते थे। प्रणव इसके लिए उन्हें हमेशा टोकते रहते हैं कि नहीं अब आप 'सर' हैं। जो भी हो अब समय एक बार फिर करवट ले रहा है और प्रणव मुखर्जी मनमोहन सिंह के फिर से सर होने जा रहे हैं। प्रेसीडेंट सर। लेकिन बात इससे भी आगे की है। यूपीए ने कोई सक्षम प्रत्याशी न मिलने की सूरत में मजबूरी में प्रणब पर दांव लगाया है। उसे लगता था कि कमजोर प्रत्याशी खड़ा करने पर उसे तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाई में दूसरे पक्ष से मात खानी पड़ सकती है। राष्ट्रपति का चुनाव हारने का मतलब गलत लगाया जाता। कहा जाता कि केंद्रीय सत्ता बहुमत विहीन है और अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पड़ता। प्रणब फिर संकटमोचक सिद्ध हुए लेकिन कांग्रेस उनकी विकल्पहीनता परेशान हो रही है। उसे लग रहा है कि भविष्य में कोई बड़ा संकट आया तो उसका हल वह कैसे ढूंढेगी। इसी विकल्पहीनता से राष्ट्रपति भवन के राजनीति का केंद्र बनने का डर उभरता है।
अभी कुछ दिन पहले की बात है। एनसीईआरटी की पुस्तक में डॉ. अंबेडकर के कार्टून को लेकर बवाल हुआ था। पहले कपिल सिब्बल ने माफ़ी मांगी और किताब से कार्टून हटाने का ऐलान कर दिया। पर प्रणब और आगे निकल गए और बोले, 'कार्टून क्या पूरी किताब ही हटा दी जाएगी। संभवतया यह कदम उन्होंने मुद्दा न बनने देने के लिए उठाया। इसके जरिए वह बेशक, बहुजन समाज पार्टी जैसे कथित दलित हितैषी दल से मुद्दा छीनने से तो वह कामयाब रहे लेकिन उनकी छवि को ठेस पहुंची। तृणमूल सुप्रीमो को मनाने के लिए उनका खुद आने आना भी राजनीतिक प्रेक्षकों के गले नहीं उतर पा रहा। अपने लिए समर्थन मांगना राष्ट्रपति पद के प्रणब सरीखे प्रत्याशी के कद के कतई अनुकूल नहीं। हालांकि उनके विरोधी भी मानते हैं कि प्रणब परिस्थिति के अनुकूल खुद को ढालना बखूबी जानते हैं। 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तब प्रणव मुखर्जी वित्तमंत्री थे। इंदिरा के बाद कौन? की बात पर उन्होंने अपने नंबर दो की हैसियत बताकर दबी जुबान प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताई थी। अरूण नेहरु इतने खफ़ा हुए कि उन्हें पहले राजीव गांधी मंत्रिमंडल से बाहर करवाया और फिर पार्टी से भी बाहर करवा दिया। प्रणव मुखर्जी को दूसरी पार्टी बनानी पड़ी। राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस। बाद के दिनों में बोफ़ोर्स की आंधी से सत्ता से बाहर हुए राजीव गांधी से फिर से उनका समझौता हो गया और अपनी पार्टी का विलय कर वह फिर कांग्रेस में लौट आए। बाद मे नरसिंह राव ने उन्हें योजना आयोग का अध्यक्ष बनाया। फिर विदेश मंत्री भी बनाया। फिर जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने तब भी प्रणव मुखर्जी ने एक गलती कर दी। जब मनमोहन का नाम चर्चा में आया तो मंत्रिमंडल में शामिल होने के सवाल पर वह बोल गए कि मैंने तो उन्हें रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था। प्रकारांतर से दबी जुबान फिर दावेदारी की बात आ गई। कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें अहमियत नहीं दी लेकिन पहले रक्षामंत्री और लोकसभा में सदन के नेता बने और बाद में विदेश मंत्री बने एवं अंतत: वित्त मंत्री। अपने व्यवहार से उन्होंने कभी सिद्ध नहीं होने दिया कि वह प्रधानमंत्री न बन पाने से नाराज या कुंठित हैं। उनका व्यवहार, विनम्रता, विद्वता सभी राजनीतिक पार्टियों में उनकी स्वीकार्यता बढ़ाती है। जिस तरह से यूपीए से बाहर के दल भी उनके समर्थन में आगे आ रहे हैं, प्रणब पर यह जिम्मेदारी है कि वह खुद को नई भूमिका में निष्पक्ष साबित करें।
Monday, June 18, 2012
'लॉस काबोस' से यूरोजोन की उम्मीदें

Sunday, June 17, 2012
पाकिस्तान में नई ताकत का उदय

Friday, June 15, 2012
'रायसीना' के रास्ते पर प्रणब

Thursday, June 14, 2012
आर्थिक कुप्रबंधन के हालात

Tuesday, June 12, 2012
तेल आयात को अमेरिकी संजीवनी

Monday, June 11, 2012
मंदी के दलदल में फंसती अर्थव्यवस्था

Sunday, June 10, 2012
मर्म पर चोट करता 'सत्यमेव जयते'

Saturday, June 9, 2012
स्पेन से यूरोजोन पर नया संकट

Thursday, June 7, 2012
डिंपल को वॉकओवर का मतलब...

Friday, June 1, 2012
ब्रह्मेश्वर मुखिया की मौत के बाद बिहार
बिहार से आई रणवीर सेना प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या की खबर बड़ी है, अचानक आई है लेकिन अप्रत्याशित नहीं है और जबर्दस्त प्रभाव की क्षमता रखने वाली है। करीब 70 साल के ब्रह्मेश्वर का संगठन बेशक अब पहले जैसा प्रभाव नहीं रखता लेकिन सियासत के समीकरण प्रभावित हुए बिना नहीं रहने वाले, यह तय है। हत्या से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह से पैंतरा बदलते हुए उन्हें समाजसेवी बताया है, उससे राज्य की राजनीति में उतार-चढ़ाव बढ़ेंगे और नए मोड़ आएंगे। आशंका यह तक जताई जा रही है कि राज्य में जातीय हिंसा के साथ ही छिटपुट संघर्षों का दौर शुरू हो सकता है जिसके शिकार दलित भी बनेंगे जिनकी माओवादी हिमायत करते हैं और बदले में दूसरी जातियों को निशाना बनाया जाएगा।
ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ बरमेसर मुखिया बिहार की जातिगत लड़ाइयों के इतिहास में एक जाना-माना नाम है। भोजपुर ज़िले के खोपिरा गांव के रहने वाले मुखिया ऊंची जाति के ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें बड़े पैमाने पर निजी सेना का गठन करने वाले के रूप में जाना जाता है। बिहार में नक्सली संगठनों और बडे़ किसानों के बीच खूनी लड़ाई के दौर में एक वक्त वो आया जब बड़े किसानों ने मुखिया के नेतृत्व में अपनी एक सेना बनाई थी। सितंबर 1994 में ब्रह्मेश्वर मुखिया के नेतृत्व में जो सगंठन बना उसे रणवीर सेना का नाम दिया गया। उस समय इस संगठन को भूमिहार किसानों की निजी सेना कहा जाता था। इस सेना की अक्सर नक्सली संगठनों से खूनी भिड़ंत हुआ करती थी। खूनखराबा बाद में इतना बढ़ा कि राज्य सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया। नब्बे के दशक में रणवीर सेना और नक्सली संगठनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ कई बड़ी कार्रवाइयां कीं। दरअसल, यह हिंसक संघर्ष हुआ करते थे जिन्हें दोनों संगठन कार्रवाई का नाम दिया करते थे। इनमें सबसे बड़ा लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार एक दिसंबर 1997 को हुआ जिसमें 58 दलित मारे गए। इस घटना में भी मुखिया को मुख्य अभियुक्त माना गया। बाड़ा में नक्सली संगठनों ने ऊंची जाति के 37 लोगों को मारा था जिसके जवाब में बाथे नरसंहार को अंजाम दिया गया। इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की जातिगत समस्या को उजागर किया। पहली बार दुनिया के सामने आया कि जाति के आधार पर कम से कम दो भागों में बंटा बिहार विस्फोट के मुहाने पर है। आएदिन के हत्याकांडों के पीछे का सच उजागर हो गया। हत्याएं इतने बड़े पैमाने पर हुईं कि नरसंहार का शब्द आम हो गया। नीतीश से पूर्व लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्रित्व काल तक रणवीर सेना का खूब आतंक रहा। कोई दिन मुश्किल से छूटता था कि हत्याओं की खबरें न आएं। हालात कभी-कभी इतने खराब हो जाते कि अद्धैसैन्य बलों की तैनाती करनी पड़ती। मुखिया बथानी टोला नरसंहार में भी अभियुक्त थे जिसमें उन्हें 29 अगस्त 2002 को पटना के एक्जीविसन रोड से गिरफ्तार किया गया। उन पर पांच लाख का इनाम घोषित किया गया था। वह नौ साल जेल में रहे। बथानी टोला मामले में सुनवाई के दौरान पुलिस ने कहा कि मुखिया फरार हैं जबकि मुखिया उस समय जेल में थे। मामले में मुखिया को फरार घोषित किए जाने के कारण सज़ा नहीं हुई और वो आठ जुलाई 2011 को रिहा हुए। उनकी रिहाई कई लोगों को पच नहीं रही थी और भाकपा माले ने इस फैसले का खुला विरोध किया था।
बथानी टोला मामले में वो अभी भी फरार घोषित हैं और मामला अदालत में है। 277 लोगों की हत्या से संबंधित 22 अलग अलग आपराधिक मामलों (नरसंहार) में इन्हें अभियुक्त माना जाता था। जेल से छूटने के बाद उन्होंने पांच मई 2012 को अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन के नाम से संस्था बनाई और कहते थे कि वो किसानों के हित की लड़ाई लड़ते रहेंगे। जब मुखिया आरा में जेल में बंद थे तो इन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि किसानों पर अत्याचारों की लगातार अनदेखी हो रही है। मैंने किसानों को बचाने के लिए संगठन बनाया था लेकिन सरकार ने उन्हें निजी सेना चलाने वाला और उग्रवादी घोषित करके प्रताड़ित किया है। उनके अनुसार किसानों को नक्सली संगठनों के हथियारों का सामना करना पड़ रहा था। इतनी हत्याओं और चर्चित मामलों में जुड़े ब्रह्मेश्वर का जाना इतनी आसानी से उनके समर्थकों को हजम हो जाएगा, यह लगता नहीं है। वह भी तब, जबकि यह समर्थक राजनीतिक दलों में भी बेहद महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं। राज्य में नीतीश कुमार की सरकार के विरुद्ध विपक्षी दलों को एक बड़ा हथियार मिल गया है क्योंकि इस हत्याकांड से वह यह पाने में पहली बार कामयाब हुए हैं कि राज्य में कानून व्यवस्था बदहाल हो गई है। दूसरा और सबसे बड़ा कारण, ब्रह्मेश्वर का सवर्णों में लोकप्रिय होना भी है। इतने बुजुर्ग होने के बाद भी वह लगातार सक्रिय थे। हवा का रुख पहचानते हुए वह दलितों के पक्ष में भी यह कहकर कामं करने लगे थे कि हर पीड़ित की लड़ाई को उनका पूरा समर्थन है। हत्या से राज्य की जातीय राजनीति गरमाने की आशंका है जिसका असर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल युनाइटेड गठबंधन पर भी पड़ सकता है। पूरे मध्य बिहार में ब्रह्मेश्वर सिंह अगड़ी जातियों के भूमिगत नेता माने जाते थे। भाजपा को बिहार में अगड़ी जातियों का समर्थन मिलता रहा है और इस हत्याकांड से भाजपा को अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ सकता है। भाजपा की मदद से मध्य बिहार में व्यापक समर्थन पाने वाले नीतीश की सरकार अगर जल्दी कोई ठोस कार्रवाई नहीं करती है तो उससे बड़ा जनाधार खिसक सकता है।
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