Tuesday, March 18, 2014
काल्पनिक दुनिया के दंश
सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नजर रखने के लिए अमेरिकी निगरानी तंत्र तैयार है। उसने वायरस भेजकर फेसबुक के सर्वर की नकल कर ली है, डाटा कॉपी करने की प्रक्रिया जारी है, एक क्लिक में जिस प्रोफाइल की चाहे, पूरी हिस्ट्री अपने पास मंगा सकता है। बात इतनी सी नहीं, याहू और गूगल जैसी कंपनियां सकते में हैं। आपातकालीन उपाय शुरू हो गए हैं, अमेरिका से इंटरनेट आजादी के लिए अपील की गई है। कंपनियां चाहें कुछ भी कहें-करें लेकिन मीडिया का यह नया अवतार अधिकारों के दुरुपयोग और माहौल बिगाड़ने के संगीन आरोपों में घिरने लगा है। बेशक, मुखर आवाजों को इसने मंच दिया है, बदलाव के रास्ते खोले हैं लेकिन यह आजादी गले में फंसने भी लगी है।
फेसबुक जैसी सोशल नेटर्वकिंग साइट्स का कितना विस्तार हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं। यह शहरों की सीमाओं से पार है, मोबाइल डाटा कार्ड्स-डोंगल्स ने इसे गांवों तक पहुंचा दिया है। हर वर्ग सक्रिय है, मुखर है। जो मन आता है, लिख-शेयर कर देता है। ताकतवर सरकारें भी इसकी अनदेखी नहीं कर पा रहीं। इसी ताकत का ही असर है कि भारत में कुछ दिन बाद होने जा रहे लोकसभा चुनावों में लोगों की नब्ज जांचने का एक पैमाना इसे भी मान लिया गया है। इन साइट्स पर ज्यादा सक्रिय लोग आज किसी हस्ती से कम नहीं। फॉलोअर्स और फ्रेंड्स में जो जितनी ज्यादा बात पहुंचा रहा है, उसका उतना ही महत्व है। आइरिश नॉलेज फाउंडेशन एवं इंडियन इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन के सर्वेक्षण के अनुसार, आज फेसबुक उपयोगकर्ताओं की संभावित संख्या 160 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में रह रहे लोगों के लगभग बराबर है और 2009 के संसदीय चुनावों में जीत के अंतर की तुलना में काफी अधिक। बेशक, देश में इंटरनेट की पहुंच मात्र 10 फीसदी लोगों तक ही है लेकिन इंटरनेट उपयोग के मामले में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। एक अनुमान के अनुसार, देश में करीब 65 लाख लोग सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। मोबाइल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगभग 39.7 लाख के आसपास है जिसमें 82 फीसदी लोग सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं।
तस्वीर का नकारात्मक पहलू देखें तो न्यू मीडिया का दुष्प्रभाव भी सामने आने लगा है। यह इतना भारी-भरकम हो चुका है कि जरा सी भी नकारात्मकता बड़ा असर दिखाने में पूरी तरह सक्षम सिद्ध होती है। यह अगर किसी की छवि बना सकता है तो बनाने से ज्यादा रफ्तार से उसे बिगाड़ भी सकता है। ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं, सोशल मीडिया की उपज मानी जाने वाली भारत की नई राजनीतिक शक्ति आम आदमी पार्टी का ही उदाहरण लें। फेसबुक और ट्विटर पर इस पार्टी के साढ़े चार हजार से ज्यादा फर्जी प्रोफाइल हैं। यह लोग यदि एकजुट हो जाएं तो आम आदमी पार्टी की छवि एक झटके में जमींदोज कर सकते हैं। भाजपा और कांग्रेस जैसे दल भी इसी समस्या से दो-चार हो रहे हैं। दुष्प्रभाव और भी हैं। सोशल नेटर्वकिंग साइट्स लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए हैं लेकिन यह समाज में विकृतियां भी फैला रही हैं। फेसबुक की आभासी दुनिया मिले बगैर एक-दूसरे से जुड़ा रखती है। एक-दूसरे के सपने, सुख-दु:ख बांटती भी है और दूसरे ही पल रिश्तों को ब्लॉक कर आगे बढ़ जाती है। गावों-शहरों में भी फेसबुक का एक इस तरह का संसार बन चुका है जिसमें दिन-रात कमेंट, लाइक और शेयर का खेल चलता रहता है। युवाओं का एक बड़ा हिस्सा फेसबुक का आदी बन चुका है। यह एडिक्शन उनकी जिंदगी में ऐसा सूक्ष्म बदलाव ला रहा है, जिसका अंदाजा वे नहीं लगा पा रहे हैं। उनके लिए फेसबुक स्टेटस सिंबल है। अमेरिका में फेसबुक यूजर्स पर हुए अध्ययन के मुताबिक, फेसबुक पर ज्यादा समय बिताना अवसाद बढ़ा रहा है। आभासी दुनिया यूजर्स को वास्तविकता से परे ले जा रही है। और तो और... जाति और समाजों में दुर्भाव फैलाने में भी इसकी भूमिका उजागर हुई है।
ऐसी स्थितियों में अमेरिका अगर निगरानी तंत्र बना रहा है तो उसे एक हद तक सही माना जाना चाहिये। फेसबुक और ट्विटर के साथ अमेरिकी निगरानी के विरुद्ध एकजुट हुर्इं गूगल, एपल, माइक्रोसॉफ्ट, लिंक्डइन, एओएल, पॉलटॉक, स्काइप जैसी कंपनियां विपरीत प्रभावों के लिए कोई तंत्र बनाने में असफल सिद्ध हुई हैं। समस्या यहीं खत्म नहीं होती, ह्वाट्सएप के समानांतर तेजी से खड़े हुए टेलीग्राम जैसे एंड्रायड मैसेंजर तो सीक्रेट चैट जैसे आॅप्शन दे रही हैं, जो वह अपने सर्वर पर भी रिकॉर्ड नहीं करतीं। मान लीजिए कि यदि दो उग्रवादी आपस में सीक्रेट चैट से किसी साजिश को अंतिम रूप दें तो उसे पता लगा पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव होगा। बेशक, फेसबुक के संचालक मार्क जुकरबर्ग की इस बात से किसी को असहमति नहीं होगी कि अमेरिका को इंटरनेट अधिकार बाधित करने के बजाए उनके संरक्षण के उपाय करने चाहिये लेकिन वह यह नहीं बता रहे कि तमाम देशों की सरकारों से आग्रह आने के बावजूद उन्होंने अपने स्तर से निगरानी का तंत्र क्यों नहीं बना पाए। स्ट्जिरलैण्ड की सरकार ने तो यहां तक कहा था कि फेसबुक जैसी साइट्स निगरानी तंत्र बनाएं, बेशक सरकारों के सूचनाएं तभी दें जबकि कोई देश विरोधी गतिविधि में उनकी आवश्यकता महसूस हो। कहने का आशय यह कतई नहीं कि निगरानी के लिए अमेरिका का कदम पूरी तरह सही है किंतु कंपनियों को भी अपनी जिम्मेदारी हर सूरत में निभानी चाहिये। जिस तरह की घटनाएं हुई हैं, सबक मिले हैं, उससे इन आंशिक पाबंदियों की जरूरत महसूस हुई है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment