Wednesday, September 18, 2013

नीना के ताज से बेचैन अमेरिकी

यह खुद के प्रगतिवादी और नस्लभेद विरोधी होने की बढ़-चढ़कर बातें करने वाले अमेरिका का दूसरा चेहरा है। भारतीय मूल की सुंदरी नीना दावुलूरी ने 'मिस अमेरिका-2014' खिताब क्या जीता, वहां मानो भूचाल आ गया है। नीना प्रतियोगिता जीतने वाली भारतीय मूल की पहली अमेरिकी महिला हैं। अमेरिकी लोगों ने नीना दावुलूरी के भारतीय मूल के होने के आधार पर नस्ली भेदभाव से प्रेरित टिप्पणियां करते हुए गुस्सा जताया। जो लोग नीना दावुलूरी के खिताब जीतने की नस्ल के आधार पर बुराई कर रहे हैं उन्हें प्रतियोगिता के जजों के फैसले पर भी शक है। हालांकि मिस अमेरिका प्रतियोगिता के जजों ने खुलकर यह कहा है कि उन्होंने नीना दावुलूरी को उनकी विशेषताओं के कारण खिताब के लिए चुना है। इसके बावजूद नीना दावुलूरी के मिस अमेरिका के खिताब जीतने पर कुछ लोगों ने नस्ली टिप्पणियां जारी की हैं। कुछ लोगों ने नीना दावुलूरी द्वारा प्रतियोगिता के दौरान बॉलीवुड का डांस करने पर भी नाराजगी जताई। नीना दावुलूरी के माता-पिता मूल रूप से भारत में आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा जिले के रहने वाले हैं और कई दशक पहले यह परिवार अमेरिका में आकर बस गया था। जनगणना ब्यूरो के 2010 केआंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में अब करीब 32 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। उनमें से बड़ी संख्या में पेशेवर मेडिकल डॉक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर और कंपनियों के मालिक हैं। इस प्रकार नीना दावुलूरी को निशाना बनाए जाने से बहुत से भारतीय और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी नाराज हैं। इसके अलावा जहां एक ओर कुछ अमेरिकी नस्ली टिप्पणियां कर रहे हैं तो बहुत से अमेरिकी नीना दावुलूरी की जीत पर खुश हैं और नस्ली टिप्पणियां करने वालों की निंदा भी कर रहे हैं। वैसे मिस अमेरिका ने तो पहले ही कह दिया है कि वह नस्ली टिप्पणियों पर तवज्जो नहीं देतीं। नीना दावुलूरी का कहना है कि मुझे इन सब बातों से ऊपर उठकर देखना है। हर चीज से ऊपर मैंने हमेशा खुद को एक अमेरिकी माना है। नीना ने अमेरिका की नई नस्ल को संदेश के बारे में कहा कि मैं खुश हूं कि 'मिस अमेरिका' संस्था ने देश में विविधता को भी महत्व दिया है। अब अमेरिका में जो बच्चे घरों में टीवी पर प्रतियोगिता देख रहे हैं, वह एक नई 'मिस अमेरिका' को भी देख सकते हैं। अमेरिका के न्यूयॉर्क राज्य के सेराक्यूज शहर में रहने वाली नीना हमेशा अच्छी छात्रा रही हैं और वह डॉक्टर बनना चाहती हैं। उनके पिता चौधरी धन दावुलूरी भी शहर के संत जोजफ असपताल में डॉक्टर हैं। इस खिताब के साथ उन्हें 50 हजार अमेरिकी डॉलर की स्कॉलरशिप मिली है, जिसे वो अपनी पढ़ाई पर खर्च करेंगी। मिस अमेरिका प्रतियोगिता में कुल 53 प्रतिभागी थे। इनमें से अमेरिका के हर राज्य की एक प्रतिभागी थी। इसके अलावा एक वाशिंगटन डीसी, पोर्तो रिको और यूएस वर्जिन आइलैंड से भी प्रतिभागी थीं। प्रतियोगिता में स्विम सूट, ईवनिंग गाउन, टैलेंट और इंटरव्यू जैसे कई राउंड्स थे। भारतीय मूल की नीना नेमिस ने जैसे ही मिस अमेरिका 2014 का खिताब जीतकर इतिहास रचा और दूसरी तरफ उन पर नस्लीय कॉमेंट शुरू हो गए। उनको विजेता घोषित करने के साथ ही अमेरिका में सोशल मीडिया पर जमकर नस्लीय टिप्पणियांकी जा रही हैं। लोगों ने 'अरब ने जीता मिस अमेरिका का ताज' और 'क्या हम 9/11 भूल गए हैं', जैसे कॉमेंट पोस्ट किए हैं। किसी ने उन्हें मिस टेररिस्ट कहा, तो किसी ने उन्हें मिस अलकायदा ही करार दिया। ट्विटर पर लोगों ने लिखा, 'कैसे कोई विदेशी मिस अमेरिका बन सकती हैं।' नीना के रंग को लेकर भी घटिया टिप्पणी की गई है। कई लोगों ने उन्हें मोटी तो कई न उन्हें विदेशी तक कह डाला। कई लोगों ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति ओबामा को खुश करने के लिए उन्हें मिस अमेरिका बनाया गया है। हालांकि, नीना के खिलाफ सोशल साइट्स पर चलाए जा रहे इस हेट कैंपेन का भारतीयों ने भी जवाब दिया है। एक भारतीय ने ट्वीट किया है, 'डियर अमेरिका, अगर आप नस्लवादी होना चाहते हैं तो आपको कोई नहीं रोक रहा है, लेकिन पहले भूगोल का अपना ज्ञान तो सुधारिए।' वैसे, तथ्य यह है कि 53 अमेरिकी सुंदरियों को पछाड़कर मिस अमेरिका का ताज पहनने वाली नीना पूरी तरह से अमेरिकी हैं। उनके पिता दावुलूरी चौधरी ने अमेरिका में उच्च शिक्षा हासिल की और स्त्री रोग विशेषज्ञ के तौर पर वहां बस गए। नीना का जन्म सिराकुसे, न्यूयॉर्क में हुआ, लेकिन चार वर्ष की उम्र में वह ओकलाहोमा और फिर 10 वर्ष की उम्र में मिशीगन रहने चली गर्इं। उन्होंने मिशीगन विश्वविद्यालय से विज्ञान की पढ़ाई की और अब वह अपने पिता की तरह डॉक्टर बनना चाहती हैं। नीना इस पूरे विवाद को तूल नहीं देना चाहतीं। उन्होंने कहा, 'मुझे इस बात की खुशी है कि मंच पर विविधता को स्वीकार किया गया। हाल के सालों में मुझे अपनी संस्कृति को लेकर गलत धारणाओं का सामना करना पड़ा है। लोग पूछते हैं कि क्या मेरे मां-बाप मेरी शादी का फैसला करेंगे, जैसा कि आमतौर पर भारतीय संस्कृति में होता है।' उन्होंने कहा, 'पहली भारतीय-अमेरिकी के तौर पर मिस अमेरिका बनने पर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं।'नीना की जीत भारतीय अमेरिकियों के लिए ठीक वैसी ही है, जैसी यहूदी समुदाय के लिए बेस मेरसन की जीत थी। मेरसन वर्ष 1945 में मिस अमेरिका का खिताब जीतने वाली यहूदी समुदाय की पहली महिला थीं। एक सासंद ने कहा कि नीना की जीत सिर्फ उनके लिए ही नहीं, बल्कि अमेरिका में रहने वाले पूरे भारतीय समुदाय के लिए गौरव की बात है।

Sunday, September 8, 2013

नरेंद्र मोदी का दांव

नरेंद्र मोदी के बयान के निहितार्थ क्या हैं, राजनीति के गलियारों में यह सवाल खूब गरम है। अब तक प्रधानमंत्री पद पर अपनी उम्मीदवारी के सवाल को लगभग टाल जाने वाले मोदी अगर यह कह रहे हैं कि गुजरात में उन्हें 2017 तक का जनादेश मिला है और तब तक वह वहीं सेवा करेंगे तो यह गर्माहट बढ़नी स्वाभाविक ही लगती है। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान की कमान मिलने के बाद जिस नेता के इर्द-गिर्द सारा कौतूहल केंद्रित हो जाता हो, जिसे पीएम पद का सबसे ज्यादा मजबूत प्रत्याशी मान लिया गया हो, स्वतंत्रता दिवस पर पहली बार जिस नेता के भाषण को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के संबोधन के बराबर महत्व मिला हो, वह अगर खुलकर पीएम पद पर पहुंचने के अपने किसी सपने से इंकार कर रहा हो, तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिदृश्य को लेकर अटकलें थम जानी ही हैं। मोदी का बयान इसलिये रणनीति का हिस्सा लगता है क्योंकि वह पिछले दो वर्ष से खुद को पीएम पद के दावेदार के तौर पर ही तैयार कर रहे हैं। अपनी इमेज ब्रांडिंग भी उन्होंने इसी लिहाज से की है। मोदी के अपनी पार्टी की केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने के बाद जिस तरह से हलचलें शुरू हुर्इं, आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले, उससे यह तो निर्विवाद रूप से कहा ही जा सकता है कि वह अन्य सभी दावेदारों में सबसे आगे हैं। सियासी तौर पर हाशिये पर विचरण कर रही भाजपा के लिए वह एक संजीवनी बनकर आए। पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार हुआ और एक-एक करके दूसरी पंक्ति के सभी नेताओं ने उनकी दावेदारी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यहां तक कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी भी मान ही गए। मोदी ने इंकार किया तो उनके सबसे निकटतम प्रतिद्वंद्वी माने जा रहे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अपनी आपत्ति से संबंधी मीडिया रिपोर्टों को बेबुनियाद बताकर पल्ला झाड़ लिया। जब पूरी पार्टी मोदी के साथ है, अपने अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मोदी प्रेम के आगे नतमस्तक है तो फिर मुश्किल है कहां। क्यों मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी किसी भी दावेदारी से इंकार कर रहे हैं। दरअसल, आडवाणी अब भी अंदरखाने सक्रिय हैं और सुषमा स्वराज भी मोदी के नाम पर तैयार नहीं इसीलिये मोदी के नाम की सार्वजनिक घोषणा में रुकावट आ रही है। मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं, संघ को उनसे सहानुभूति है इसलिये ही संघ प्रमुख मोहन भागवत सक्रिय हुए और उन्होंने आडवाणी के साथ ही राजनाथ और सुषमा से मुलाकात की। वह कहने से नहीं हिचके कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के मुद्दे पर जो भी फैसला करना है, वो जल्दी किया जाए। देरी से भाजपा को क्षति होगी। यह बयान मोदी की रणनीति का हिस्सा लगता है, तभी तो उन्होंने वह समय चुना जब संघ और भाजपा नेताओं की बड़ी बैठक आठ और नौ सितम्बर को दिल्ली में प्रस्तावित है। इसमें अन्य मुद्दों के साथ ही मोदी की पीएम पद पर उम्मीदवारी का फैसला भी होना है। बैठक की तैयारी के क्रम में संघ के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी आडवाणी से मिल चुके हैं। बैठक में सुषमा ने साफ कहा कि इस समय मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा पर उनके लिए संसद में नेता विपक्ष के तौर पर काम करना कठिन हो जाएगा। आडवाणी का कहना था कि इस बारे में कोई फैसला चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद होना चाहिए वरना नरेंद्र मोदी खुद मुद्दा बन जाएंगे। ढाल के तौर पर चौहान का नाम लिया गया, चौहान ने यह बात सरसंघ चालक मोहन भागवत से पहले ही कह रखी है। आडवाणी, सुषमा के साथ ही भाजपा संसदीय दल में मोदी विरोधी तीसरे सदस्य मुरली मनोहर जोशी हथियार डाल चुके हैं। मुश्किलें भी मोदी के बयान की वजह बनी हैं जिनका पार्टी के भीतर उनके विरोधी प्रयोग कर रहे हैं। इसी क्रम में गुजरात के आईपीएस डीजी बंजारा के इस्तीफे की बात यह कहते हुए उठाई गई कि इसका गलत प्रयोग हो सकता है लेकिन इस्तीफा नामंजूर करके मोदी ने यह अस्त्र बेअसर कर दिया। विरोधियों की जिस बात को सबसे ज्यादा वजन मिल रहा है, वह यह है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में चुनाव बाद कमजोर स्थिति पर मोदी के लिए समर्थन जुटा पाना बेहद मुश्किल कार्य है। चुनाव पूर्व भी अन्य दल साथ आने से हिचक रहे हैं। ऐसे दलों में यह लोग चंद्रबाबू नायडू और जयललिता का नाम ले रहे हैं जो अपने-अपने राज्यों में मुस्लिम वोटों की वजह से मोदी के समर्थन से बच रहे हैं। इसके साथ ही बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक भी मोदी को पसंद नहीं करते। यह नेता संघ को समझा रहे हैं कि बिना पीएम प्रत्याशी घोषित किए चुनाव लड़ने पर कई दल साथ आ जाएंगे जो चुनाव पश्चात सरकार बनने की स्थिति में विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों के चलते साथ रहने से नहीं हिचकेंगे। इसके साथ ही मोदी का स्वभाव भी विरोधियों को डरा रहा है, वह किसी की परवाह नहीं किया करते और तानाशाह की तरह व्यवहार करते हैं। वह इस तरह पेश आते हैं, मानो जैसा वह कहेंगे, वैसा ही चलेगा। नेताओं को लगता है कि पीएम बनने के बाद उनकी भूमिका गणेश परिक्रमा तक सीमित हो जाएगी और मोदी सत्ता के एकमात्र केंद्र बनकर स्थापित हो जाएंगे। मोदी जिसे चाहेंगे, वह आगे होगा और बाकी लोगों को नेपथ्य में धकेल दिया जाएगा। नरेंद्र अब तक अपनी राजनीतिक लड़ाई अकेले लड़ते आए हैं। शिक्षक दिवस पर पीएम की दावेदारी पर अनमनेपन से उन्होंने एक दांव खेल दिया। आने वाले दिनों में उनके अन्य कदम देखना खासा दिलचस्प होगा। पार्टी नेतृत्व और संघ, दोनों जानते हैं कि मोदी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय हैं। पार्टी में वह अकेले ऐसे नेता हैं जो मतदाताओं में पार्टी के लिए उत्साह पैदा करने में सक्षम हैं। इसीलिये मोदी शब्दबाण से काम चला रहे हैं। (लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

Monday, September 2, 2013

बलात्कार की सज़ा महज तीन साल !!!

रेप जैसी घटना ईश्वर न करे, किसी लड़की के साथ हो। अब दिल्ली गैंगरेप की ही बात करें, पीड़ित दामिनी को सबसे ज्यादा कष्ट देने वाले अपराधी को महज तीन साल की सजा हुई है, क्योंकि वह किशोर है। किशोर न्यायालय के स्तर से तीन साल की इस सजा पर पीड़ित लड़की की मां की प्रतिक्रिया आई है, इससे अच्छा तो यही था कि उसे मुक्त ही कर दिया जाता क्योंकि उसकी किशोर वय दो वर्ष चार महीने रहेगी, इस अवधि में उसका चाल-चलन, व्यवहार अच्छा रहा और हर वर्ष सजा में कुछ दिन की माफी शामिल हो गयी तो वह और जल्दी मुक्त हो जाएगा। यह दरअसल, भारतीय कानूनों की विसंगतियों में से एक है। राजनीतिक दल दायरे में आने लगें तो हम सूचना का अधिकार कानून बदलने की सोच सकते हैं, अपराधी राजनीतिज्ञों के शिकंजे में फंसने पर कानून बदल भी सकते हैं लेकिन इतने गंभीर अपराध का कानून महज इस आधार पर बदलने की नहीं सोचते कि इससे सामाजिक असंतुलन पैदा होने का खतरा है। बेशक, इससे किशोरवय लड़के बलात्कार की सजा से डरना छोड़ दें। इस प्रश्न को लेकर दो मुद्दे उठे हैं एक तो किशोर की परिभाषा क्या की जाये? क्या यह परिभाषा यदि मताधिकार के लिए निर्धारित आयु पूरी नहीं की है तो उसे किशोर की संज्ञा दी जाये या ऐसा व्यक्ति जो शारीरिक, मानसिक और सोच के आधार पर वयस्क नहीं हुआ है उसे माना जाये। इस रूप में यह मान्यता आयु के आधार पर ही निर्धारित करनी पड़ेगी जिससे इसका परिपालन संभव हो पाये। वोट देने वाला वयस्क तो 18 साल का होता है, साथ ही इस आयु के बाद उसे सम्पत्ति के स्थानान्तरण के अधिकार भी प्राप्त हो जाते हैं। हालांकि 14 वर्ष से अधिक आयु वाले किशोर को मोटर साइकिल और इंजन वाली गाड़ियां चलाने का लाइसेंस दिया जा सकता है। बैंकों के खातों के संचालन के लिए भी जो नियम बनाये गये हैं उसके लिए भी पात्रता की श्रेणी में ही आता है। इसी प्रकार पुरुष और महिला के शारीरिक विकास के सम्बन्ध में भी यही माना जाता है कि महिलाओं के शरीर का विकास जल्दी होता है। अरब में तो एक नौ वर्ष की बालिका के भी मां बन जाने के समाचार छपे थे। कहा यह जाता है कि यह उष्ण कटिबंध वाले क्षेत्रों के वातावरण का प्रभाव है, इसलिए भारत जैसे समशीतोष्ण देश में यदि किशोर के वय निर्धारण का प्रश्न है तो उसके प्रमुख तत्व क्या होने चाहिए। इसलिए महिलाओं में 16 वर्ष से कम आयु की बच्चियों को गर्भधारण और प्रजनन की आयु मान ली जाती है क्योंकि परिपक्वता के यहमानक उसके रजस्वला होने से ही आंके जाने लगते हैं, विभिन्न अंगों का विकास उसी के अनुकूल होता है। जहां तक किशोर वय वाले पुरुषेन्द्रीय बच्चों का सम्बन्ध है इस मामले में भी यह तथ्य आया था कि 23 वर्ष की उस महिला के साथ सबसे अधिक सक्रिय यही किशोर वय वाला ही था और उसने ही महिला को अन्य तरीकों से भी घायल करने की भूमिका अदा की। इसे उसकी मूर्खता या बचपना कहा जाये या यह माना जाये कि इसमें आपराधिक प्रवृत्ति और काम भावना के लिए आवश्यक शारीरिक विकास हो चुका था। लेकिन सजा इसलिए कम मिली क्योंकि पूर्ण सजा की पात्रता में कुछ दिन बाकी थे। इसलिए यदि इसे अवयस्क माना जाये तब भी क्या अवयस्क और किशोर दोनों समानार्थी हैं। जहां तक न्यायालयों का सम्बन्ध है वे स्वतंत्र और अपनी इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने वाले नहीं हैं बल्कि उन्हें स्थापित न्यायिक भावनाओं और गठित मायार्दाओं के अधीन रहकर ही अपने दायित्वों का निर्वहन करना होता है। इसलिए कानून के बारे में निर्णायक तो इसे बनाने वाला है न कि तदनुरूप आचरण के लिए निर्धारित न्यायालय। क्योंकि इसे तो कानून में किसी प्रकार का संशोधन, परिवर्धन करने का अधिकार नहीं है और इसकी व्याख्याओं का निर्धारण भी प्रारम्भिक न्यायालय नहीं बल्कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय करते हैं। लेकिन कानून निर्माण की शक्ति के सम्बन्ध में वे भी विधायिकाओं के सामूहिक समझदारी पर ही आश्रित हैं। लेकिन जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस वर्मा आयोग के समक्ष संशोधन और परिवर्तन के लिए विचाराधीन था तो इन न्यायिक अधिकारियों की भी राय यही थी कि इसमें आयु के सम्बन्ध में कोई परिवर्तन करना उचित नहीं होगा। इसलिए यदि विधायिकाओं की सामूहिक समझदारी से ही न्यायिक विवेक भी साझा कर ले तो यह मानना पड़ेगा कि दोनों की सोच में साम्यता है। किशोर वय के निर्धारण का जब प्रश्न उठेगा तो विचारणीय यह भी होना चाहिए कि किशोर और वयस्क में वे कौन से अन्तर हैं जिसके कारण दोनों के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएं, विचार और दण्ड प्रक्रिया के प्राविधान हैं। इस क्यों का स्पष्ट उत्तर तो होना ही चाहिए। इस शारीरिक कर्म, परिपक्वता के निर्धारक तत्व क्या हों, इस पर भी ध्यान दिया ही जाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि आयु की इन सीमाओं का संधिकाल के सम्बन्ध में भी क्या अलग विधान नहीं होना चाहिए? न्यायालय ने बनाये गये कानून की मजबूरी के कारण जो दण्ड दिया है उसका एक समाधान तो यह भी हो सकता है कि जिन 11 धाराओं में उसे सजाएं दी गयी हैं वे साथ-साथ चलेंगी या अलग। परम्पराओं के अनुसार तो सबसे अधिक सजा ही इस मामले में निर्णायक होती है लेकिन इसमें इस मामले में सजा जो भी मिले लेकिन यह ऐसा प्रश्न है जिस पर विधायिका को एक बार विचार करना ही चाहिए क्योंकि जब पुराना कानून बना था और आज के युग में अन्तर आ गया है। वयस्कता पहले की अपेक्षा जल्दी प्राप्त की जा सकती है इसीलिए मतदान की आयु भी 21 से घटाकर 18 की गयी थी कि इस आयु का व्यक्ति भावी व्यवस्था बनाने के लिए निर्णायक राय देने का पात्र है। इसलिए किशोर वय निर्धारित करने के प्रश्न पर भी पुनर्विचार नयी स्थितियों और बदलते हुए युग परिवेश के अनुकूल किया जाना चाहिए। यह मानते हुए कि केवल दण्ड से ही समाज को नहीं सुधारा जा सकता, इसलिए जेलों को भी दण्डगृह के बजाय सुधारगृह कहा जाने लगा है। चूंकि अपराधों को रोकने के लिए दण्ड प्रक्रिया अपनायी गयी थी और जब तक यह रहती है तब तक उसके प्रभावों और विसंगतियों पर भी ध्यान देना ही पड़ेगा। यह सोचने का वक्त है वरना कहीं देर न हो जाए।

Sunday, August 11, 2013

आजाद देश के महात्मा

हम आजाद हैं, क्योंकि हम एक थे। न हिंदू थे और न मुसलमान, सिर्फ भारतीय। एकता का ही असर था कि ब्रतानिया हुकूमत से आजादी हासिल कर पाए लेकिन आजाद क्या हुए, बेलगाम हो गए। भारतीय से हिंदू, मुसलमान और सिख, ईसाई हो गए। लड़ते हैं, झगड़ते हैं। आजादी की इस 67 वीं सालगिरह पर मनन का वक्त है, आत्म चिंतन की जरूरत है। महात्मा के हम अनुयायी क्यों उन्हीं की दी हुई शिक्षाएं भूल रहे हैं। गांधीजी नहीं चाहते थे कि हम लड़ें, इसके बजाए हमेशा भाईचारे से रहें। पश्चिम बंगाल में हिंदू-मुस्लिम दंगे उन्होंने अकेले अपने प्रयासों से ही शांत करा दिए। पंद्रह अगस्त 1947, पूरा देश आजादी के जश्न में मशगूल था लेकिन महात्मा दु:खी थे, उन्हें जैसे लग नहीं रहा था कि यह जश्न मनाने का वक्त है। पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभभाई पटेल का आमंत्रण ठुकराकर वह दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर कलकत्ता के नोआखाली क्षेत्र में हिंदू-मुस्लिमों के बीच सौहार्द बनाने में प्राण-प्रण से जुटे थे। उनके बेकल मन ने मजबूर किया कि वह आजादी की वर्षगांठ अनशन पर रहकर मनाएंगे। वह मानते थे कि संपूर्ण आजादी तब ही है जबकि जाति-धर्म का भेद न हो और भाईचारा कायम रहे। देनी पड़ सकती है जान भी आजादी से कुछ सप्ताह पहले की बात है। नेहरूजी और सरदार पटेल ने गांधीजी के पास दूत भेजा, जो आधी रात को वहां पहुंचा। गांधीजी ने पहले उसे भोजन कराया और फिर पत्र खोलकर देखा। उसमें लिखा था-बापू, आप राष्ट्रपिता हैं। 15 अगस्त 1947 पहला स्वाधीनता दिवस होगा। हम चाहते हैं कि आप दिल्ली आकर हमें अपना आशीर्वाद दें। महात्मा नाराजगी छिपा न सके। बोले, कितनी मूर्खतापूर्ण बात है। बंगाल जल रहा है। हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे की हत्याएं कर रहे हैं और मैं कलकत्ता के अंधकार में उनकी मर्मान्तक चीखें सुन रहा हूं तब मैं कैसे दिल में रोशनी लेकर दिल्ली जा सकता हूं। शांति कायम करने के लिए मुझे यहीं रहना होगा और जरूरत पड़ी तो सौहार्द और शांति सुनिश्चित करने के लिए जान भी देनी होगी। नेहरू-पटेल को ‘उपहार’ दूत को विदा करने के लिए वह बाहर निकले और एक पेड़ के नीचे खडेÞ थे कि तभी एक सूखा पत्ता शाख से टूटकर गिरा। गांधीजी ने उसे उठाया और हथेली पर रखकर कहा-‘मेरे मित्र, तुम दिल्ली लौट रहे हो। नेहरू और पटेल को मैं क्या उपहार दे सकता हूं, मेरे पास न सत्ता है और न सम्पत्ति। पहले स्वतंत्रता दिवस पर मेरे उपहार के रूप में यह सूखा पत्ता उन्हें दे देना। ,दूत की आंखें सजल हो गर्इं। गांधीजी परिहास के साथ बोले- ‘भगवान कितना दयालु है। वह नहीं चाहता कि गांधी सूखा पत्ता भेजे इसलिए उसने इसे गीला कर दिया। यह खुशी से दमक रहा है। अपने आंसुओं से भीगे इस पत्ते को उपहार के रूप में ले जाओ।, सत्ता से सावधान रहो आजादी के दिन गांधीजी का आशीर्वाद लेने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार के मंत्री भी मिलने आए। गांधी जी ने उनसे कहा-‘विनम्र बनो, सत्ता से सावधान रहो। सत्ता भ्रष्ट करती है। याद रखिए, आप भारत के गरीब गांवों की सेवा करने के लिए पदासीन हैं।, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द कायम करने के लिए गांधीजी गांव-गांव घूमे। हिंदुओं और मुसलमानों से शांति बनाए रखने की अपील की और शपथ दिलाई कि वे एक-दूसरे की हत्याएं नहीं करेंगे। वह हर गांव में यह देखने के लिए कुछ दिन रुकते थे कि जो वचन उन्होंने दिलाया है, उसका पालन हो रहा है या नहीं। बच्चों ने सिखाया बड़ों को पाठ उसी दौरान एक गांव में गांधीजी ने हिंदुओं और मुस्लिमों से सामूहिक प्रार्थना के लिए झोपड़ियों से बाहर आने का आह्वान किया। लेकिन इसका असर नहीं हुआ। आधे घंटे तक इंतजार के बाद उन्होंने साथ लाई गेंद दिखाकर बच्चों से कहा, आपके माता-पिता एक-दूसरे से डरते हैं लेकिन तुम्हें कैसा डर। तुम तो निर्दोष हो, भगवान के बच्चे हो। बच्चे खेलने लगे तो उन्होंने ग्रामीणों से कहा- तुम ऐसा साहस चाहते हो तो अपने बच्चों से प्रेरणा लो। वह एक-दूसरे से नहीं डरते। मेरे साथ आधे घंटे तक खेले। मेहरबानी करके उनसे कुछ सीखो। इन शब्दों का जादू सा असर हुआ। देखते-देखते वहां बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई और उन्होंने शपथ ली कि वे एक-दूसरे की हत्या नहीं करेंगे। किसी को बताना मत, दंगा हो जाएगा एक गांव में प्रार्थना सभा के दौरान एक मुस्लिम व्यक्ति ने गांधीजी का गला पकड़ लिया। हमले से वह नीचे गिर पड़े। उन्होंने कुरान की एक सुंदर उक्ति कही, जिसे सुनकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा और अपराध बोध से कहने लगा- ‘मुझे खेद है। मैं गुनाह कर रहा था। मैं आपकी रक्षा करने के लिए आपके साथ रहने के लिए तैयार हूं। मुझे कोई भी काम दीजिए।, गांधीजी ने उससे कहा कि तुम सिर्फ एक काम करो। जब तुम घर वापस जाओ तो किसी से भी नहीं कहना कि तुमने मेरे साथ क्या किया। नहीं तो हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाएगा। मुझे और खुद को भूल जाओ। आदमी पश्चाताप करता हुआ चला गया। महात्मा गांधी के भगीरथ प्रयासों से नोआखाली में शांति स्थापित हो गई। आत्महत्या की सोची थी मैंने अपनी आत्मकथा में ’चोरी और प्रायश्चित, शीर्षक के तहत राष्ट्रपिता ने लिखा है, एक रिश्तेदार से सिगरेट की लत गई। पैसे तो होते नहीं थे इसलिये ढूंढकर उसके ठूंठ पीने लगा लेकिन जैसे यह पराधीनता थी, मुझे अखरने लगी। दु:ख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम ऊब गए और आत्महत्या कर फैसला कर डाला! पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन देगा? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है। हम जंगल में जाकर धतूरे के बीज ले आए। सुनसान जगह की तलाश की लेकिन जहर खाने की हिम्मत नहीं हुई । अगर तुरंत मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक बीज खाने की हिम्मत ही न हुई। मौत से डरा और तय किया कि रामजी के मंदिर में दर्शन करके शांत हो जाएं और आत्महत्या करने की बात भूल जाएं। मैं समझ पाया कि मन में आत्महत्या का विचार लाना कितना आसान है और सचमुच आत्महत्या करना कितना मुश्किल। आत्महत्या के इस विचार का नतीजा ये हुआ कि हम दोनों की सिगरेट चुरा कर पीने की और नौकरों की जेब से पैसे चुरा कर सिगरेट फूंकने की आदत जाती रही। बड़े होकर सिगरेट पीने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। (गांधी जी की आत्मकथा ‘द स्टोरी आफ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ, प्रस्तुति: अनिल दीक्षित)

Friday, August 2, 2013

राजनीति के फेर में फॉर्मूला-वन

उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा स्थित बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट में फॉर्मूला-वन रेस खेल जगत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति के फेर में फंस रही है। फिलहाल 2014 के कैलेण्डर से ये गायब हुई है। आयोजक कम्पनी ने भरोसा जताया है कि 2015 से यह नियमित हो जाएगी लेकिन रफ्तार की दौड़ के महारथियों का एक पूरा गुट विरोध पर उतारू है और नहीं चाहता कि भारत को इसकी मेजबानी मिले। अगले दस साल में करीब 90 हजार करोड़ का व्यवसाय और 15 लाख से ज्यादा रोजगार देने की सम्भावना वाली इस रेस में बाधा आई तो देश को बड़ा झटका लगेगा। जो विकल्प तलाशे जा रहे हैं, न वह टिकाऊ हैं, न ही फॉर्मूला-वन की तरह लाभदायक। भारतीय बेशक, फॉर्मूला-वन रेसों के बारे में जानते हों लेकिन उन्होंने अपने देश में इसका आनंद पहली बार 2011 में लिया। फॉर्मूला रेसिंग में न सिर्फ देश-विदेश की लेटेस्ट और ट्रेंडी स्पोर्ट्स कार देखने को मिलती हैं बल्कि माइकल शूमाकर, निको रोजबर्ग, राफ शूमाकर जैसे नामचीन सितारे भी भाग लेने आते हैं। पहली दफा आयोजित ग्रांप्री बड़ी उपलब्धि थी। रफ्तार के खेल से हर साल करोड़ों डॉलर कमाई कराने वाली इस रेस ने उम्मीदें जगा दीं। लेकिन फॉर्मूला-वन के प्रमुख बर्नी एकलस्टन ने यह कहकर झटका दिया है कि भारत में अगले साल फर्राटा रेस होने की सम्भावना नहीं है। बर्नी की नजर में इसकी वजह सियासी हैं। पर राजनीति है क्या? दरअसल, इस रेस में भाग लेने वाली कम्पनियों में से कुछ की रुचि भारत से ज्यादा अन्य देशों में है, जिनमें रूस सबसे आगे है। 2014 के सत्र में 22 रेसों के आयोजन की बात हो रही है लेकिन फॉर्मूला-वन टीमें 20 रेसों तक ही टिकी रहना चाहती हैं। रूस के साथ ही आस्ट्रिया में अगले वर्ष एफ वन रेस कराने को लेकर भी काफी होड़ है। ऐसे में दो साल पहले एफ वन में पदार्पण करने वाले भारत को ही बाहर करने के लिए आसान शिकार माना जा रहा है। लेकिन रेस में एक साल की भी बाधा आने से तमाम नुकसान हैं। बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट ग्रेटर नोएडा में अंतरराष्ट्रीय स्तर के यमुना एक्सप्रेस-वे के पास बना है जिसने आगरा से नोएडा की दूरी घटाकर ढाई-तीन घंटे के आसपास कर दी है। फिलहाल वहां रेसिंग ट्रैक ही मुख्य है लेकिन योजना के मुताबिक आने वाले समय में यह तमाम अन्य विशेषताओं से परिपूर्ण होगा। ख्वाब तो वहां सपनों का शहर बनाने के भी हैं। रियल एस्टेट सेक्टर ने वहां बड़ी-बड़ी योजनाएं प्लान कर रखी हैं, पर तमाम प्रयासों के बावजूद हम विदेशी निवेश को आकर्षित करने में नाकाम रहे हैं। उत्तर प्रदेश ने खुद भी प्रयास किए, आगरा में कन्फेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज के साथ समिट आयोजित की लेकिन महीनों बाद एक भी विदेशी निवेशक नहीं आया है। फॉर्मूला-वन ने हमारी खूब कमाई कराई है। फॉर्मूला-वन का टिकट महंगा होता है। इसका आकर्षण जिस वर्ग में है, वो अपने वतन से आकर खूब पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहता है। बड़े-बड़े होटलों में रहता है, हवाई यात्राएं करता है और पर्यटन महत्व के आगरा, जयपुर जैसे शहर भी घूमता है। इसके अलावा फॉर्मूला-वन का रेसिंग सर्किट बनाने में करीब दो हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह मात्र इसी रेस में प्रयोग हो सकता है, अन्य खेलों के लिए इसका कोई उपयोग नहीं। जेपी ग्रुप ने सर्किट के लोभ में ही यमुना एक्सप्रेस-वे प्रोजेक्ट हाथ में लिया था। सवाल यह है कि क्या घाटे की स्थिति का असर इस मार्ग के आसपास के विकास पर नहीं पड़ेगा? सरकारी आय की नजर से देखें तो राजस्व की क्षति भी होना तय है। याद कीजिए, फॉर्मूला-वन रेस के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी करने के लिए केंद्रीय खेल मंत्रालय प्रतिवर्ष दस करोड़ रुपये वसूल करता है जो राष्ट्रीय खेल विकास निधि में जमा हो जाता है। इसके अलावा लाखों डॉलर मूल्य की कारें, उनके टायर, उपकरण, तेल जैसी अन्य जरूरी चीजें लाने की एवज में खिलाड़ियों की प्रायोजक कम्पनियां करोड़ों रुपये कस्टम ड्यूटी अदा करती हैं। गत वर्ष केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क विभाग ने छह सौ करोड़ रुपये सुरक्षित धनराशि के रूप में जमा कराए थे। सबसे बड़ा नुकसान तो उन भारतीयों का है, जो रेस के दिनों में अस्थायी व्यवसाय के जरिए कमाई करते हैं। इस रेस का आयोजन बेशक निजी क्षेत्र की कम्पनी करती हो लेकिन जिस कद की यह रेस है, उसके लिए सरकार के भी सक्रिय होने की जरूरत है। खेल जगत में खेल मंत्रालय की सक्रियता बढ़ी है। उसने बेलगाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर भी शिकंजा कसने की कोशिशें शुरू कर दी हैं, जिससे खेलों में पारदर्शिता से इंकार नहीं किया जा सकता। फॉर्मूला-वन रेस के आयोजन ने भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि बना दी है। रेस पर जिस तरह बेशुमार खर्च किया जाता है, उससे आयोजक देश अन्य देशों की कतार से अलग खड़े हो जाते हैं। हालांकि आयोजक जेपी समूह ने वर्ष 2015 से इस रेस के सुचारु आयोजन की प्रतिबद्धता जताई है, पर एक वर्ष का ही सही, यह गतिरोध भारतीय छवि खराब कर सकता है। वैसे बर्नी एकलस्टन के मुताबिक, भारत में 2014 फॉर्मूला वन ग्रांप्री की मेजबानी के भविष्य के बारे में फैसला सितम्बर में विश्व मोटर स्पोर्ट परिषद की बैठक के दौरान होगा, जहां वह रेस संचालक अंतरराष्ट्रीय आटोमोबाइल महासंघ को 2014 का स्थायी कार्यक्रम सौंपेंगे। बर्नी एकलस्टन ही रेस का कैलेण्डर तैयार करते हैं और वही आमतौर पर महासंघ के सामने औपचारिक मंजूरी के लिए पेश करते हैं। फॉर्मूला-वन रेस के लिए 22 जगहों के आवेदन हैं जबकि इस रेस में हिस्सा लेने वाली टीमें चाहती हैं कि 20 से ज्यादा रेस न हों।

Tuesday, July 30, 2013

तेलंगाना पर कांग्रेस का राजनीतिक दांव

लम्बे समय के हंगामे, खून-खराबे और राजनीतिक दांव-पेच के दौर का असर हुआ है और पृथक तेलंगाना राज्य को मंजूरी दे दी गई है। जिस दिन यह अस्तित्व में आएगा, देश का यह 29 वां राज्य होगा। हालांकि पहली नजर में यह राजनीतिक पैंतरा ही है क्योंकि राज्य के अस्तित्व में आने के लिए अभी तमाम औपचारिकताएं होना बाकी हैं। सबसे पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल इसे मंजूरी देगा। यह प्रक्रिया अगले दिन ही पूरी कर लिये जाने का इरादा जाहिर कर दिया गया है। इसके लिए कैबिनेट के विशेष बैठक बुलाई गई है। इसके बाद फिर राज्य विधानसभा और संसद से प्रस्ताव पास होगा। इसके बाद अध्यादेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होंगे। जिस तरह की संभावनाएं जतायी जा रही हैं, कांग्रेस इस पूरी प्रक्रिया को अगले चार-पांच महीने में पूरी करने का मन बना रही है क्योंकि इससे उसे राजनीतिक लाभ तय है। यही समझाकर उसने मुद्दे पर विरोध की अगुवाई संभाल रहे आंध्र प्रदेश के नेताओं को शांत बैठाया है। फिर क्या वजह हैं जो यूपीए के घटक दलों में विचार के लिए मुद्दा लाया गया है और इसी दिन कांग्रेस कार्यसमिति ने मंजूरी दे दी। इस फैसले की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैं। राहुल जल्दबाजी में यह फैसला कराने के इच्छुक थे क्योंकि उन्हें तेलंगाना में राजनीति अपनी पार्टी के अनुकूल बनने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। लेकिन पार्टी में इस पर आम सहमति नहीं, उसके एक तबके को लगता है कि राहुल गांधी पार्टी के एक बड़े वर्ग के आकलन को दरकिनार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के कई नेता अलग राज्य बनाए जाने के खिलाफ हैं। पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद जहां राहुल की हां-हां में इसे हवा दे रहे हैं, वहीं दिग्विजय सिंह, सुशील कुमार शिंदे, आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नरसिम्हन और मुख्यमंत्री किरन कुमार खिलाफ हैं। पीएम के खिलाफ होने के पीछे सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट हैं। देश की अंदरूनी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार इन एजेंसियों को लगता है कि तेलंगाना बनाने को लेकर सरकार का फैसला बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि यह इलाका नक्सल गतिविधियों का केंद्र बन जाएगा। देश के कई नक्सल नेता तेलंगाना क्षेत्र के करीमनगर जैसे जिलों से आते हैं। दरअसल, यह मुद्दा कांग्रेस के गले में फंसने लगा था। हालांकि इसके विरोधी भी कम नहीं थे और जिस तरह से इस्तीफों का दौर चला, उससे लगने लगा था कि कांग्रेस फैसला टाल सकती है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तक ने जिस तरह दबाव बनाने के लिए सुर अलापे, उससे इस संभावना को बल मिला था। नेतृत्व समझ रहा था कि आंध्र प्रदेश में यह मुद्दा एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की तरह है। राज्य बनाने या न बनाने, दोनों स्थितियों में हालात उसके प्रतिकूल होने लगे थे। आंध्र प्रदेश की लगभग 42 प्रतिशत आबादी तेलंगाना क्षेत्र में रहती है और बाकी रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में। राजनीतिक तौर पर नया राज्य बनाने का निर्णय उसके हित में था क्योंकि तेलंगाना में उसका मुकाबला अकेली तेलंगाना राष्ट्र समिति से है जबकि बाकी के राज्य में वह तीन मजबूत पार्टियों से मुकाबिल है। अलग राज्य बनने पर चाहे समिति को राजनीतिक लाभ मिले लेकिन केंद्र से मंजूरी दिलाने का श्रेय उसे भी मिलना तय ही है। तेलंगाना में वह हार बर्दाश्त कर भी लेती लेकिन शेष क्षेत्र में प्रभावशाली होकर उभरी जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस ने सिरदर्द बढ़ा रखा है। आज स्वीकृति देने वाली कांग्रेस इस मुद्दे पर कई बार पलटी मार चुकी है। याद कीजिए, 1971 में तेलंगाना प्रजा समिति ने तेलंगाना क्षेत्र से 10 लोकसभा सीटें जीतकर मुद्दा उभारा था, तब कांग्रेस ने पल्ला झटक लिया था। लेकिन 2004 में चंद्रशेखर राव ने आंदोलन का बिगुल बजा रखा था, तब वह उनके साथ हो गई और राव को मंत्री पद से नवाज दिया। माना गया कि तेलंगाना पर कांग्रेस अब अनुकूल रुख अपना रही है लेकिन यह दोस्ती भी ज्यादा नहीं चली और दो साल बाद ही वह सार्वजनिक रूप से अलग राज्य पर अपनी हिचकिचाहट दिखाने लगी। इस पर राव ने कांग्रेस ने रिश्ता तोड़ लिया। न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग की वो रिपोर्ट भी उसने ठण्डे बस्ते में डाल दी जिसमें राज्य को लेकर कई विकल्प सुझाए गए थे। नए राज्य गठन में मुश्किलें भी आना तय है। आंध्र प्रदेश की सम्पत्ति को बांटना आसान नहीं है। राज्य के 45 प्रतिशत जंगल तेलंगाना इलाके में हैं और देश के 20 फीसदी से ज्यादा कोयला भण्डार भी। कांग्रेस के लिए तात्कालिक लाभ भाजपा के पैर बांधना भी है जो राव से दोस्ती करके आंध्र प्रदेश में खाता खोलने के लिए तैयारी कर रही थी। चुनावी तालमेल की रूपरेखा तय करने के लिए भाजपा राव के नजदीकियों से कई दौर की वार्ता कर चुकी थी और अंतिम फैसला उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह को करना था। नई परिस्थिति में यह समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, यह तय है।

Wednesday, July 24, 2013

अब तो अपने 'रूपे' का इंतजार...

भारतीय अर्थ जगत में एक बदलाव दस्तक दे रहा है। आसार अच्छे हैं। इस परिवर्तन के तहत जल्द ही माइस्त्रो, वीजा, मास्टर, अमेरिकन एक्सप्रेस और साइरस कार्ड के दिन लदने वाले हैं, उनकी जगह लेगा भारतीय कार्ड रूपे। सितम्बर से यह भारतीय कार्ड विदेशी समकक्ष कार्डों को खदेड़ने में सफल होने लगेगा। वित्तीय तंत्र के लिए यह अच्छा संकेत होगा। प्रतिदिन करीब तीन हजार करोड़ रुपये जो लेन-देने के दौरान दुनिया में सर्वाधिक प्रचलित इन कार्डों को चलाने वाली प्रतिष्ठित विदेशी कम्पनियों के खाते में फंस जाते हैं, वह रूपे (Ru-pay) के जरिए भारत में ही रहेंगे और भारतीय मुद्रा तंत्र को मजबूती देंगे। आपके पास डेबिट या क्रेडिट कार्ड वीजा का होगा या मास्टर या माइस्त्रो या फिर साइरस का। अमेरिकन एक्सप्रेस भी प्रचलित ब्रांड है। असल में, यह दुनियाभर में प्रचलित इलेक्ट्रॉनिक मुद्रा कार्ड हैं। ये कार्ड विदेशी भुगतान प्रणाली पर चलते हैं। इनका दुनियाभर की भुगतान प्रणाली पर एकछत्र राज है। आसान शब्दों में कहें तो दुनिया के ज्यादातर देशों की बैंकें भारी-भरकम राशि देकर इन कार्ड कम्पनियों से करार करती हैं। इससे वीजा जैसे कार्डों के जरिए आर्थिक लेन-देन इलेक्ट्रॉनिक रूप में होने लगता है। व्यावहारिक रूप में यह प्लास्टिक कार्ड इलेक्ट्रॉनिक चेक की भांति कार्य करता है, इसके जरिए शाखा में बगैर जाए आप अपना धन खाते से निकाल सकते हैं। कार्डों का उपयोग कुछ देशों में इतना व्यापक हो चुका है कि इसने चेक की जगह ले ली है। अन्य देशों की तरह भारत में भी इंटरनेट बैंकिंग, आनलाइन कर भुगतान, क्रेडिट एवं डेबिट कार्डों का प्रयोग, इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा प्रणाली, राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (एनईएफटी), के साथ ही तत्काल सकल भुगतान प्रणाली आदि को आधुनिक बना दिया है। इससे कार्यकुशलता आई, कार्य किफायती हुआ, भुगतान प्रणालियों में पारदर्शिता आई और विश्वसनीयता भी बढ़ गई। आधुनिकीकरण के इसी दौर में मजबूरी में ही सही, पर विदेशी कम्पनियों के कार्डों का वर्चस्व स्थापित हो गया। एक अनुमान के अनुसार, दुनिया के करीब 43 प्रतिशत आनलाइन भुगतानों का माध्यम मास्टर कार्ड है। इसी तरह वीजा कार्ड का अच्छा-खासा बाजार है। एक्सिस बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में दो करोड़ 30 लाख से ज्यादा वीजा क्रेडिट कार्ड हैं जबकि 30 करोड़ के आसपास एटीएम कार्ड यानि डेबिट कार्ड धारक। समस्या यह नहीं कि यह कार्ड विदेशी हैं, बल्कि यह है कि हमारे वित्तीय लेन-देन का लगभग आधे से ज्यादा तंत्र इन्हीं कार्डों पर आश्रित हो गया है। हालांकि मुश्किलें भी कम नहीं। उदाहरण से समझें कि यदि आपने किसी वस्तु के लिए आनलाइन पेमेंट किया या कोई बिल अदा किया। तकनीकी कारणों से पेमेंट फेल हो गया लेकिन राशि आपके खाते से कट गई तो जितने दिन राशि आपके खाते में वापस नहीं आएगी, उसमें इन कार्ड कम्पनियों का भी फायदा है। एक तो अंतरणों की संख्या एक से बढ़कर दो हो जाएगी। ऊपर से, पेमेंट के लम्बित होने के वक्त का ब्याज भी जेब में जाएगा। चूंकि सेवाएं लेना बैंकों की मजबूरी है इसलिये यह कम्पनी अपनी शर्तों पर ही काम किया करती हैं। सेवा शुल्क भी इतना ज्यादा है कि बैंकें एटीएम स्थापना के बाद अन्य शुल्क लगाकर इस खर्च की भरपाई किया करती हैं। ऐसे में आवश्यकता थी कि किसी न किसी तरह विदेशी कार्डों का आधिपत्य समाप्त या बेहद कम कर दिया जाए। यही आवश्यकता रूपे कार्ड की जननी बन गई। एशिया की आर्थिक महाशक्ति चीन पहले ही यूनियन पे आॅफ चाइना के नाम से विदेशी कार्डों का विकल्प तलाश चुकी थी। वर्ष 2009 में भारतीय रिजर्व बैंक की पहल पर भारतीय बैंक संघ ने गैर-लाभकारी भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम बनाया और निगम ने अप्रैल 2011 में रूपे को विकसित किया। अगले ही माह महाराष्ट्र में शहरी सहकारी क्षेत्र के गोपनीथ पाटिल पर्तिक जनता सहकारी बैंक के माध्यम से पहला रूपे कार्ड लांच हो गया। इसके बाद काशी-गोमती संयुक्त ग्रामीण बैंक ने यह कार्ड जारी किया। निगम इस समय सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों को जोड़ने की कवायद में जुटा है, इनमें बैंक आॅफ इंडिया पहला बैंक है जिसने रूपे को स्वीकार किया है। इन बैंकों ने वित्तीय समावेशन के तहत जोड़े गए ग्राहकों को यह कार्ड जारी किया। यह कार्ड अभी सीमित सेवाएं दे रहा है, लेकिन बाद में इसे क्रेडिट कार्ड के रूप में भी जारी किया जाएगा। योजना के मुताबिक, सितम्बर में व्यावसायिक तौर पर जारी होने के बाद यह कार्ड वीजा और मास्टर कार्ड जैसी वैश्विक भुगतान प्रणाली की जगह ले लेगा। इसके लिए देशभर की करीब आठ लाख आॅटोमेटिक टेलर मशीन (एटीएम) में बदलाव होगा। बदलाव की यह प्रक्रिया हालांकि शुरू हो चुकी है, अभी तक करीब पौने दो लाख मशीनों में यह बदलाव किया जा चुका है। इस माह के अंत तक यह संख्या पांच लाख पहुंच जाएगी। इसके तहत प्रत्येक एटीएम को रूपे गेटवे कार्ड के लिए सॉफ्टवेयर से लैस किया जा रहा है, फिर इनमें वीजा, मास्टर, साइरस या माइस्त्रो कार्ड के साथ ही रूपे कार्ड का इस्तेमाल भी संभव होगा। हालांकि बैंकों और उनके ग्राहकों के लिए कार्ड में बदलाव की पूरी प्रक्रिया बेहद खर्चीली साबित हो रही है। बैंक प्रत्येक नए कार्ड पर 45 रुपये के आसपास खर्च कर रहे हैं। कुछ बैंक विभिन्न लाभकारी योजनाओं में निवेश करने वाले ग्राहकों के लिए यह राशि अपनी जेब से अदा कर रहे हैं तो कुछ की योजना ग्राहकों से वसूल करने की है। दीर्घकालिक लाभ हासिल होने की पक्की संभावना के चलते यह सौदा न बैंकों के लिए घाटे का है और न उसके ग्राहकों के लिए। एटीएम संचालन में सुविधा बढ़ोत्तरी और विभिन्न शुल्कों में कटौती यह दर्द कम करने वाली है।