Saturday, March 1, 2014
आधुनिकता के ये ढोंग
असम के जोरहाट जिले में आदिवासी महिला बोंटी को उसके पति ने जलाकर मार डाला और मथुरा के गांव में दलित महिला राजकुमारी को मनोकामना पूरी होने पर मंदिर में जेहर नहीं चढ़ाने दी गई। दोनों महिलाएं उस समाज की हैं जिसके उन्नयन के लिए तमाम बातें होती हैं, आरक्षण जैसे उपाय किए जाते हैं, लेकिन सच्चाई क्या है, इसका पता अक्सर होने वाली ऐसी ही घटनाओं से लगता रहता है। ऐसा हो क्यों रहा है, सतही तौर पर तो लगता है कि यह आधुनिक होने की जद्दोजहद में जुटे समाज में पुरातन मान्यताओं के उल्लंघन का नतीजा है या त्वरित परिवर्तन की इच्छाओं का या फिर सामाजिक विद्वेष समाप्ति के दावों की सच्चाई यही है।
बोंटी पंचायत प्रतिनिधि थी और कांग्रेस की सक्रिय कार्यकर्ता। राहुल गांधी की सभा से देरी से लौटने पर गुस्साए पति ने उसकी जान ले ली। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पति राहुल गांधी का चुम्बन लेने पर बोंटी से नाराज था। राजकुमारी भी दलित ही है, जिसे समानता के संवैधानिक प्रावधानों पर शायद भ्रम था। यह भ्रम मंदिर के पुजारी ने तोड़ा और वह अपनी गलती मानने को राजी भी नहीं। अडिग है कि अपने रहते किसी दलित-अछूत को मंदिर में घुसने नहीं ंदेगा। बोंटी कांग्रेस की कार्यकर्ता थी, उसकी सीमाएं घर की देहरी तक नहीं थीं, पंचायत की बैठकों में सक्रिय हिस्सेदारी थी उसकी। पति ने सत्ताधीश बनकर उसकी यह उपलब्धियां बोंटी के साथ ही फूंक दीं। दोनों मामलों में कानूनी कदम उठेंगे लेकिन क्या उसका असर होगा? नहीं, अगर असर होता तो आजादी के इतने साल बाद भी ऐसी घटनाएं नहीं हुई होतीं। पहली घटना के सम्बन्ध में इससे किसी को इंकार नहीं होगा कि समाज में महिलाओं के लिए खतरे कम होने के बजाय बढ़े हैं। बदलाव के साथ खूबियां और खामियां दोनों ही जुड़े होते हैं। भारतीय समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति को लेकर भी हालात कुछ ऐसे ही हैं, खासकर यौन-शोषण आज ऐसा मुद्दा है जिससे महिलाएं सर्वाधिक पीड़ित हैं। किसी भी रूप में शोषण निंदनीय है। यह समाज के मानकों के खिलाफ है, सभ्य और स्वस्थ समाज के नियमों का उल्लंघन है। यह सामाजिक मूल्यों के हृास का मुद्दा है। बोंटी का उदाहरण बताता है कि बदलाव की बयार के साथ महिलाएं सशक्त हुई हैं, उन्हें राजनीतिक तंत्र में स्थान मिलने लगा है किंतु पुराने समय की तरह पति का अहं आज भी उसके रास्ते की बेड़ी है जिसमें उसे जान तक गंवानी पड़ जाती है।
राजकुमारी जिस जाति व्यवस्था का दंश भुगत रही है, वह समाज की पुरानी बीमारियों में शुमार है। हालांकि भारतीय समाज में मूलत: किसी के साथ किसी भी दृष्टि से भेदभाव को कभी स्वीकार नहीं किया गया है। जाति, पंथ या आस्था के आधार पर भेद करना हमारी संस्कृति नहीं है पर, एक विशिष्ट कालखण्ड में ये कुरीतियां हमारे समाज में प्रवेश कर गयीं। मथुरा की घटना एक बार फिर सिद्ध करती है कि इन कुप्रथाओं को समाज से पूरी तरह निकाल बाहर करना एक बड़ी चुनौती है और हम उस पर खरे उतर नहीं पा रहे हैं। कभी हमारे समाज में श्रम का महत्व था पर समय चक्र के साथ समाज में जाति प्रथा आ गई और फिर वह हमारी संस्कृति का एक अंग-सा बन गयी। हमारा पूरा समाज जातियों-उपजातियों में बंट गया। कुछ सीमित मायनों में जाति अपने समाज को संरक्षण तो देती है, पर साथ ही साथ उसकी प्रगति को अवरुद्ध भी कर देती है। इस जाति प्रथा का सबसे बड़ा दोष है कि इससे समाज में समरसता के अभाव का निर्माण होता है। आरक्षण जैसे सत्ताधीशों के प्रयास इस खाई को और बढ़ा देते हैं, जिस आरक्षण को उपेक्षित जातियों के उन्नयन के लिए प्रारंभ किया गया था, वह सामाजिक विषमता का विषय बनने लगा। जाति व्यवस्था से जन्मी विषमता समाज के लिए खासी नुकसानदेह है, इस पर सभी का मतैक्य है पर इसे कैसे बाहर किया जाए, इस पर मतभिन्नता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि हजारों वर्षों से चली आ रही इस कुप्रथा का निर्मूलन कुछ वर्षों या दशकों में होने की उम्मीद रखना एक भूल होगी। यह कोई क्रांति नहीं कि एक रात में तस्वीर बदल जाए। इसके लिए लम्बे समय तक धैर्यपूर्वक प्रयास करने की जरूरत है। यह समाज की मानसिकता बदलने की बात है। यह एक लम्बी चलने वाली प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे ही सफल होगी। इसके लिए संयम की आवश्यकता है। इस कुप्रथा पर केवल प्रहार करने से काम नहीं बनने वाला। समाज के अंदर घुल-मिल कर, उसे समझाकर, नम्रता के साथ व्यवहार करते हुए सारी स्थिति स्पष्ट करके ही यह कुप्रथा दूर करनी होगी। यही रास्ता उचित भी होगा। मथुरा का प्रकरण बता रहा है कि हमारे प्रयास गंभीर नहीं रहे और हम प्राथमिक स्तर के नतीजों को ही अंतिम मानकर व्यवहार करने लगे हैं। दुर्भाग्य से हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी राजनीति और राजनेताओं का बड़ा दखल है। कोई बात अगर राजनीति में उलझ जाए तो वह जटिल बन जाती है। राजनीतिक दलों ने विषमता एवं जातिप्रथा को अपने फायदे के लिए एक मोहरा बना लिया है और अपने लाभ के लिए वह इसका समय-समय पर इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते। जाति आधारित प्रकोष्ठ गठित किए गए हैं, हाईकोर्ट के स्पष्ट आदेशों के बावजूद चोरी-छिपे समरसता जैसे नाम देकर जाति सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं जिनमें राजनीतिक पार्टियां समाज से जातिभेद भुलाने का आह्वान करने के बजाय उसे अपनी जाति के नाम पर संघर्ष करने को उकसाती हैं। इस आक्रमण का प्रतिकार करना आसान नहीं है। हमारे समाज के हर जाति के नेताओं को इस विषय को गंभीरता से लेते हुए जाति व्यवस्था से उत्पन्न विषमता के दानव तथा राजनीतिक दलों की विघटनकारी राजनीति से एक साथ लड़ने की आवश्यकता है। यही समय की मांग भी है।
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