Monday, September 2, 2013
बलात्कार की सज़ा महज तीन साल !!!
रेप जैसी घटना ईश्वर न करे, किसी लड़की के साथ हो। अब दिल्ली गैंगरेप की ही बात करें, पीड़ित दामिनी को सबसे ज्यादा कष्ट देने वाले अपराधी को महज तीन साल की सजा हुई है, क्योंकि वह किशोर है। किशोर न्यायालय के स्तर से तीन साल की इस सजा पर पीड़ित लड़की की मां की प्रतिक्रिया आई है, इससे अच्छा तो यही था कि उसे मुक्त ही कर दिया जाता क्योंकि उसकी किशोर वय दो वर्ष चार महीने रहेगी, इस अवधि में उसका चाल-चलन, व्यवहार अच्छा रहा और हर वर्ष सजा में कुछ दिन की माफी शामिल हो गयी तो वह और जल्दी मुक्त हो जाएगा। यह दरअसल, भारतीय कानूनों की विसंगतियों में से एक है। राजनीतिक दल दायरे में आने लगें तो हम सूचना का अधिकार कानून बदलने की सोच सकते हैं, अपराधी राजनीतिज्ञों के शिकंजे में फंसने पर कानून बदल भी सकते हैं लेकिन इतने गंभीर अपराध का कानून महज इस आधार पर बदलने की नहीं सोचते कि इससे सामाजिक असंतुलन पैदा होने का खतरा है। बेशक, इससे किशोरवय लड़के बलात्कार की सजा से डरना छोड़ दें।
इस प्रश्न को लेकर दो मुद्दे उठे हैं एक तो किशोर की परिभाषा क्या की जाये? क्या यह परिभाषा यदि मताधिकार के लिए निर्धारित आयु पूरी नहीं की है तो उसे किशोर की संज्ञा दी जाये या ऐसा व्यक्ति जो शारीरिक, मानसिक और सोच के आधार पर वयस्क नहीं हुआ है उसे माना जाये। इस रूप में यह मान्यता आयु के आधार पर ही निर्धारित करनी पड़ेगी जिससे इसका परिपालन संभव हो पाये। वोट देने वाला वयस्क तो 18 साल का होता है, साथ ही इस आयु के बाद उसे सम्पत्ति के स्थानान्तरण के अधिकार भी प्राप्त हो जाते हैं। हालांकि 14 वर्ष से अधिक आयु वाले किशोर को मोटर साइकिल और इंजन वाली गाड़ियां चलाने का लाइसेंस दिया जा सकता है। बैंकों के खातों के संचालन के लिए भी जो नियम बनाये गये हैं उसके लिए भी पात्रता की श्रेणी में ही आता है। इसी प्रकार पुरुष और महिला के शारीरिक विकास के सम्बन्ध में भी यही माना जाता है कि महिलाओं के शरीर का विकास जल्दी होता है। अरब में तो एक नौ वर्ष की बालिका के भी मां बन जाने के समाचार छपे थे। कहा यह जाता है कि यह उष्ण कटिबंध वाले क्षेत्रों के वातावरण का प्रभाव है, इसलिए भारत जैसे समशीतोष्ण देश में यदि किशोर के वय निर्धारण का प्रश्न है तो उसके प्रमुख तत्व क्या होने चाहिए। इसलिए महिलाओं में 16 वर्ष से कम आयु की बच्चियों को गर्भधारण और प्रजनन की आयु मान ली जाती है क्योंकि परिपक्वता के यहमानक उसके रजस्वला होने से ही आंके जाने लगते हैं, विभिन्न अंगों का विकास उसी के अनुकूल होता है।
जहां तक किशोर वय वाले पुरुषेन्द्रीय बच्चों का सम्बन्ध है इस मामले में भी यह तथ्य आया था कि 23 वर्ष की उस महिला के साथ सबसे अधिक सक्रिय यही किशोर वय वाला ही था और उसने ही महिला को अन्य तरीकों से भी घायल करने की भूमिका अदा की। इसे उसकी मूर्खता या बचपना कहा जाये या यह माना जाये कि इसमें आपराधिक प्रवृत्ति और काम भावना के लिए आवश्यक शारीरिक विकास हो चुका था। लेकिन सजा इसलिए कम मिली क्योंकि पूर्ण सजा की पात्रता में कुछ दिन बाकी थे। इसलिए यदि इसे अवयस्क माना जाये तब भी क्या अवयस्क और किशोर दोनों समानार्थी हैं। जहां तक न्यायालयों का सम्बन्ध है वे स्वतंत्र और अपनी इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने वाले नहीं हैं बल्कि उन्हें स्थापित न्यायिक भावनाओं और गठित मायार्दाओं के अधीन रहकर ही अपने दायित्वों का निर्वहन करना होता है। इसलिए कानून के बारे में निर्णायक तो इसे बनाने वाला है न कि तदनुरूप आचरण के लिए निर्धारित न्यायालय। क्योंकि इसे तो कानून में किसी प्रकार का संशोधन, परिवर्धन करने का अधिकार नहीं है और इसकी व्याख्याओं का निर्धारण भी प्रारम्भिक न्यायालय नहीं बल्कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय करते हैं। लेकिन कानून निर्माण की शक्ति के सम्बन्ध में वे भी विधायिकाओं के सामूहिक समझदारी पर ही आश्रित हैं। लेकिन जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस वर्मा आयोग के समक्ष संशोधन और परिवर्तन के लिए विचाराधीन था तो इन न्यायिक अधिकारियों की भी राय यही थी कि इसमें आयु के सम्बन्ध में कोई परिवर्तन करना उचित नहीं होगा। इसलिए यदि विधायिकाओं की सामूहिक समझदारी से ही न्यायिक विवेक भी साझा कर ले तो यह मानना पड़ेगा कि दोनों की सोच में साम्यता है। किशोर वय के निर्धारण का जब प्रश्न उठेगा तो विचारणीय यह भी होना चाहिए कि किशोर और वयस्क में वे कौन से अन्तर हैं जिसके कारण दोनों के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएं, विचार और दण्ड प्रक्रिया के प्राविधान हैं। इस क्यों का स्पष्ट उत्तर तो होना ही चाहिए। इस शारीरिक कर्म, परिपक्वता के निर्धारक तत्व क्या हों, इस पर भी ध्यान दिया ही जाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि आयु की इन सीमाओं का संधिकाल के सम्बन्ध में भी क्या अलग विधान नहीं होना चाहिए? न्यायालय ने बनाये गये कानून की मजबूरी के कारण जो दण्ड दिया है उसका एक समाधान तो यह भी हो सकता है कि जिन 11 धाराओं में उसे सजाएं दी गयी हैं वे साथ-साथ चलेंगी या अलग। परम्पराओं के अनुसार तो सबसे अधिक सजा ही इस मामले में निर्णायक होती है लेकिन इसमें इस मामले में सजा जो भी मिले लेकिन यह ऐसा प्रश्न है जिस पर विधायिका को एक बार विचार करना ही चाहिए क्योंकि जब पुराना कानून बना था और आज के युग में अन्तर आ गया है। वयस्कता पहले की अपेक्षा जल्दी प्राप्त की जा सकती है इसीलिए मतदान की आयु भी 21 से घटाकर 18 की गयी थी कि इस आयु का व्यक्ति भावी व्यवस्था बनाने के लिए निर्णायक राय देने का पात्र है। इसलिए किशोर वय निर्धारित करने के प्रश्न पर भी पुनर्विचार नयी स्थितियों और बदलते हुए युग परिवेश के अनुकूल किया जाना चाहिए। यह मानते हुए कि केवल दण्ड से ही समाज को नहीं सुधारा जा सकता, इसलिए जेलों को भी दण्डगृह के बजाय सुधारगृह कहा जाने लगा है। चूंकि अपराधों को रोकने के लिए दण्ड प्रक्रिया अपनायी गयी थी और जब तक यह रहती है तब तक उसके प्रभावों और विसंगतियों पर भी ध्यान देना ही पड़ेगा। यह सोचने का वक्त है वरना कहीं देर न हो जाए।
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