Sunday, September 8, 2013

नरेंद्र मोदी का दांव

नरेंद्र मोदी के बयान के निहितार्थ क्या हैं, राजनीति के गलियारों में यह सवाल खूब गरम है। अब तक प्रधानमंत्री पद पर अपनी उम्मीदवारी के सवाल को लगभग टाल जाने वाले मोदी अगर यह कह रहे हैं कि गुजरात में उन्हें 2017 तक का जनादेश मिला है और तब तक वह वहीं सेवा करेंगे तो यह गर्माहट बढ़नी स्वाभाविक ही लगती है। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान की कमान मिलने के बाद जिस नेता के इर्द-गिर्द सारा कौतूहल केंद्रित हो जाता हो, जिसे पीएम पद का सबसे ज्यादा मजबूत प्रत्याशी मान लिया गया हो, स्वतंत्रता दिवस पर पहली बार जिस नेता के भाषण को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के संबोधन के बराबर महत्व मिला हो, वह अगर खुलकर पीएम पद पर पहुंचने के अपने किसी सपने से इंकार कर रहा हो, तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिदृश्य को लेकर अटकलें थम जानी ही हैं। मोदी का बयान इसलिये रणनीति का हिस्सा लगता है क्योंकि वह पिछले दो वर्ष से खुद को पीएम पद के दावेदार के तौर पर ही तैयार कर रहे हैं। अपनी इमेज ब्रांडिंग भी उन्होंने इसी लिहाज से की है। मोदी के अपनी पार्टी की केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने के बाद जिस तरह से हलचलें शुरू हुर्इं, आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले, उससे यह तो निर्विवाद रूप से कहा ही जा सकता है कि वह अन्य सभी दावेदारों में सबसे आगे हैं। सियासी तौर पर हाशिये पर विचरण कर रही भाजपा के लिए वह एक संजीवनी बनकर आए। पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार हुआ और एक-एक करके दूसरी पंक्ति के सभी नेताओं ने उनकी दावेदारी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यहां तक कि पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी भी मान ही गए। मोदी ने इंकार किया तो उनके सबसे निकटतम प्रतिद्वंद्वी माने जा रहे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अपनी आपत्ति से संबंधी मीडिया रिपोर्टों को बेबुनियाद बताकर पल्ला झाड़ लिया। जब पूरी पार्टी मोदी के साथ है, अपने अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मोदी प्रेम के आगे नतमस्तक है तो फिर मुश्किल है कहां। क्यों मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी किसी भी दावेदारी से इंकार कर रहे हैं। दरअसल, आडवाणी अब भी अंदरखाने सक्रिय हैं और सुषमा स्वराज भी मोदी के नाम पर तैयार नहीं इसीलिये मोदी के नाम की सार्वजनिक घोषणा में रुकावट आ रही है। मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं, संघ को उनसे सहानुभूति है इसलिये ही संघ प्रमुख मोहन भागवत सक्रिय हुए और उन्होंने आडवाणी के साथ ही राजनाथ और सुषमा से मुलाकात की। वह कहने से नहीं हिचके कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के मुद्दे पर जो भी फैसला करना है, वो जल्दी किया जाए। देरी से भाजपा को क्षति होगी। यह बयान मोदी की रणनीति का हिस्सा लगता है, तभी तो उन्होंने वह समय चुना जब संघ और भाजपा नेताओं की बड़ी बैठक आठ और नौ सितम्बर को दिल्ली में प्रस्तावित है। इसमें अन्य मुद्दों के साथ ही मोदी की पीएम पद पर उम्मीदवारी का फैसला भी होना है। बैठक की तैयारी के क्रम में संघ के वरिष्ठ नेता भैयाजी जोशी आडवाणी से मिल चुके हैं। बैठक में सुषमा ने साफ कहा कि इस समय मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा पर उनके लिए संसद में नेता विपक्ष के तौर पर काम करना कठिन हो जाएगा। आडवाणी का कहना था कि इस बारे में कोई फैसला चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद होना चाहिए वरना नरेंद्र मोदी खुद मुद्दा बन जाएंगे। ढाल के तौर पर चौहान का नाम लिया गया, चौहान ने यह बात सरसंघ चालक मोहन भागवत से पहले ही कह रखी है। आडवाणी, सुषमा के साथ ही भाजपा संसदीय दल में मोदी विरोधी तीसरे सदस्य मुरली मनोहर जोशी हथियार डाल चुके हैं। मुश्किलें भी मोदी के बयान की वजह बनी हैं जिनका पार्टी के भीतर उनके विरोधी प्रयोग कर रहे हैं। इसी क्रम में गुजरात के आईपीएस डीजी बंजारा के इस्तीफे की बात यह कहते हुए उठाई गई कि इसका गलत प्रयोग हो सकता है लेकिन इस्तीफा नामंजूर करके मोदी ने यह अस्त्र बेअसर कर दिया। विरोधियों की जिस बात को सबसे ज्यादा वजन मिल रहा है, वह यह है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में चुनाव बाद कमजोर स्थिति पर मोदी के लिए समर्थन जुटा पाना बेहद मुश्किल कार्य है। चुनाव पूर्व भी अन्य दल साथ आने से हिचक रहे हैं। ऐसे दलों में यह लोग चंद्रबाबू नायडू और जयललिता का नाम ले रहे हैं जो अपने-अपने राज्यों में मुस्लिम वोटों की वजह से मोदी के समर्थन से बच रहे हैं। इसके साथ ही बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक भी मोदी को पसंद नहीं करते। यह नेता संघ को समझा रहे हैं कि बिना पीएम प्रत्याशी घोषित किए चुनाव लड़ने पर कई दल साथ आ जाएंगे जो चुनाव पश्चात सरकार बनने की स्थिति में विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों के चलते साथ रहने से नहीं हिचकेंगे। इसके साथ ही मोदी का स्वभाव भी विरोधियों को डरा रहा है, वह किसी की परवाह नहीं किया करते और तानाशाह की तरह व्यवहार करते हैं। वह इस तरह पेश आते हैं, मानो जैसा वह कहेंगे, वैसा ही चलेगा। नेताओं को लगता है कि पीएम बनने के बाद उनकी भूमिका गणेश परिक्रमा तक सीमित हो जाएगी और मोदी सत्ता के एकमात्र केंद्र बनकर स्थापित हो जाएंगे। मोदी जिसे चाहेंगे, वह आगे होगा और बाकी लोगों को नेपथ्य में धकेल दिया जाएगा। नरेंद्र अब तक अपनी राजनीतिक लड़ाई अकेले लड़ते आए हैं। शिक्षक दिवस पर पीएम की दावेदारी पर अनमनेपन से उन्होंने एक दांव खेल दिया। आने वाले दिनों में उनके अन्य कदम देखना खासा दिलचस्प होगा। पार्टी नेतृत्व और संघ, दोनों जानते हैं कि मोदी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय हैं। पार्टी में वह अकेले ऐसे नेता हैं जो मतदाताओं में पार्टी के लिए उत्साह पैदा करने में सक्षम हैं। इसीलिये मोदी शब्दबाण से काम चला रहे हैं। (लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

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