Saturday, March 1, 2014

पूर्वोत्तर के साथ सौतेलापन

... तो क्या पूर्वोत्तर की किस्मत करवट लेने के लिए तैयार है? बदहाली की कहानियां बीते जमाने की बात बनने जा रही हैं? उपेक्षा जो दंश देश का यह हिस्सा आजादी के पहले दिन से भोग रहा है, वो क्या खत्म होने जा रहा है? दो खबरें ऐसी उम्मीद जगा रही हैं, वह भी उन दिनों में जब अरुणाचल के विधायक पुत्र नीडो तानियम की हत्या से वहां दुख का माहौल है। पहली बार पूर्वोत्तर का कोई सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल के पद का कार्यभार संभालने जा रहा है, दूसरी खबर ज्यादा अहम है कि पहली बार किसी राष्ट्रीय दल से सर्वोच्च वरीयता पर क्षेत्र को लिया है, भाजपा के प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेंद्र मोदी वहां गए हैं। अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट क्षेत्र में हुई सभा में उन्होंने विश्वास दिलाया है कि क्षेत्र की उपेक्षा का यह पुराना सिलसिला अब खत्म हो जाएगा। वह असम के सिल्चर में भी गए और सभा को संबोधित किया। मोदी पीएम बनें या नहीं, लेकिन पूर्वोत्तर को सियासत के मुख्य नक्शे पर लाने का श्रेय उन्हें जरूर मिलेगा। प्राकृतिक सौंदर्य से लबरेज पूर्वोत्तर राज्यों की खूबियां लम्बे समय से चल रहे अलगाववाद, हिंसात्मक उथल-पुथल के बीच दबकर रह गयी है और इनकी पहचान के साथ उग्रवाद जुड़ गया। हाल यह है कि देश के शेष हिस्सों के सामने इस क्षेत्र का सियासी, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलू का दबा-कुचला स्वरूप ही सामने आता है। पूर्वोत्तर की उपेक्षा की बात करते वक्त कई सवाल उठते हैं, देश के राजनेता क्यों इस तरह मुंह नहीं करते? क्यों उन्हें इस क्षेत्र की चिंता नहीं होती, समस्याओं से मुक्ति दिलाने का सपना दिखाकर पड़ोसी देश चीन भीतर तक घुसने में कामयाब होता है तो क्यों स्थानीय लोग उसके साथ खड़े होते हैं? खूबसूरत प्राकृतिक संपदा वाले देश के इस हिस्से में पर्यटन की योजनाएं क्यों परवान नहीं चढ़तीं? जबकि केंद्र खुद यह मानकर चलता है कि यदि पर्यटन उद्योग के रूप में विकसित हो जाए क्षेत्र विकास के लिए धन का टोटा खत्म हो सकता है। इन सभी सवालों का एक ही जवाब है कि क्षेत्र का राजनीतिक नेतृत्व बेहद कमजोर है और लोकसभा की सीटें इतनी नहीं कि कोई राजनीतिक दल सत्ता की कुंजी मानकर उसे टॉप प्रॉयर्टी पर रखे। लोकसभा सीटों का परिसीमन भी इतना बेढ़ब है कि 38 लाख की आबादी वाले अंडमान-निकोबार का नेतृत्व एक सांसद करता है और 39 हजार की आबादी वाले लक्षद्वीप का भी एक ही सांसद है। वर्ष 1975 में सिक्किम भारतीय संघ का अंग बना तब से सिक्किम को सिर्फ एक लोकसभा सीट मिली है। बीस लाख की आबादी वाले नगालैंड और दस लाख की जनसंख्या वाले मिजोरम भी महज एक-एक सांसद से संतोष कर रहे हैं। इसी तरह त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय में दो-दो और पुड्डुचेरी में सिर्फ एक संसदीय सीट है। असम में चूंकि 14 लोकसभा सीटें हैं, इसलिये वहां का विकास भी हुआ है और राजनीतिक दल उसे खासी अहमियत भी प्रदान करते हैं। इसीलिये समस्याओं के ढेर लगे हैं। अगर कोई पर्यटक यहां घूमने जाना भी चाहे तो मुश्किलों का अंबार उसके हौसले को रोकने की कोशिश करता है। सीधी क्या, अहम शहरों में ट्रेनों की इनडायरेक्ट कनेक्टिविटी भी नहीं है। हवाई रूट नहीं हैं। संपर्क के जरिए इतने दुरूह हैं कि पूर्वोत्तर में अलगाववादियों ने विस्तार पा लिया है। असुरक्षा का उदाहरण देखिए, दुकानदारों और यहां तक सरकारी अफसरों से भी, अलगाववादी चौथ वसूल लेते हैं। राज्य के व्यावसायिक शहर दीमापुर को छोड़ कर राजधानी कोहिमा सहित सभी शहर, बाजार शाम चार-पांच बजते-बजते बंद हो जाते हैं। सड़कों पर वाहनों का आना-जाना लगभग समाप्त हो जाता है। शाम होते ही शहर में सैनिक मोर्चा संभाल लेते हैं, मानो कर्फ्यू लग गया हो। यह क्षेत्र भारत का हिस्सा है या नहीं, इसका फैसला तभी हो जाता है जब असम पार करते ही आॅल इंडिया रोमिंग सुविधा फोन काम करना बंद कर देते हैं। इंफाल राजधानी है मणिपुर की लेकिन यहां सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों की शाखाएं ही नजर नहीं आतीं, निजी क्षेत्र की बैंकें तो बहुत दूर की बात हैं। सूचना क्रांति, 3जी-4जी नेटवर्क जैसी बातें इस क्षेत्र के लिए सपने से कम नहीं। फिर समस्या का समाधान क्या है। बकौल मोदी, देश की सरकार को इस क्षेत्र की तरफ पूरा ध्यान देना चाहिये और चीन को विस्तारवादी नीति छोड़कर विकास की तरफ रुख करना चाहिये। वाकई, समस्या पर ध्यान देने का यह अहम वक्त है वरना स्थितियां काबू से बाहर हो सकती हैं। नीडो की हत्या से एक गलत संकेत यह मिला है कि देश के अन्य हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों को लेकर कोई अच्छा भाव नहीं है और वह उनसे विदेशियों की तरह व्यवहार करते हैं। नस्ली भेदभाव के ताजा घटनाक्रमों के संदर्भ में फौरी कदम उठाए जाने की जरूरत है। निरपराध नागरिकों की हिफाजत के लिए जो जरूरी हो, वह राज्य सरकारों को करना चाहिए, ताकि आग आगे फैलने न पाए। दोषियों पर सख्ती हर सरकार का पहला कदम होना चाहिये। राजनेताओं को भी आचरण सुधारना होगा, जरूरी है कि वह क्षेत्रवाद के उभार का फायदा उठाने के बजाए भारतीयता के लिए प्रतिबद्धता जाहिर करने में कोई कसर न छोड़ें। इसके साथ ही पूर्वोत्तर के राज्यों में विकास की गंगा बहाए जाने की आवश्यकता है। बड़े उद्योग घरानों को वहां उद्योग लगाने के लिए प्रेरित करना होगा क्योंकि अवसर और संसाधनों की कमी जब तक रहेगी, उपेक्षा का बहाना बनाकर संगठन संघर्ष की जमीन तैयार करते रहेंगे। यह सही है कि इस अभाव को रातोंरात दूर नहीं किया जा सकता, लेकिन जो और जैसा भी मौजूद है, उसे बांटने में पक्षपात बंद होना चाहिये।

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