सावधान! भारत में मानसिक रोग अपना साम्राज्य बनाने लगे हैं। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा, तनाव, झुंझलाहट जैसे भाव आपके स्वभाव का हिस्सा बन रहे हैं तो सतर्क रहिए। महंगाई जैसी समस्याएं भी रोग को विकराल बनाने में योगदान कर रही हैं। हाल इतने खराब हैं कि देश में हर सातवां व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है। एक साल की ही अवधि में रोगियों की संख्या में करीब 20 लाख की वृद्धि हुई है। भयावह होते संकट पर प्रकाश डालती रिपोर्ट:-
डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया
मानसिक रोगों में सबसे ज्यादा रोगी डिप्रेशन के होते हैं। सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी भी बढ़ रही है हालांकि उसकी रफ्तार कम है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, दिमाग में पाए जाने वाला सीरोमिन केमिकल कम हो जाने पर डिप्रेशन की बीमारी होती है। अक्सर लोग कहते हैं कि उन्हें टेंशन हो रही है और इसी स्थिति को डिप्रेशन कहने लगते हैं, यह गलत है। डिप्रेशन एक बीमारी है जो किसी को भी हो सकती है। डिप्रेशन की बीमारी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं दो से तीन गुना ज्यादा होने की संभावना होती है। हर पांच में से एक महिला डिप्रेशन की शिकार है। सिजोफ्रनिया एक तरह से पागलपन की बीमारी है जिसमें व्यक्ति दूसरों पर शक करने लगता है और अजीब हरकतें करता है। यह गंभीर स्थिति होती है। डिप्रेशन के मुकाबले इसके मरीज कम हैं। अकेले मुंबई की ही बात करें तो वहां मुंबई नगर निगम की स्वास्थ्य समिति ने इस साल डिप्रेशन की दो प्रमुख दवाइयों की तीस लाख गोलियां खरीदने का फैसला लिया है। पिछले साल यह संख्या साढ़े चार लाख थी और उससे भी पिछले साल एक लाख 50 हजार थी यानि साल-दर-साल डिप्रेशन की गोलियों की खरीद में बढ़ोत्तरी हुई है। खरीदी जा रही दवाइयों में से एक डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया बीमारी में काम आती है। इतनी बड़ी तादात में खरीदी जा रहीं गोलियां एक बड़ा सवाल खड़ा करती हैं कि क्या मुंबई धीरे-धीरे मानसिक तनाव से घिरती जा रही है? क्या बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि उससे निपटने के दवाइयों की इतनी बढ़ी खेप की जरूरत पड़ रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी एक समिति का आंकलन है कि देश के मानसिक अस्पतालों में रोजाना डिप्रेशन के 50 या इससे ज्यादा मरीज आते हैं। दो गोली सुबह, दो शाम के हिसाब से एक मरीज को 15 दिन की दवाएं दी जाएं तो 50 मरीज के हिसाब से 15 दिन की खुराक 3000 गोलियां होती हैं। महीने के हिसाब से 75000 गोलियां इस्तेमाल होती हैं। ये एक अस्पताल के एक दिन के मरीजों की एक महीने की खुराक है। सभी अस्पतालों के मरीजों की बात करें, तो यह संख्या बहुत ज्यादा होगी। अन्य बीमारी की अपेक्षा इन बीमारी का इलाज लंबा चलता है। डिप्रेशन मानसिक लक्षण के अलावा शारीरिक लक्षण भी प्रकट करता है जिनमें छाती में दर्द, दिल की धड़कन में तेजी, कमजोरी और सिरदर्द शमिल हैं। इसके अलावा डिप्रेशन के मरीजों का किसी काम में मन नहीं लगता, किसी काम या किसी चीज में दिलचस्पी नहीं होती, आॅॅफिस या घर से बाहर जाने की इच्छा नहीं होती, आत्मविश्वास कम हो जाता है, स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है, उदासी अधिक सताती है और भूख कम लगती है या समाप्त हो जाती है। डिप्रेशन के ज्यादातर मरीजों को नींद बहुत कम आती है लेकिन कुछ मरीजों को नींद अधिक सताती है। आम तौर पर इन लक्षणों वाले मरीज सामान्य ओपीडी में जाते हैं जहां तमाम तरह के परीक्षणों के सामान्य आने पर चिकित्सक मरीज को सामान्य बता देते हैं क्योंकि उनके एक्स-रे, ईसीजी एवं अन्य परीक्षणों के निष्कर्ष सामान्य होते हैं लेकिन ऐसे मरीज डिप्रेशन से पीड़ित हो सकते हैं।
आम हुआ डिप्रेशन, उदासी नहीं है ये
मनोचिकित्सक डॉ. केसी गुरुनानी कहते हैं कि हमारे देश में आज डिप्रेशन इतना आम हो गया है कि लोग इसे बीमारी के तौर पर नहीं लेते। ज्यादातर लोग डिप्रेशन को सामान्य उदासी की तरह ही देखते हैं और ऐसे में लोग डिप्रेशन के बारे में विशेषज्ञों से राय लेने से कतराते हैं जिसका नतीजा काफी घातक हो जाता है और इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में भी हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार डिप्रेशन के 15 प्रतिशत रोगी आत्महत्या कर लेते हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि आज केवल वयस्क ही नहीं बल्कि बच्चे भी डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं और स्कूल जाने वाले बच्चों में डिप्रेशन का मामला लगातार बढ़ता जा रहा है और यही वजह है कि बच्चों में आत्महत्या की घटना पहले से बढ़ी हैं। इंस्टीट्यूट आॅफ मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंसेस के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. समीर कलानी कहते हैं कि आज के आधुनिक जीवन की जटिलताओं एवं सामाजिक,आर्थिक समस्याओं के कारण डिप्रेशन एवं आत्महत्या की घटनाओं में भयानक तेजी आयी है। आज जरूरत इस बात की है कि सामाजिक स्तर पर किसी मानसिक समस्या को देखने के तौर-तरीके एवं दृष्टिकोण में बदलाव लाया जाए।
समूची दुनिया की समस्या
आज के समय में खास तौर पर महानगरों में जीवन में ज्यादा से ज्यादा जटिलताएं, समस्याएं एवं व्यस्तता आने तथा रोजमर्रा के जीवन के अधिक तनावपूर्ण होने के कारण डिप्रेशन का प्रकोप बढ़ रहा है। पहले जीवन सरल था और इतनी अधिक व्यस्तता एवं समस्याएं नहीं थी तब डिप्रेशन का प्रकोप भी कम था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 18 देशों में करीब 90 हजार लोगों पर किए सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में सबसे ज्यादा 36 फीसदी लोग मेजर डिप्रेसिव एपिसोड का शिकार हैं। दूसरे नंबर पर है फ्रांस है जहां 32.3 फीसदी लोग इसके शिकार है। तीसरे नंबर पर है अमेरिका है जहां 30.9 फीसदी लोग इसके शिकार हैं। इस सूची में सबसे नीचे है चीन है जहां 12 प्रतिशत लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में 12 करोड़ 10 लाख लोग डिप्रेशन का शिकार होते हैं जिसमें से साढ़े आठ लाख लोग अपनी जान तक दे देते हैं। भारत में मध्यम आयु से ही लोग डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। यहां डिप्रेशन के शिकार लोगों की औसत उम्र 32 साल के आसपास है। भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में डिप्रेशन का प्रकोप दोगुना है।
भारत में दसवीं सामान्य बीमारी
भारत में डिप्रेशन आज दसवीं सबसे सामान्य बीमारी है। विश्व स्वास्थय संगठन की इंवेस्टमेंट इन हेल्थ रिसर्च एंड डेवलपमेंट नामक एक रिपोर्ट में आशंका व्यक्त की गयी है कि आने वाले समय में विकासशील देशों में डिप्रेशन विकलांगता का प्रमुख कारण बनने जा रहा है। विश्व बैंक ने भी अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि हृदय रोगों के बाद डिप्रेशन और अन्य मानसिक बीमारियां विकलांगता का दूसरा सबसे प्रमुख कारक होंगी। ऐसा माना जा रहा है कि सन 2020 तक हमारे देश में डिप्रेशन दूसरी सबसे आम बीमारी हो जायेगी और उस समय तक यह महिलाओं की सबसे आम बीमारी होगी। ऐसा नहीं है कि डिप्रेशन आधुनिक बीमारी है। प्राचीन भारत में भी डिप्रेशन के उदाहरण हैं। महाभारत में अर्जुन के रणभूमि में डिप्रेशन का शिकार होने का जिक्र है। वह श्रीकृष्ण की साइकोथेरेपी एवं काउंसलिंग के जरिये ही ठीक हुए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल एवं सुप्रसिद्ध भारतीय फिल्मी शख्सियत गुरुदत्त भी डिप्रेशन के शिकार थे।
क्या-क्या हैं वजह
देश में हर कदम पर समस्याएं हैं। ट्रैफिक जाम है तो कभी पानी नहीं आ रहा तो कभी बिजली की आपूर्ति ठप है, कभी एसी ठीक नहीं तो कभी पंखा, वाहन की समस्या। कामकाज और घर, सभी जगह समस्याओं की लाइन लगी है। यही समस्याएं मानसिक रोग पैदा कर रही हैं। शहरों की अपनी समस्याएं हैं तो गांवों की अपनी यानि कोई हिस्सा ऐसा नहीं जो समस्यामुक्त हो। राजनीतिक नेतृत्व से हताशा भी चैन नहीं लेने दे रही। बढ़ती मंहगाई और हिंसा जैसी आर्थिक-सामाजिक समस्याओं के कारण भी मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। जानकारों के अनुसार काम में बढ़ती प्रतियोगिता और खुद के लिए वक्त न होना इसकी मुख्य वजह है। घर से निकालने से लेकर दफ्तर पहुंचने , बॉस द्वारा काम का दबाव और अन्य प्रतियोगिताओं में खुद को बनाए रखने की जद्दोजहद लोगोें को हर वक्त तनाव दे रही है। तनाव ने हर वर्ग के व्यक्ति को अपनी चपेट में ले लिया है। छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक को टेंशन है। भागमभाग के बीच लोगों के पास योगा करने तक का वक्त नहीं है। लोगों की सहनशक्ति कम हो गई है। जरा सी बात पर गुस्सा बढ़ते तनाव का संकेत है। समस्या इस तेजी से बढ़ रही है कि भारत में अन्य देशों की तुलना में डिप्रेशन के सबसे ज्यादा मरीज हो गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनिया का पहला देश है जहां सबसे ज्यादा लोग डिप्रेशन के मरीज बन रहे हैं। डिप्रेशन वैसी मानसिक बीमारी है जो आत्महत्या का कारण बनती है। संगठन के अनुसार, भारत में 36 प्रतिशत लोग गंभीर डिप्रेशन अर्थात मेजर डिप्रेसिव एपिसोड के शिकार हैं। विभिन्न अनुमानों के अनुसार, देश में मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या पांच करोड़ तक पहुंच चुकी है।
सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी दोषी
हाल के विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि नेटवर्किंग साइट्स का बहुत अधिक इस्तेमाल डिप्रेशन, एंजाइटी, मानसिक तनाव, ओसीडी जैसी मानसिक समस्याएं पैदा कर रहा है और कई बार इनकी परिणति खुदकुशी के रूप में भी हो सकती है। इन साइट्स के बढ़ते इस्तेमाल के कारण मानसिक समस्याएं पैदा होने के मामले भारत में भी बढ़ रहे हैं और ये देश में मानसिक रोगियों की संख्या में इजाफा के एक प्रमुख कारण हो सकते हैं। मानसिक आरोग्यशाला, आगरा के चिकित्सक डॉ. मनीष जैन के मुताबिक, उनके पास इलाज के लिए आने वाले ऐसे युवकों एवं बच्चों की तादाद बढ़ रही है जो देर रात तक इंटरनेट सर्फिंग एवं चैटिंग करने के कारण अनिद्रा, स्मरण क्षमता में कमी, चिड़चिड़ापन और डिप्रेशन जैसी समस्याओं से ग्रस्त हो चुके हैं। देर रात तक जागकर इंटरनेट के ज्यादा इस्तेमाल की लत के कारण बच्चों एवं युवा मानसिक बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। यह पाया गया है कि महानगरों एवं बड़े शहरों में बड़ी संख्या में युवा नींद संबंधी समस्याओं के शिकार हैं। क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट संस्कृति सिंह बताती हैं कि फेसबुक पर व्यक्ति जब तक रहता है तो उसका कई लोगों के साथ वर्चुअल रिलेशनशिप बनती है, लेकिन फेसबुक की दुनिया से बाहर आते ही व्यक्ति अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। फेसबुक के कारण वास्तविक संबंध भी प्रभावित होते हैं जिससे वास्तविक जिंदगी में समस्याएं आती हैं। ये समस्याएं व्यक्ति को मानसिक तनाव और अन्य मानसिक बीमारियों से ग्रस्त कर सकती हैं। इस समय दुनियाभर में फेसबुक के 90 करोड़ और ट्विटर के 50 करोड़ से अधिक यूजर्स हैं और इनकी संख्या में हर घंटे तेज वृद्धि हो रही है। बच्चों, किशोर एवं युवा स्मार्टफोन, लैपटॉप एवं डेस्कटॉप के जरिये फेसबुक या अन्य सोशल नेटवर्किंग साइटों पर चैटिंग करने अथवा तस्वीरों एवं संदेशों का आदान-प्रदान करने में अधिक समय बिताते हैं।
जल्द मौत की दस्तक
घबराहट और तनाव जैसी मानसिक बीमारी वाले लोगों की जल्दी मौत हो सकती है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और एडिनबरा यूनिवर्सिटी के एक शोध से उजागर हुआ है कि तनाव और घबराहट जैसी बीमारियां भी 16 प्रतिशत तक मौत का खतरा बढ़ा सकती है। शोधकर्ताओं ने दिल और कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से समय से पहले होने वाली 68,000 मौतों की जांच की। सामने आया कि अगर शराब पीने और धूम्रपान जैसे कारणों को ध्यान में रखा जाए तो घबराहट जैसी बीमारियों से 16 प्रतिशत तक मौत का खतरा बढ़ सकता है। तनाव और घबराहट की बढ़ती समस्या इस खतरे को 67% तक बढ़ा सकती है। गंभीर मानसिक बीमारियों से लोगों में खतरे के प्रमाण पहले से ही मौजूद हैं। हल्के तनाव के मामले भी चिंताजनक हैं। हर चार में से एक व्यक्ति इससे प्रभावित माना जाता है। शोध में 10 साल के आंकड़ों पर नजर डाली गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह अब तक का सबसे बड़ा शोध है जिसमें तनाव और मौत के संबंध को दिखाया गया हो। इसके मुख्य लेखक डॉक्टर टॉम रस्स कहते हैं, यह तथ्य कि कम तनाव में भी मृत्यु दर बढ़ रही है इसके आधार पर यह जानने के लिए भी शोध होना चाहिए कि क्या इन मामूली बीमारियों के इलाज से मौत का खतरा कम हो सकता है। दुख की बात ये है कि यह निष्कर्ष ज्यादा हैरान नहीं करते। उन्होंने कहा, स्वास्थ्य के व्यवसाय से जुड़े लोगों में इस तरह की बीमारियों के बारे में जानकारी का अभाव है जिसका मतलब यह है कि लोग हर रोज बेवजह ही मर रहे हैं।
परिजनों को ध्यान देने की जरूरत
गंभीर डिप्रेशन के मरीज अपनी बीमारी के चरम अवस्था में आत्महत्या जैसा कदम कम उठाते हैं लेकिन जब बीमारी कम हो रही होती है तब उनके आत्महत्या करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में परिवार की भूमिका ज्यादा हो जाती है। इसका कारण यह है कि डिप्रेशन की चरम अवस्था में मरीज का मानसिक बल इतना अधिक नहीं होता कि वह जो सोचता है उसे पूरा कर ले लेकिन जब उसकी बीमारी कम होती है तब उसके अंदर यह मानसिक बल आ जाता है कि जो वह सोचता है उसे क्रियान्वित कर लेता है इसलिये इलाज पूरा होने तक मरीज की निगरानी बहुत आवश्यक है। मनोचिकित्सकों के अनुसार डिप्रेशन की समस्या इतनी आम है कि मनोविज्ञान में इसें कॉमन कोल्डॉफ साइकेट्री कहा जाता है। जिस तरह व्यक्ति को जुकाम हो जाता है, उसी तरह डिप्रेशन हो जाता है।
डिप्रेशन के लक्षण
-- लगातार नींद न आने की शिकायत
-- मन में निराशा लगना, उत्साह की कमी
-- किसी समारोह या अन्य कार्यक्रम में न जाने की इच्छा
-- जरा-सी बात पर गुस्सा आ जाना
सिजोफ्रेनिया के लक्षण
पीड़ित दूसरों पर शक करने लगता है
मारपीट करना, बेहद गुस्सा आना
कोई बात करे, तो हमेशा लगना मेरी ही बुराई कर रहा है।
खुद के कान में अजीब सी आवाजें महसूस होना
No comments:
Post a Comment