Friday, June 3, 2016

धर्म में ढंकी सियासत का काला सच

यह अप्रत्याशित तो कतई नहीं था। मथुरा के जवाहर बाग में हजारों असामाजिक तत्वों की भीड़ के सामने अगर नौसिखियाओं की तरह पुलिस और प्रशासनिक अफसर पहुंचे तो वही हुआ, जो हो सकता था। लेकिन बात इतनी सुलझी भी नहीं... यहां बेशक, पुलिस और भीड़ की भिड़ंत हुई पर, इसकी पटकथा राजनीति के बड़े सूरमा ने लिखी। धर्म के घोल में घुली सियासत ने पुलिस के पहले से ही हाथ-पैर बांध रखे थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्ती और स्थानीय राजनीति के प्रतिदिन के हंगामे के उकसावे ने अनुभवी डीएम-एसएसपी के हाथ-पैर फुला दिए और इतने बड़े कांड की कहानी बन गई। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी का एक बड़ा चेहरा भी परदे के पीछे है, मात खाया हुआ, पस्त और बेहाल।
मथुरा में हाईवे के आसपास की बेशकीमती जमीनें माफिया की नजरों में हॉटस्पॉट रही हैं, धार्मिक नगरी में धर्म के कारोबारी भी इस मामले में पीछे नहीं। बाबा जयगुरुदेव के अनुयायी भी अक्सर जमीन पर कब्जे के आरोपों में फंसते रहे हैं। इन्हीं अनुयायियों की नजर करीब ढाई सौ एकड़ के जवाहर बाग पर पड़ी, उस समय बाबा के जयगुरूदेव का गोलोकगमन हुआ था। भीतर बिछी चौसर पर उत्तराधिकार को लेकर शह और मात का खेल चल रहा था। बाबा के नजदीकी पंकज यादव यह जंग जीत गए, तमाम दांव-पेच के बावजूद उमाकांत तिवारी हार गए। लेकिन यह बात तब जोर-शोर से उठी थी कि बाबा ने तिवारी का नाम लिया था। कहा था कि कभी भी हम आएंगे, अब वो अपने लिए.. परमार्थ के लिए। नए लोगों के लिए जो नए आएंगे, लेंगे नाम तो ये उमाकांत तिवारी और पुराने जो नामदानी हैं, वो भी ये सम्हाल करते रहेंगे। इसके बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, उनके अनुज शिवपाल सिंह और पुत्र अखिलेश यादव ने मध्यस्थता की थी। नतीजतन, पंकज यादव के सिर पर ताज सज गया। लेकिन विवाद की कथा लिखनी शुरू हो गई। मथुरा-दिल्ली बाईपास पर सैकड़ों एकड़ भूमि में बने भव्य बाबा जयगुरूदेव नामयोग साधना मंदिर पर यादव समर्थक काबिज हो गए और विरोधी, कुछ समय बाद जवाहर बाग में आकर जम गए। अजूबी मांगों वाले यह लोग खुद को सत्याग्रही बताकर बाग में बसने लगे। कई बार उन्हें हटाने की कोशिश में हंगामे हुए। शासन-सत्ता को खुली चुनौती के बयान सुर्खियां पाते रहे।
ताजा घटनाक्रम में भी सत्ता के दांव-पेच चले हैं। प्रदेश के एक कद्दावर मंत्री की आश्रम पर काबिज समूह से नजदीकियां जगजाहिर हैं। इसी मंत्री की इच्छा पर जिले के पुलिस-प्रशासनिक तंत्र को पर्याप्त मात्रा में फोर्स उपलब्ध नहीं कराया गया। हिंसा में शहीद पुलिस अधीक्षक मुकुल द्विवेदी के मित्र ने खुलकर कहा भी है कि शासन स्तर से पर्याप्त पुलिस फोर्स उपलब्ध कराए जाने को लेकर मुकुल तनाव में चल रहे थे। जिस फोर्स और दम के बूते, वो बाग में घुसे, उससे यह पहले ही तय हो गया था कि मात पुलिस के हिस्से में ही आने वाली है। बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस एेसे अभियान स्थानीय अभिसूचना इकाई से हालात का फीडबैक लेने के बाद चलाती है। सेना के साथ अॉपरेशन में सहयोग की रणनीति बनाई पर, एेन वक्त पर सेना को बुलाया ही नहीं गया। जिस जवाहर बाग के एक तरफ जिला मुख्यालय यानी कलक्ट्रेट, दूसरी ओर जिला जेल, तीसरी तरफ सैन्य क्षेत्र और चौथी ओर दिल्ली राजमार्ग है, एेसे संवेदनशील क्षेत्र में खिचड़ी पक जाना स्थानीय खुफिया तंत्र की नाकामी है।
इतनी लापरवाही कैसे हो सकती है कि बाग में हथियारों का जखीरा जमा हो, हैंड ग्रेनेड, फरसे-तलवारें, एके 47 जैसे अस्त्रों-शस्त्रों का जमावड़ा हो और पुलिस जैसे मात्र हाथों में डंडे लेकर पहुंच जाए। शुरुआती दौर में ही फरह थाने के प्रभारी संतोष यादव और एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के घायल होने के बाद अफरातफरी मच जाना तो एेसा है जैसे बच्चों का कोई खेल हो। आश्चर्य इस बात का भी है कि आगरा परिक्षेत्र के डीआईजी मथुरा जाकर हालात का जायजा लें, रणनीति बनाएं लेकिन अन्य जिलों की फोर्स तक मुहैया कराने की जरूरत न समझी जाए।
सूत्र तो यहां तक कहने से नहीं हिचक रहे कि कद्दावर मंत्री के इशारे पर आला अफसरों ने लापरवाही बरती। यह नेता चाहता है कि नया आश्रम बन जाए और इस बागी गुट का जयगुरुदेव आश्रम पर काबिज गुट के बीच ताकत का संतुलन बना रहे। इस बीच सक्रिय हुए काबिज गुट ने अवैध कब्जेदारों में मतभेद कराकर अपनी घुसपैठ बढ़ा ली। बवाल के बाद ज्यादातर लोगों का मंदिर की तरफ भागना इसी ओर इशारा कर रहा है कि अंदरखाने कुछ और भी पक रहा था। सवाल तो कई हैं जो इन अवैध कब्जाधारियों को सत्ता के संरक्षण का शक पैदा कर रहे हैं। पहला और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मात्र दो दिन सत्याग्रह की अनुमति लेने वालों को दो साल तक क्यों जवाहर बाग से नहीं हटाया गया? उन्हें सरकारी दर पर राशन कैसे और किसके इशारे पर मुहैया कराया जाता रहा? बिजली आपूर्ति कैसे चलती रही और तीन बार खराब हुए दो सरकारी नलकूप किसने और क्यों ठीक कराए जबकि उनके लिए किसी बिल का  भुगतान नहीं हो रहा था? धर्म के आवरण में ढंके राजनीति के इस खेल ने पुलिसकर्मियों की बलि ली है, हालांकि लगता अब भी नहीं कि दोषी बेनकाब होंगे। जांच में भी लीपापोती के पक्के आसार हैं क्योंकि जांच मंडलायुक्त स्तर के एक सरकारी अफसर को दी गई है, न कि किसी न्यायिक अधिकारी को। आयुक्त की मजबूरी होगी कि वह सत्ता की मर्जी के माफिक रिपोर्ट तैयार करे। जांच अधिकारी बदला गया है। पहले घोषित आगरा का कमिश्नर सपा के दूसरे प्रभावशाली नेता का करीबी था जो कद्दावर मंत्री से आजकल छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं। आगरा के कमिश्नर की जांच कद्दावर मंत्री के गले फंस सकती थी। बहरहाल, इस प्रकरण पर शासन-सत्ता को शर्म तो करनी ही चाहिये।

Thursday, March 3, 2016

मानसिक रोगों का बढ़ता साम्राज्य

सावधान! भारत में मानसिक रोग अपना साम्राज्य बनाने लगे हैं। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा, तनाव, झुंझलाहट जैसे भाव आपके स्वभाव का हिस्सा बन रहे हैं तो सतर्क रहिए। महंगाई जैसी समस्याएं भी रोग को विकराल बनाने में योगदान कर रही हैं। हाल इतने खराब हैं कि देश में हर सातवां व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है। एक साल की ही अवधि में रोगियों की संख्या में करीब 20 लाख की वृद्धि हुई है। भयावह होते संकट पर प्रकाश डालती रिपोर्ट:-
डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया
मानसिक रोगों में सबसे ज्यादा रोगी डिप्रेशन के होते हैं। सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी भी बढ़ रही है हालांकि उसकी रफ्तार कम है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, दिमाग में पाए जाने वाला सीरोमिन केमिकल कम हो जाने पर डिप्रेशन की बीमारी होती है। अक्सर लोग कहते हैं कि उन्हें टेंशन हो रही है और इसी स्थिति को डिप्रेशन कहने लगते हैं, यह गलत है। डिप्रेशन एक बीमारी है जो किसी को भी हो सकती है। डिप्रेशन की बीमारी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं दो से तीन गुना ज्यादा होने की संभावना होती है। हर पांच में से एक महिला डिप्रेशन की शिकार है। सिजोफ्रनिया एक तरह से पागलपन की बीमारी है जिसमें व्यक्ति दूसरों पर शक करने लगता है और अजीब हरकतें करता है। यह गंभीर स्थिति होती है। डिप्रेशन के मुकाबले इसके मरीज कम हैं। अकेले मुंबई की ही बात करें तो वहां मुंबई नगर निगम की स्वास्थ्य समिति ने इस साल डिप्रेशन की दो प्रमुख दवाइयों की तीस लाख गोलियां खरीदने का फैसला लिया है। पिछले साल यह संख्या साढ़े चार लाख थी और उससे भी पिछले साल एक लाख 50 हजार थी यानि साल-दर-साल डिप्रेशन की गोलियों की खरीद में बढ़ोत्तरी हुई है। खरीदी जा रही दवाइयों में से एक डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया बीमारी में काम आती है। इतनी बड़ी तादात में खरीदी जा रहीं गोलियां एक बड़ा सवाल खड़ा करती हैं कि क्या मुंबई धीरे-धीरे मानसिक तनाव से घिरती जा रही है? क्या बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि उससे निपटने के दवाइयों की इतनी बढ़ी खेप की जरूरत पड़ रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी एक समिति का आंकलन है कि देश के मानसिक अस्पतालों में रोजाना डिप्रेशन के 50 या इससे ज्यादा मरीज आते हैं। दो गोली सुबह, दो शाम के हिसाब से एक मरीज को 15 दिन की दवाएं दी जाएं तो 50 मरीज के हिसाब से 15 दिन की खुराक 3000 गोलियां होती हैं। महीने के हिसाब से 75000 गोलियां इस्तेमाल होती हैं। ये एक अस्पताल के एक दिन के मरीजों की एक महीने की खुराक है। सभी अस्पतालों के मरीजों की बात करें, तो यह संख्या बहुत ज्यादा होगी। अन्य बीमारी की अपेक्षा इन बीमारी का इलाज लंबा चलता है। डिप्रेशन मानसिक लक्षण के अलावा शारीरिक लक्षण भी प्रकट करता है जिनमें छाती में दर्द, दिल की धड़कन में तेजी, कमजोरी और सिरदर्द शमिल हैं। इसके अलावा डिप्रेशन के मरीजों का किसी काम में मन नहीं लगता, किसी काम या किसी चीज में दिलचस्पी नहीं होती, आॅॅफिस या घर से बाहर जाने की इच्छा नहीं होती, आत्मविश्वास कम हो जाता है, स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है, उदासी अधिक सताती है और भूख कम लगती है या समाप्त हो जाती है। डिप्रेशन के ज्यादातर मरीजों को नींद बहुत कम आती है लेकिन कुछ मरीजों को नींद अधिक सताती है। आम तौर पर इन लक्षणों वाले मरीज सामान्य ओपीडी में जाते हैं जहां तमाम तरह के परीक्षणों के सामान्य आने पर चिकित्सक मरीज को सामान्य बता देते हैं क्योंकि उनके एक्स-रे,  ईसीजी एवं अन्य परीक्षणों के निष्कर्ष सामान्य होते हैं लेकिन ऐसे मरीज डिप्रेशन से पीड़ित हो सकते हैं।

आम हुआ डिप्रेशन, उदासी नहीं है ये

मनोचिकित्सक डॉ. केसी गुरुनानी कहते हैं कि हमारे देश में आज डिप्रेशन इतना आम हो गया है कि लोग इसे बीमारी के तौर पर नहीं लेते। ज्यादातर लोग डिप्रेशन को सामान्य उदासी की तरह ही देखते हैं और ऐसे में लोग डिप्रेशन के बारे में विशेषज्ञों से राय लेने से कतराते हैं जिसका नतीजा काफी घातक हो जाता है और इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में भी हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार डिप्रेशन के 15 प्रतिशत रोगी आत्महत्या कर लेते हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि आज केवल वयस्क ही नहीं बल्कि बच्चे भी डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं और स्कूल जाने वाले बच्चों में डिप्रेशन का मामला लगातार बढ़ता जा रहा है और यही वजह है कि बच्चों में आत्महत्या की घटना पहले से बढ़ी हैं। इंस्टीट्यूट आॅफ मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंसेस के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. समीर कलानी कहते हैं कि आज के आधुनिक जीवन की जटिलताओं एवं सामाजिक,आर्थिक समस्याओं के कारण डिप्रेशन एवं आत्महत्या की घटनाओं में भयानक तेजी आयी है। आज जरूरत इस बात की है कि सामाजिक स्तर पर किसी मानसिक समस्या को देखने के तौर-तरीके एवं दृष्टिकोण में बदलाव लाया जाए।


समूची दुनिया की समस्या

आज के समय में खास तौर पर महानगरों में जीवन में ज्यादा से ज्यादा जटिलताएं, समस्याएं एवं व्यस्तता आने तथा रोजमर्रा के जीवन के अधिक तनावपूर्ण होने के कारण डिप्रेशन का प्रकोप बढ़ रहा है। पहले जीवन सरल था और इतनी अधिक व्यस्तता एवं समस्याएं नहीं थी तब डिप्रेशन का प्रकोप भी कम था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 18 देशों में करीब 90 हजार लोगों पर किए सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में सबसे ज्यादा 36 फीसदी लोग मेजर डिप्रेसिव एपिसोड का शिकार हैं। दूसरे नंबर पर है फ्रांस है जहां 32.3 फीसदी लोग इसके शिकार है। तीसरे नंबर पर है अमेरिका है जहां 30.9 फीसदी लोग इसके शिकार हैं। इस सूची में सबसे नीचे है चीन है जहां 12 प्रतिशत लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में 12 करोड़ 10 लाख लोग डिप्रेशन का शिकार होते हैं जिसमें से साढ़े आठ लाख लोग अपनी जान तक दे देते हैं। भारत में मध्यम आयु से ही लोग डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। यहां डिप्रेशन के शिकार लोगों की औसत उम्र 32 साल के आसपास है। भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में डिप्रेशन का प्रकोप दोगुना है। 

भारत में दसवीं सामान्य बीमारी

भारत में डिप्रेशन आज दसवीं सबसे सामान्य बीमारी है। विश्व स्वास्थय संगठन की इंवेस्टमेंट इन हेल्थ रिसर्च एंड डेवलपमेंट नामक एक रिपोर्ट में आशंका व्यक्त की गयी है कि आने वाले समय में विकासशील देशों में डिप्रेशन विकलांगता का प्रमुख कारण बनने जा रहा है। विश्व बैंक ने भी अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि हृदय रोगों के बाद डिप्रेशन और अन्य मानसिक बीमारियां विकलांगता का दूसरा सबसे प्रमुख कारक होंगी। ऐसा माना जा रहा है कि सन 2020 तक हमारे देश में डिप्रेशन दूसरी सबसे आम बीमारी हो जायेगी और उस समय तक यह महिलाओं की सबसे आम बीमारी होगी। ऐसा नहीं है कि डिप्रेशन आधुनिक बीमारी है। प्राचीन भारत में भी डिप्रेशन के उदाहरण हैं। महाभारत में अर्जुन के रणभूमि में डिप्रेशन का शिकार होने का जिक्र है। वह श्रीकृष्ण की साइकोथेरेपी एवं काउंसलिंग के जरिये ही ठीक हुए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल एवं सुप्रसिद्ध भारतीय फिल्मी शख्सियत गुरुदत्त भी डिप्रेशन के शिकार थे। 


क्या-क्या हैं वजह

देश में हर कदम पर समस्याएं हैं। ट्रैफिक जाम है तो कभी पानी नहीं आ रहा तो कभी बिजली की आपूर्ति ठप है, कभी एसी ठीक नहीं तो कभी पंखा, वाहन की समस्या। कामकाज और घर, सभी जगह समस्याओं की लाइन लगी है। यही समस्याएं मानसिक रोग पैदा कर रही हैं। शहरों की अपनी समस्याएं हैं तो गांवों की अपनी यानि कोई हिस्सा ऐसा नहीं जो समस्यामुक्त हो। राजनीतिक नेतृत्व से हताशा भी चैन नहीं लेने दे रही। बढ़ती मंहगाई और हिंसा जैसी आर्थिक-सामाजिक समस्याओं के कारण भी मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। जानकारों के अनुसार काम में बढ़ती प्रतियोगिता और खुद के लिए वक्त न होना इसकी मुख्य वजह है। घर से निकालने से लेकर दफ्तर पहुंचने , बॉस द्वारा काम का दबाव और अन्य प्रतियोगिताओं में खुद को बनाए रखने की जद्दोजहद लोगोें को हर वक्त तनाव दे रही है। तनाव ने हर वर्ग के व्यक्ति को अपनी चपेट में ले लिया है। छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक को टेंशन है। भागमभाग के बीच लोगों के पास योगा करने तक का वक्त नहीं है। लोगों की सहनशक्ति कम हो गई है। जरा सी बात पर गुस्सा बढ़ते तनाव का संकेत है। समस्या इस तेजी से बढ़ रही है कि भारत में अन्य देशों की तुलना में डिप्रेशन के सबसे ज्यादा मरीज हो गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनिया का पहला देश है जहां सबसे ज्यादा लोग डिप्रेशन के मरीज बन रहे हैं। डिप्रेशन वैसी मानसिक बीमारी है जो आत्महत्या का कारण बनती है। संगठन के अनुसार, भारत में 36 प्रतिशत लोग गंभीर डिप्रेशन अर्थात मेजर डिप्रेसिव एपिसोड के शिकार हैं। विभिन्न अनुमानों के अनुसार, देश में मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या पांच करोड़ तक पहुंच चुकी है। 

सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी दोषी

हाल के विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि नेटवर्किंग साइट्स का बहुत अधिक इस्तेमाल डिप्रेशन, एंजाइटी, मानसिक तनाव, ओसीडी जैसी मानसिक समस्याएं पैदा कर रहा है और कई बार इनकी परिणति खुदकुशी के रूप में भी हो सकती है। इन साइट्स के बढ़ते इस्तेमाल के कारण मानसिक समस्याएं पैदा होने के मामले भारत में भी बढ़ रहे हैं और ये देश में मानसिक रोगियों की संख्या में इजाफा के एक प्रमुख कारण हो सकते हैं। मानसिक आरोग्यशाला, आगरा के चिकित्सक डॉ. मनीष जैन के मुताबिक, उनके पास इलाज के लिए आने वाले ऐसे युवकों एवं बच्चों की तादाद बढ़ रही है जो देर रात तक इंटरनेट सर्फिंग एवं चैटिंग करने के कारण अनिद्रा, स्मरण क्षमता में कमी, चिड़चिड़ापन और डिप्रेशन जैसी समस्याओं से ग्रस्त हो चुके हैं। देर रात तक जागकर इंटरनेट के ज्यादा इस्तेमाल की लत के कारण बच्चों एवं युवा मानसिक बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। यह पाया गया है कि महानगरों एवं बड़े शहरों में बड़ी संख्या में युवा नींद संबंधी समस्याओं के शिकार हैं। क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट संस्कृति सिंह बताती हैं कि फेसबुक पर व्यक्ति जब तक रहता है तो उसका कई लोगों के साथ वर्चुअल रिलेशनशिप बनती है, लेकिन फेसबुक की दुनिया से बाहर आते ही व्यक्ति अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। फेसबुक के कारण वास्तविक संबंध भी प्रभावित होते हैं जिससे वास्तविक जिंदगी में समस्याएं आती हैं। ये समस्याएं व्यक्ति को मानसिक तनाव और अन्य मानसिक बीमारियों से ग्रस्त कर सकती हैं। इस समय दुनियाभर में फेसबुक के 90 करोड़ और ट्विटर के 50 करोड़ से अधिक यूजर्स हैं और इनकी संख्या में हर घंटे तेज वृद्धि हो रही है। बच्चों, किशोर एवं युवा स्मार्टफोन, लैपटॉप एवं डेस्कटॉप के जरिये फेसबुक या अन्य सोशल नेटवर्किंग साइटों पर चैटिंग करने अथवा तस्वीरों एवं संदेशों का आदान-प्रदान करने में अधिक समय बिताते हैं।

जल्द मौत की दस्तक

घबराहट और तनाव जैसी मानसिक बीमारी वाले लोगों की जल्दी मौत हो सकती है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और एडिनबरा यूनिवर्सिटी के एक शोध से उजागर हुआ है कि तनाव और घबराहट जैसी बीमारियां भी 16 प्रतिशत तक मौत का खतरा बढ़ा सकती है। शोधकर्ताओं ने दिल और कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से समय से पहले होने वाली 68,000 मौतों की जांच की। सामने आया कि अगर शराब पीने और धूम्रपान जैसे कारणों को ध्यान में रखा जाए तो घबराहट जैसी बीमारियों से 16 प्रतिशत तक मौत का खतरा बढ़ सकता है। तनाव और घबराहट की बढ़ती समस्या इस खतरे को 67% तक बढ़ा सकती है। गंभीर मानसिक बीमारियों से लोगों में खतरे के प्रमाण पहले से ही मौजूद हैं। हल्के तनाव के मामले भी चिंताजनक हैं। हर चार में से एक व्यक्ति इससे प्रभावित माना जाता है। शोध में 10 साल के आंकड़ों पर नजर डाली गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह अब तक का सबसे बड़ा शोध है जिसमें तनाव और मौत के संबंध को दिखाया गया हो। इसके मुख्य लेखक डॉक्टर टॉम रस्स कहते हैं, यह तथ्य कि कम तनाव में भी मृत्यु दर बढ़ रही है इसके आधार पर यह जानने के लिए भी शोध होना चाहिए कि क्या इन मामूली बीमारियों के इलाज से मौत का खतरा कम हो सकता है। दुख की बात ये है कि यह निष्कर्ष ज्यादा हैरान नहीं करते। उन्होंने कहा, स्वास्थ्य के व्यवसाय से जुड़े लोगों में इस तरह की बीमारियों के बारे में जानकारी का अभाव है जिसका मतलब यह है कि लोग हर रोज बेवजह ही मर रहे हैं। 
 

परिजनों को ध्यान देने की जरूरत

गंभीर डिप्रेशन के मरीज अपनी बीमारी के चरम अवस्था में आत्महत्या जैसा कदम कम उठाते हैं लेकिन जब बीमारी कम हो रही होती है तब उनके आत्महत्या करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में परिवार की भूमिका ज्यादा हो जाती है। इसका कारण यह है कि डिप्रेशन की चरम अवस्था में मरीज का मानसिक बल इतना अधिक नहीं होता कि वह जो सोचता है उसे पूरा कर ले लेकिन जब उसकी बीमारी कम होती है तब उसके अंदर यह मानसिक बल आ जाता है कि जो वह सोचता है उसे क्रियान्वित कर लेता है इसलिये इलाज पूरा होने तक मरीज की निगरानी बहुत आवश्यक है। मनोचिकित्सकों के अनुसार डिप्रेशन की समस्या इतनी आम है कि मनोविज्ञान में इसें कॉमन कोल्डॉफ साइकेट्री कहा जाता है। जिस तरह व्यक्ति को जुकाम हो जाता है, उसी तरह डिप्रेशन हो जाता है।


डिप्रेशन के लक्षण 
-- लगातार नींद न आने की शिकायत 
-- मन में निराशा लगना, उत्साह की कमी 
-- किसी समारोह या अन्य कार्यक्रम में न जाने की इच्छा
-- जरा-सी बात पर गुस्सा आ जाना 

सिजोफ्रेनिया के लक्षण 
पीड़ित दूसरों पर शक करने लगता है 
मारपीट करना, बेहद गुस्सा आना 
कोई बात करे, तो हमेशा लगना मेरी ही बुराई कर रहा है। 
खुद के कान में अजीब सी आवाजें महसूस होना

Tuesday, September 1, 2015

आरक्षण के खिलाफ एक नई बयार

... तो क्या महज 22 साल का हार्दिक पटेल इतना ताकतवर हो गया कि एक राज्य की कानून व्यवस्था को ध्वस्त कर दे, आरक्षण की बरसोंपुरानी उस फाइल को उलट-पुलट कर दे, वोट बैंक खिसक जाने के डर से कोई सियासी दल जिसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि यह लड़का उस बिरादरी का है, जिसमें ज्यादातर बच्चे मां के पेट में आते ही लखपति और करोड़पति बन जाया करते हैं। लाख टके का सवाल यह है कि हवा के खिलाफ दमदारी से खड़े इस युवक के पीछे कोई संगठित ताकत तो नहीं, कहीं किसी स्थापित परंपरा को ढेर करने की कोशिशें तो नहीं चल रहीं या फिर, आरक्षण के विरुद्ध बड़े आंदोलन की नींव तो नहीं पड़ रही? 
हार्दिक वाकई जिस भी मकसद से मैदान में है, कुछ प्रतिशत कामयाब-सा प्रतीत होता है। इस युवक के पीछे लाखों की भीड़ होने के निहितार्थ क्या हैं। राजनीति घुमावदार है, यह वो दरिया है जिसकी सतह पर जब शांति लगती है तभी भीतर कोई धारा अंगड़ाई ले रही होती है। यह हार्दिक पटेल के एपीसोड से सिद्ध हो रहा है। हार्दिक कहते हैं कि पटेलों को आरक्षण दीजिए, और अगर ये संभव नहीं तो आरक्षण व्यवस्था ही समाप्त करिए। मांग की बात न करते हुए यदि नियमों पर जाएं तो पटेल आरक्षण की मांग पहली कसौटी पर ढेर होती नजर आती है। सामाजिक स्थिति का आकलन किए जाते वक्त पटेलों को आर्थिक आधार पर पिछड़ा सिद्ध कर पाना मुश्किल होगा, यह बात हार्दिक भी जानते हैं और उनके पीछे खड़े तमाम लोग भी। हालांकि हार्दिक तर्क रखते हैं कि पटेलों की तस्वीर उतनी अच्छी नहीं जितनी नजर आती है। बकौल पटेल, ख़ुशहाल समझा जाने वाला पटेल समुदाय इन दिनों कई तरह की आर्थिक कठिनाइयों का शिकार है। पटेल समुदाय में किसान हैं, हीरे के व्यापारी हैं और उद्योग से जुड़े लोग हैं। हीरों के व्यापार में मंदी है। किसान मुश्किल में हैं। आत्महत्या के दर्जनों मामले सामने आए हैं और राज्य सरकार पर इल्ज़ाम है कि वो केवल बड़े उद्योगपतियों की मदद करती है। इसके अलावा पटेल समुदाय की युवा पीढ़ी में बेरोज़गारी बढ़ी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सामने जाते ही यह मांग फुस्स हुई तो हार्दिक का दूसरा कार्ड सामने आ जाएगा जिसमें वह आरक्षण खत्म करने की मांग करते नजर आते हैं। यह स्थितियां देश की राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों पर जबर्दस्त प्रहार करेंगी, यह तय है। लेकिन जैसे ही आरक्षण समाप्ति की मांग करती भीड़ सामने आएगी स्थितियां काबू से बाहर हो जाएंगी। आंदोलन के मास्टरमाइंड जानते हैं कि जब तक आरक्षण के मुद्दे की संवेदनशीलता को खत्म नहीं किया गया, इसकी समाप्ति की मांग का समर्थन कर पाना तक राजनीतिक और सामाजिक समूहों के लिए संभव नहीं हो सकता। हार्दिक जाट और गुर्जर जैसे अन्य समूहों से भी मिले हैं जो आरक्षण के लिए आसमान सिर पर उठाए हुए हैं, इसका सीधा-सा मतलब यह है कि वह अपने आंदोलन का आधार बढ़ाने के लिए जुगत भिड़ा रहे हैं। अगर मान भी लिया जाए कि यह दोनों बिरादरियां आरक्षण की मांग पर टस से मस नहीं होतीं तो भी यह तब तक भीड़ बढ़ाती रहेंगी जब तक कि पिछड़ा वर्ग आयोग या किसी और संवैधानिक या न्यायिक मंच पर पटेल आरक्षण की मांग नकार न दी जाए। देश का ढीला-ढाला तंत्र इस मांग पर फैसला करने में ही कई साल बिता देगा। यह अवधि आरक्षण के विरुद्ध अन्य जातियों और समूहों को लामबंद करने में उपयोगी साबित हो जाएगी। हार्दिक हों या गैर आरक्षित जाति का कोई और नेता, सब जानते हैं कि युवाओं में आरक्षण से बड़ा कोई दूसरा मुद्दा नहीं। सवर्ण जातियों का हर युवा सरकारी नौकरी चाहता है और आरक्षण उसका यह सपना पूरा नहीं होने देता। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पीएम कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध आंदोलन को याद कीजिए, तब तमाम शिक्षा परिसर जल उठे थे। युवाओं ने आत्मदाह तक किया था, राष्ट्रीय सम्पत्ति तहस-नहस कर दी गई थी। हालांकि वह आंदोलन किसी राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में पैदा और विस्तारित हुआ था। सीधा-सा फलसफा है, हार्दिक या कोई अन्य नेतृत्व तैयार होता है तो भावी आंदोलन (जैसा कि मास्टरमाइंस सोच रहे हैं) ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।
प्रश्न उठता है कि हार्दिक पटेल के पीछे है कौन। जब वह छह लाख की भीड़ के साथ सामने आए तो इस सवाल का जवाब ढूंढने में लोगों ने हर संभावना तलाश डाली। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी फोटो सामने आई, फिर शिवसेना के साथ रिश्तों की चर्चाएं शुरू हुईं। केजरीवाल के पीछे होने की बात तो आसानी से किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि वह तो अपने सर्वाधिक प्रभाव के राज्य दिल्ली में ही खुद को सफल सिद्ध नहीं कर पा रहे और शिवसेना का गुजरात में इतना प्रभाव है नहीं। कांग्रेस जिस तरह से टुकड़ों में बंटी है, तो यह भी नहीं माना जा सकता था कि वह हार्दिक की रीढ़ हो सकती है। गुजरात में भाजपा के एकछत्र राज्य में यह भी संभव नहीं था कि यह सभी दल मिलकर इतनी भीड़ का एक नेतृत्वकर्ता पैदा कर लें। तो फिर... राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या खुद भाजपा? भाजपा का पटेलों में खासा जनाधार है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल जैसे उसके पास खासे रसूखदार पटेल नेता हैं तो फिर क्यों अपने वोट बैंक को छेड़ने लगी? हार्दिक पटेल का ये तर्क कि पटेलों को आरक्षण दो या अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण वापस लो. उनकी यह मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरक्षण से संबंधित विचारों से मेल खाती है।
मोदी और संघ परिवार जाति के बजाय आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का मानदंड बनाने के पक्षधर हैं। आम धारणा ये भी है कि राज्य सरकार ने 25 अगस्त की रैली का पर्दे के पीछे से पूरा साथ दिया। इसकी इजाज़त दी गई जबकि ये ज़ाहिर हो गया था कि हिंसा भड़क सकती है। रैली के लिए सरकारी मैदान का किराया नहीं लिया गया। इसमें अहमदाबाद के बाहर से आने वाले लोगों को नहीं रोका गया बल्कि संकेत ये मिले कि राज्य सरकार रैली को रोकने की बजाय रैली कराने में मदद कर रही है। लेकिन फिर अचानक शाम आठ बजे हिंसा उस समय भड़क उठी जब पुलिस ने हार्दिक पटेल को हिरासत में ले लिया। हिंसा शुरू होने के एक घंटे बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद वह इधर-उधर मनमाफिक घूमने लगे, यहां तक कि योजनाबद्ध तरीके से दिल्ली भी पहुंच गए। सवाल यह भी है कि बिना किसी संगठन के इतनी बड़ी रैली का आयोजन कैसे कर लिया गया। इसी बिंदु पर आंदोलन को संघ की शह सामने आती है। बहरहाल, आंदोलन ने जैसे संकेत दिए हैं तो आरक्षण व्यवस्था के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी तय मानिए कि यह आंदोलन आने वाले समय में तमाम मोड़ लेगा, और कामयाब हुआ तो जाति आधारित राजनीति करने वाले तमाम दलों के लिए मुश्किल हो सकती है।

Saturday, February 21, 2015

चीन से रिश्ते की तल्खी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा से चीन बौखलाया हुआ है। मोदी ने चीन-भारत सीमा के पूर्वी हिस्से में एक कथित विवादित क्षेत्र की यात्रा की थी। वह अरुणाचल की स्थापना से जुड़े आयोजनों में शामिल भी हुए। चीन कहता है कि भारत ने 1987 में गैरकानूनी और एकपक्षीय तरीके से घोषणा की थी। अरुणाचल भारत की दुखती रग है, चीन ने वहां उसकी हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा रखी है।
सीमा पर 1962 के बाद भारत ने किसी तरह का निर्माण न करके चीन को खुश रखने की कोशिश की, पर अब भारत अपनी अंतिम चौकी तक संपर्क रखने के लिए तंत्र विकसित किया जा रहा है। निष्क्रिय हवाई पट्टियों को भी दुरुस्त किया जा रहा है। चीनी सरकार ने सीमा तक अपनी पहुंच बनाने के लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने पर जोर दिया है, भारत इस मोर्चे पर निष्क्रिय ही था हालांकि मोदी सरकार बनने पर उसके काम में तेजी आई है। सीमा सड़क संगठन के मुताबिक, वह 2015 के अंत तक चीन सीमा के आसपास कुल 4200 किमी लम्बी 68 सड़कें तैयार कर लेगा। दरअसल, दोनों देशों के साथ दिक्कत यह है कि वे लम्बे समय बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं कर पाए हैं, कोई काल्पनिक विभाजन रेखा तक नहीं है। नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद दोनों देशों के रिश्तों में गर्मजोशी आई थी, चीनी राष्ट्रपति ने भारत यात्रा की और मोदी वहां जाने के लिए तैयार हैं। दोनों देशों की विदेश नीति में जो नए मोड़ आए हैं, उसके तहत भारत ने जहां दक्षिण एशिया के देशों से सम्बन्धों में कटुता दूर दी, वहीं चीन ने फिलीपींस-रूस जैसे देशों से अपनी जमीनी विवाद सुलझा लिये। भारत और चीन के बीच 1981 से 1987 तक आठ दौर की वार्ताएं हुर्इं। 1988 से 2002 तक सीमा विशेषज्ञों के बीच बातचीत हुई और 2003 में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के मध्य। तब से लेकर अब तक दोनों सलाहकार 15 बार मिल चुके हैं, पर सीमा विवाद जस का तस है। चीन को पता है कि अब स्थितियां 1962 जैसी नहीं रह गई हैं और भारत भी सामरिक दृष्टि से मजबूत है। बंजर जमीन हड़पने के लिए वह जंग नहीं लड़ना चाहता बल्कि उसकी इच्छा इस अपना प्रभुत्व दिखाने की है। वह जानता है कि भारत के साथ उसका व्यापार इस साल 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा और वह इतना बेवकूफ नहीं है कि लड़ाई करके अपने व्यापारिक हितों पर कुठाराघात करे। वहां की सरकार भारत को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, इसलिए वह एशिया के देशों के बीच में भारत की छवि को धूमिल करने में लगी है। पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने के लिए चीन हमेशा से जी-जान से जुटा रहता है, पाकिस्तान को परमाणु तकनीक और मिसाइलें देता है ताकि पाकिस्तान भी भारत को आंखें दिखाता रहे। इसके साथ ही, चीन ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह भी बना लिया है।
इसी तरह नेपाल में भी उसका जबर्दस्त दखल है जहां वह माओवादियों का समर्थन करता है। भारत से नेपाल के बरसों पुराने सांस्कृतिक रिश्ते भी काम नहीं आ रहे। म्यांमार सरकार भी चीन के दबाव में भारत को गैस देने से मुकर रही है। बांग्लादेश भी चीनी असर के चलते ही अपनी सीमा से तेल पाइपलाइन नहीं आने देना चाहता। श्रीलंका को पक्ष में करने के लिए चीन ने उस लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में मदद की, जो भारत का समर्थक माना जाता था। साथ ही बंदरगाह बनाए और आधुनिक हथियार एवं तकनीक दीं। लड़ाई के बेहाल अफगानिस्तान को भारत ने आर्थिक मदद की तो चीन भी पीछे नहीं रहा। मदद करने के नाम पर उसने वहां ताम्बे की खदानें खरीद लीं। भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का वह धुरविरोधी है, वहीं परमाणु आपूर्ति क्लब में भी हमारे खिलाफ आग उगलता रहता है। जब से उसे पता है कि भारत अमेरिका के नजदीक हो रहा है, तो वह कूटनीतिक चालें चलकर परेशान कर रहा है। उसे जापान से भारत की निकटता रास नहीं आ पा रही। जापान से उसकी तनातनी चलती रहती है, दोनों देश एक-दूसरे पर प्रभुत्व दिखाने का प्रयास करते रहते हैं। परमाणु हमले के बाद जापान चीन को चुनौती देने में सक्षम नहीं था, पर अब वह पूरी तरह से चीन की नीतियों को समझ चुका है और जानता है कि चीन जापान को कभी आगे बढ़ने नहीं देगा। बहरहाल, चीन इस वक्त भारत से दोस्ती की बात कर रहा है। जबर्दस्त प्रयास हो रहे हैं। लेकिन भारत को उसकी कूटनीतियों के मद्देनजर मालदीव, भूटान, रूस और जापान के साथ अपने सम्बन्धों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये। भारत की 15,106.70 किमी लम्बी जमीनी सीमा है, जो 17 राज्यों से गुजरती है। 7516.60 किमी की तटरेखा राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को छूती है। भारत के 1197 आईलैंड्स की 2094 किमी अतिरिक्त तटरेखा है। बेशक, इन सीमाओं की सुरक्षा देश के लिए बड़ी चुनौती है। सरकार को कुछ ठोस इंतजाम करने चाहिए, ताकि देशवासियों को लगे कि वे पूरी तरह महफूज हैं। चीन पर उसे आंख बंद करके विश्वास करने से बचना होगा। मोदी ने जिस तरह वार्ता के साथ अपनी ढांचागत सुविधाएं मजबूत करने के प्रयास किए हैं, उन्हें जारी रखना भारत के हित में है। भारत को कोई गलती न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर सकती है बल्कि सुरक्षा को चुनौती भी सिद्ध हो सकती है।

Friday, February 13, 2015

एक नायिका का पतन...

जिन गुजरात दंगों पर अक्सर राजनीतिक हो हल्ले हुआ करते थे, उसमें समीकरण बदले हुए हैं। जिन नरेंद्र मोदी पर प्रहार होते थे, वो आज देश के पीएम हैं। फर्जी ढंग से मुठभेड़ों के कथित संरक्षणदाता अमित शाह सत्ता पर आसीन भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पीड़ितों के सबसे बड़ी हिमायतियों में एक तीस्ता सीतलवाड़ कठघरे में हैं, कानून के शिकंजे में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आरोप इतने संगीन हैं, उन्होंने विश्वासघात किया और पीड़ितों के लिए लगे धन के ढेर से अपना ही घर भर लिया।
देशभर में चर्चित गुजरात की ढेरों घटनाओं  में तीस्ता नायिका बनकर सामने आर्इं। पीड़ितों को भरोसा था कि तीस्ता उन्हें इंसाफ दिलाएंगी। कमजोर और परेशान लोगों की उम्मीदें उनसे जुड़ीं थीं। तीस्ता ने मोदी के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ा था, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वे मोदी के खिलाफ छोटी से लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत तक गर्इं। अगर आज भी मोदी पर छोटे-बड़े आरोप लगते हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं तीस्ता की भूमिका जरूर होती है। लेकिन यह नायिका अब खलनायिका बन चुकी है। विशेष जांच दल (एसआईटी) की रपट आई तो जैसे हंगामा बरप गया। उजागर हुआ कि गुजरात दंगों में तीस्ता ने जिन लोगों के शपथपत्र प्रस्तुत किए हैं, उन्होंने खुद कहा है कि सीतलवाड़ के कहने पर शपथपत्र दिया गया है, उन्हें शपथपत्र में दी गई सूचना की जानकारी भी नहीं है। तीस्ता का दावा था कि गुलबर्ग सोसाइटी में तत्कालीन पुलिस आयुक्त पीसी पाण्डे दंगाइयों का नेतृत्व कर रहे थे, जबकि ऐसे साक्ष्य मिले कि पाण्डे घायलों को अस्पताल पहुंचाने और दंगाइयों को खदेड़ने में लगे थे। झूठी कहानियां यहीं खत्म नहीं होतीं। सुप्रीम कोर्ट में उनके स्तर से दाखिल शपथपत्र में कहा गया था कि गर्भवती कौसर बानो का सामूहिक बलात्कार हुआ और उसका बच्चा पेट फाड़ कर निकाला गया पर एसआईटी ने दोनों ही बातें झूठी पार्इं। जरीना मंसूरी नामक महिला को नरोडा पाटिया में जिंदा जलाकर मारने सम्बन्धी शपथपत्र के बारे में जांच में पाया गया कि जरीना की मौत टीबी से हुई थी। सीतलवाड़ के मुख्य गवाह रईस खान ने कहा कि गवाही देने के लिए उसे डराया-धमकाया गया। तीस्ता के दाखिल किए सारे शपथपत्र एक ही कम्प्यूटर से निकाले गए और उनमें केवल नाम बदला गया। अब मामला और गहरा रहा है। गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच उनके दरवाजे तक पहुंच चुकी है। फिलहाल जो आरोप उन पर हैं, उनके बारे में यह कह देना कि यह बदले की भावना से है, कतई सच बात नहीं। क्राइम ब्रांच की रिपोर्ट में कही गर्इं बातें चौंकाने वाली हैं।
रिपोर्ट कहती है कि तीस्ता ने दंगा पीड़ितों के पुनर्वास-सहायता और म्यूजियम आॅफ रेजिस्टेंस बनाने के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा लिया लेकिन चंदे का बड़ा हिस्सा खुद डकार गर्इं। तीस्ता की संस्थाओं सबरंग ट्रस्ट और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस को देश- विदेश से करीब पौने दस करोड़ रुपये चंदा मिला था जिसे दो भारतीय बैंकों के पांच खातों में जमा किया गया। रिपोर्ट कहती है कि तीस्ता और उनके पति जावेद आनंद ने इन रुपयों में से 3.85 करोड़ अपने नाम कर लिये। सबरंग ट्रस्ट के दो खातों में करीब सवा तीन करोड़ रुपये थे जिनके बारे में तीस्ता-जावेद आनंद ने किसी कोर्ट तक को नहीं बताया। इसी धन से वो इस्लामाबाद, लंदन और अबूधाबी के होटलों में रुकीं, वहां शॉपिंग की। दंपति ने इटली, कुवैत, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, सऊदी अरब, पाकिस्तान में इसी पैसे से खूब खरीददारी की। क्रेडिट कार्ड से खर्च हुआ था इसलिये आसानी से पकड़ में आ गया। जावेद ने जिनेवा से जूते खरीदे तो भी चंदे के पैसे ही खर्च हुए। हैरतअंगेज यह भी है कि इसी पैसे से दंपति ने वेतन लिया और बच्चों के नाम फिक्स डिपाजिट भी कराया। तीस्ता कहती हैं कि उन्होंने पैसे लौटा दिए हैं लेकिन कानून की नजर में इससे अपराध की संगीनता कम नहीं होती। तीस्ता को लेकर विवादों का क्रम यहीं खत्म नहीं होता। समस्या उनके सर्वाधिक खास लोगों में शुमार लोगों में से एक रईस खान पठान ने भी पैदा की है। उन्होंने स्वीकार किया है कि तीस्ता दंगों के फोटोग्राफ को मनमाफिक परिवर्तन करती थीं। बकौल पठान, 2002 में मैं अपने पत्रकार मित्रों से दंगों की तस्वीर लाकर उन्हें देता था। जिन दंगों में कांग्रेस के लोग शामिल थे, उन तस्वीरों में फोटो मार्क करके नाम के साथ कांग्रेसियों की तस्वीरें मैंने उन्हें दी थीं। लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। उनका प्रयास रहता था कि मात्र भाजपा और उसके लोगों पर ही निशाना सधे, कांग्रेस के प्रति उनके दिल में सॉफ्टकॉर्नर था। यह फोटोग्राफ उन्होंने गायब कर दिए, मैंने सवाल उठाने शुरू किए तो मुझे एनजीओ से निकाल दिया। मेरे पीछे गुंडे लगा दिए, धमकी दी गई कि गुजरात छोड़ जाओ। परिवार के साथ जान से मारने की धमकी आई। मैं गुजरात छोड़कर नहीं जा सकता था, क्योंकि मैंने यहां पीड़ितों की सेवा की है। मैं उनके सुख-दुख का साथी रहा हूं। आप किसी भी पी़ड़ित के पास जाकर पूछिए, उन्हें पहले कौन मिला? तीस्ता या रईस खान, जवाब मिल जाएगा। बहरहाल, तीस्ता के बेनकाब होने के पीछे अगर मोदी या उनके किसी विश्वस्त की भूमिका का शक जताया जा रहा हो, तो उसकी संभावनाएं हो सकती हैं लेकिन सबूत कह रहे हैं कि तीस्ता ने गुजरात दंगों में जो कुछ भी किया-कहा, सब सही और सच नहीं था। जरूरी यह भी है कि जांच और कार्रवाई की प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता रहे क्योंकि नरेंद्र मोदी अब एक राज्य के मुख्यमंत्री नहीं, प्रधानमंत्री हैं और अमित शाह भाजपा जैसी फिलहाल सर्वाधिक शक्तिशाली पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष।

Tuesday, February 10, 2015

भाजपाई उम्मीदों के साथ मोदी की भी हार

महज एक साल के अंतराल में अगर अरविंद केजरीवाल धमाकेदार जीत हासिल करने में कामयाब रहे हैं तो बेशक, उनकी मेहनत का असर है लेकिन भूमिका भारतीय जनता पार्टी की भी कम नहीं है। उसने अगर रणनीति में खामियां नहीं छोड़ी होतीं तो केजरीवाल प्रचंड बहुमत तक नहीं पहुंचते। राष्ट्रीय राजधानी के इस चुनाव के अगर नतीजे ऐतिहासिक हैं तो इसका श्रेय केजरीवाल की स्वच्छ और बदलाव लाने के लिए व्यग्र व्यक्ति की छवि को भी जाना चाहिये। बहाने लाख तलाशे जाएं, बलि का कोई भी बकरा ढूंढ लिया जाए पर हार की जिम्मेदारी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बच नहीं पाएंगे, यह तय है।
वर्ष 2013 में  जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी को 31, आम आदमी पार्टी को 28, कांग्रेस को आठ और अन्य को दो सीटें मिली थीं, इस दफा यह संख्या बढ़कर 67 के लगभग उच्चतम अंक तक पहुंच गई। तब पहले नंबर पर आई भाजपा को इस दफा महज तीन सीटें मिली हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए चुनावों में जो विजय रथ रफ्तार के चला था, आज औंधे मुंह पड़ा है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो भाजपा के स्तर से तमाम खामियां छोड़ी गर्इं। भाजपा अगर, जम्मू कश्मीर के चुनावों के साथ ही दिल्ली में चुनाव कराने का फैसला कर लेती तो नतीजे दूसरे हो सकते थे। यह देरी उस पर भारी पड़ी। आम आदमी पार्टी की तरफ से केजरीवाल घोषित सीएम उम्मीदवार थे, भाजपा ने यह फैसला करने में ही काफी वक्त ले लिया कि वह किसके चेहरे को सामने रखकर मैदान में उतरने जा रही है। फिर उन किरण बेदी को सामने लाया गया जो कभी मोदी के विरुद्ध टिप्पणी कर चुकी थीं, तमाम विवादों की जड़ में थीं, अन्ना आंदोलन की उपज होने के   बावजूद जिनकी राजनीतिक समझ को हमेशा शक की नजरों से देखा गया। साथ ही, वह तानाशाह प्रवृत्ति की नजर आर्इं जिनके विरुद्ध पार्टी कैडर यह सोचते ही अप्रत्यक्ष रूप से खड़ा हो गया कि सत्ता मिल गई तो वह उसे भी नहीं बख्शेंगी। इससे पहले कार्यकर्ताओं में आक्रोश पैदा हो ही चुका था। यहां तक कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय भी मन से नहीं जुट पाए। उनके समर्थकोें ने तो कई दिन तक हंगामा भी किया। दरअसल, बीजेपी चीफ अमित शाह की यह प्लानिंग थी जिसमें उम्मीदवार के कद के नेताओं के पर कतर दिए जाते हैं। उपाध्याय के भाई को बिजली मीटर सप्लाई घोटाले में लिप्त बताकर चुप करा दिया गया।
वरिष्ठ नेता विजय गोयल और डॉ. हर्षवर्धन के समर्थक भी असंतुष्ट हो गए। उधर, बेदी के साथ ही शाजिया इल्मी, कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी का प्रवेश भी आम कार्यकर्ता हजम नहीं कर पाया। इसी वजह से पार्टी ने बाद में मंत्रियों और सांसदों की भारी-भरकम फौज को प्रचार के लिए उतार दिया। ऐसी भी हालात आए जब सभा प्रबंधन के लिए कार्यकर्ता मौजूद नहीं थे और अचानक मंत्री सभा करने पहुंच गए। पूरे घटनाक्रम से ऐसी स्थिति पैदा हुई कि भाजपा को लेकर नकारात्मकता बढ़ने लगी। हालांकि कांग्रेस की निष्क्रियता भी इस हार की एक प्रमुख वजह है। जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने लापरवाह रवैया अख्तियार किया, उससे यह साफ लगने लगा था कि पार्टी ने मैदान केजरीवाल के लिए खाली छोड़ दिया है। उसके वोट बैंक पर आम आदमी पार्टी का कब्जा हुआ और ये भी बीजेपी के हार का कारण बन गया। केंद्र के फैसलों का फायदा जमीन पर नहीं दिखने से भी भाजपा को क्षति हुई है। दूसरी तरफ, केजरीवाल नकारात्मक प्रचार से बचे रहे और भ्रष्टाचार पर लगाम को मुख्य मुद्दा बनाया। आम आदमी पार्टी ने सभी वर्गों तक पहुंचने की पूरी कोशिश की और कामयाब भी रही। फर्जी कम्पनियों से फंडिंग के आरोपों का बेहतर जवाब देना भी आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कई चीजें पहली बार हुर्इं। सभी दलों ने जमकर प्रयोग किए और एक से बढ़कर एक अस्त्र चलाए। लेकिन बीजेपी ने जो किया, उससे उसे अच्छे ढंग से जानने वाले भी हतप्रभ रह गए, कार्यकर्ताओं की ताकत से पहचानी जाने वाली इस पार्टी को इसी करतब का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है।

जनतंत्र में जन का दम

आखिरकार, दिल्ली ने दिलदारी दिखा दी। जिन अरविंद केजरीवाल को पहले बहुमत न होने पर  निराशा का सामना करना पड़ा था। कुछ न कर पाने के असमंजस में भगोड़ा जैसे अपमानजनक शब्दों से रूबरू होना पड़ा था, उन केजरीवाल को इस बार दिल्लीवालों ने सिर पर बैठा लिया। जीत का ऐसा तूफान मचा दिया कि नरेंद्र मोदी की लहर गुम-सी हो गई। सवाल यह है कि इतनी जबर्दस्त जीत हुई कैसे, अटकलबाजियां कैसे हवा हो गर्इं? पढ़े-लिखे लोगों की दिल्ली में मीडिया की बनाई मोदी वेब भी नहीं चली और जनतंत्र में जन का दम एक बार फिर सिद्ध हो गया।
केजरीवाल की प्रचंड जीत की वजह क्या हैं?  प्रथम दृष्टया भारतीय जनता पार्टी की नादानियों की इसमें भूमिका है। अपने नेता-कार्यकर्ताओं को किनारे कर किरण बेदी को सीएम प्रोजेक्ट करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही। इससे कार्यकर्ता घर बैठ गए और नेताओं ने सियासत के इस खेल में अपनी ही पार्टी को मात देने की जुगत भिड़ाना शुरू कर दी। जगदीश मुखी जैसे नेताओं की हार सिद्ध करती है कि जनता भाजपा से अति की रुष्ट थी जिसकी वजह लोकसभा चुनावों में किए गए वादों का पूरा न होना भी है। तीन संभावनाएं और भी हैं, पहली ये कि राष्ट्रीय नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता और व्यापक प्रचार अभियान के बावजूद उसकी पार्टी की रणनीति गड़बड़ा गई। उसने दिल्ली चुनाव घोषित कराने में गैरजरूरी देरी की और रहस्यमयी तरीके से डॉक्टर हर्षवर्धन की उम्मीदवारी को दरकिनार कर दिया। उनसे पार्टी को फायदा हो सकता था। मदनलाल खुराना और सुषमा स्वराज के बाद हर्षवर्धन ही दिल्ली में भाजपा का चेहरा माने जाते हैं।  एक तथ्य यह भी है कि विधानसभा चुनावों की घोषणा से कहीं पहले ही केजरीवाल ने अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। विवादास्पद किरण बेदी को स्थानीय नेतृत्व के सिर पर थोपे जाने के फैसले ने मोदी कार्ड को बेअसर कर दिया तो उसमें भी हर्षवर्धन को किनारे किए जाने की भूमिका है। यहां तक कि भाजपा ने 'आप' के असंतुष्टों को अपनी ओर खींचकर सरकार बनाने की कोशिशों के पीछे अपना कीमती समय बर्बाद किया। पार्टी यह सिद्ध करने में नाकाम रही कि दिल्ली में सत्ता मिलती है तो केंद्र में भी सरकार होने से लाभ का प्रतिशत कई गुना हो सकता है, वह यह समझा पाती तो मतदाताओं को राष्ट्रीय राजधानी के आर्थिक हितों का भी ध्यान आता। दूसरी संभावना इस गलती से उपजती है कि लोकसभा चुनाव में अपने ही गढ़ में एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही आम आदमी पार्टी को चुका हुआ मान लिया गया। केजरीवाल को मफलर के प्रयोग पर आड़े हाथों लिया गया, यह मतदाताओं को नागवार गुजरा। आश्चर्य हुआ कि कैसे एक नेता की सरल वेशभूषा पर हो-हल्ला हो रहा है। आम आदमी पार्टी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के दौरान मोदी के दस लाख रुपये कीमत के सूट पहनने से इस मुद्दे को काउंटर किया। लोगों ने उसकी बात को ध्यान से सुना। भाजपा ने पूरे अभियान के दौरान केजरीवाल को भगोड़ा कहकर कम आंकने की कोशिश की लेकिन इस मुद्दे को भी केजरीवाल ने माफी मांग कर हल्का कर दिया। उन्होंने पलायन की वजह समझार्इं और इस गलती का इस्तेमाल भी पार्टी के फायदे के लिए कर लिया।
केजरीवाल ने कहा, हमने कोई भी फैसला करने से पहले दिल्ली के लोगों से सलाह ली थी लेकिन हमारी गलती ये थी कि इस्तीफा देने से पहले हमें आपसे पूछना चाहिए था। 'पांच साल केजरीवाल' के नारे को लेकर चला केजरीवाल की पार्टी का चुनाव अभियान इसलिये भी कामयाबी के मुकाम तक पहुंचा क्योंकि मतदाताओं को वह समझाने में सफल रही कि अल्पकाल की सरकार से अरविंद की योग्यताओं का आकलन दरअसल, उनका अपमान है। आम आदमी पार्टी की जीत का तीसरा प्रमुख कारण कांग्रेस पार्टी का बेमन से किया गया चुनाव प्रचार भी है। पार्टी के उपाध्यक्ष और स्टार प्रचारक राहुल गांधी का आखिरी क्षणों में चुनाव प्रचार के लिए उतरना वोटरों को ये समझाने में नाकाम रहा कि पार्टी रेस में बनी हुई है। शीला दीक्षित सरकार की नाकामियों पर उन्होंने अप्रत्याशित रूप से न माफी मांगी, और न ही सरकार बन जाने की सूरत में अपनी पार्टी की प्राथमिकताएं बताने की जहमत उठाई। स्पष्ट-सा संकेत गया कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस वॉकओवर के मूड में है। इससे उसका पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ सरक गया। कांग्रेस का पतन और मोदी लहर में ठहराव से कहीं ज्यादा, दिल्ली चुनावों की अहमियत आम आदमी पार्टी के दोबारा उभार से है। प्रश्न यह भी है कि मामूली संसाधन, आंतरिक विभाजन और मीडिया के बड़े तबके की बेरुखी के बावजूद पार्टी आखिर ये कैसे कर पाई? 'आप' हकीकत समझ गई थी। मीडिया ने एकतरफा खबरें और सर्वेक्षण देना शुरू किया तो उसने काउंटर करना शुरू कर दिया। लोगों को समझाया कि मीडिया बिका हुआ है और वह वही दिखाएगा जो मोदी चाहेंगे। टीवी चैनलों पर एक-तरह की ही खबरों ने लोगों को मजबूर किया कि वह आम आदमी पार्टी की बात पर भरोसा करें। बहरहाल, इन चुनाव नतीजों ने इस बुनियादी विचार को मजबूत किया कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता उस पार्टी को ही अहमियत देती है जो उसकी बात करे। उसे तत्काल  नतीजे चाहिये, वादों को कसौटी पर तौलने में वह किसी तरह की देरी नहीं करती। केजरीवाल को भी यह समझना होगा कि वादों में देरी से जनता उनसे भी रुष्ट हो सकती है, और इस स्थिति में स्वभाव की वजह से वह खुद भी परेशान हो सकते हैं। पानी-बिजली के मोर्चे पर उन्हें चुनौतियों का सामना करना है, वहीं दिल्ली के कामकाजी लोगों को आकर्षित करने के लिए घर, शिक्षा, वाई-फाई और यहां तक कि नौकरियों का वादा पूरा करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती है। भाजपा के लिए यह चुनाव सबक हैं कि वह पुराने कार्यकर्ताओं को किनारे बैठाकर कोई जंग नहीं जीत सकती। दलबदलुओं के दम पर लड़ने में मिली हार का यह सबक उसे जितने ज्यादा दिन याद रहे, उतना ही अच्छा।