Thursday, July 26, 2012

पवार का रूठना और मान जाना...

केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बगल वाली सीट पर रक्षामंत्री एके एंटनी को बैठाए जाने से खफा केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की कांग्रेस से नाराजगी दूर हो गई है। सहमति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की समन्वय समिति के गठन पर बनी है। मामला ऊपर से बेशक शांत हो गया हो लेकिन कुछ सवाल उत्तर तलाश रहे हैं। सवाल है कि पवार ने आखिर इतना बड़ा कदम केवल नंबर दो की हैसियत पाने के लिए किया? नंबर दो की हैसियत नहीं मिलना कांग्रेस और एनसीपी के बीच दरार का एक कारण हो सकता है पर पवार जैसे मंझे हुए राजनेता ऐसे दिखावटी पद पाने के लिए इतना कठोर फैसला नहीं ले सकते। पवार ने ऐसा कदम उठाकर एक तीर से तीन शिकार करने की कोशिश की। पवार ने यह संदेश देने का प्रयास किया कि दोबारा सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस राजनीतिक तौर पर उलझी हुई दिख रही है। यही नहीं पवार अपने फायदे के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी के बीच सत्ता संतुलन को फिर से परिभाषित करना चाहते थे। उनकी चाहत अगले विधानसभा चुनाव में अपने भतीजे को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने की है। इसके साथ ही पवार लोकसभा चुनाव में एनसीपी के लिए अधिक लोकसभा सीटें चाहते हैं, ताकि चुनाव के बाद कांग्रेस को समर्थन के बदले में कीमत वसूली जा सके। पवार यह भलीभांति जानते हैं कि अभी कांग्रेस अंदरूनी तौर पर उलझी हुई है और वह सहयोगियों को नाराज नहीं करना चाहेगी, ऐसे में अपनी शर्तें मनवाना आसान है। तीसरा कारण है, राहुल गांधी का कांग्रेस और सरकार में बड़ी जिम्मेदारी निभाने का संकेत देना। पवार ने अपने फायदे का यह सही वक्त समझा। संभावना है कि जल्द ही मंत्रिमंडल में फेरबदल होने वाला है। राकांपा सुप्रिया सुले को मंत्रिमंडल में शामिल कराने के लिए दबाव बनाए रखना चाहती है, वैसे भी उसके कोटे की मंत्री अगाथा संगमा त्यागपत्र सौंप चुकी हैं। पवार को जानने वाले मानते हैं कि उन्होंने सही समय पर वार करने की अपनी राजनीतिक शैली का बखूबी प्रयोग किया है। राहुल की ताजपोशी की जल्दबाजी में कांग्रेस के लिए यह संभव नहीं था कि उन्हें नाराज कर अपनी समस्या बढ़ाती। तृणमूल कांग्रेस वैसे ही उसके लिए बड़ा सिरदर्द साबित होती रही है। कांग्रेस ने भी संकट हल करने में इसीलिये जल्दी दिखाई है, सोनिया के दखल की भी यही वजह है। दरअसल, कांग्रेस ने स्पष्ट कह दिया है कि 2014 के आम चुनाव में उसके अभियान की कमान राहुल संभालेंगे। तय है कि अगर कांग्रेस को बहुमत वाले गठबंधन का नेतृत्व करने का मौका मिलेगा तो राहुल प्रधानमंत्री होंगे। पवार के लिए स्थिति साफ है, वे या तो खुद को बदल लें या अलग हो जाएं। उनकी असहजता में हैरान होने वाली कोई बात नहीं, सोनिया और मनमोहन पवार को मनाने की कोशिश सिर्फ इस कारण से कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें बदलाव पर सभी सहयोगियों की मुहर की जरूरत है, न कि इसलिए कि पवार एक बेहतरीन नेता हैं। पिछले आठ वर्षों से कांग्रेस ने सहयोगियों की कीमत पर अपनी ताकत बढ़ाने की पूरी कोशिश की है। सहयोगी दलों को कैबिनेट में दोयम दर्जा दिया। पवार जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तब वर्तमान कैबिनेट के अधिकांश सदस्य एमएलए की हैसियत भी नहीं रखते होंगे। उन्हें कृषि मंत्रालय जैसे अप्रिय दायित्व दिया गया। सहयोगी दलों को सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी नहीं दी गयी। सारे राज्यपाल कांग्रेस की पसंद के हैं। पवार न तो इस बात को भूले हैं कि 2004 में विधायकों की संख्या अधिक होने के बावजूद उन्हें महाराष्ट्र में कांग्रेसी मुख्यमंत्री स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। पवार ने यह कदम अभी क्यों उठाया, इसका एक और जवाब है। इस कदम के लिए वक्त का चुनाव मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के व्यापक विश्लेषण के बाद किया गया है। जब तक कांग्रेस चुनाव में वोट हासिल कर रही थी, तब तक सहयोगियों ने अपने सम्मान के साथ समझौता किया। लेकिन अब जब यह तय हो चुका है कि कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है तो दूसरे विकल्पों और ठिकानों की तलाश शुरू हो गयी है। इस हलचल का पहला असर महाराष्ट्र में महसूस किया जाएगा। कोई भी इसे सार्वजनिक तौर पर नहीं कहेगा, लेकिन शिवसेना और कांग्रेस दोनों इस बात को लेकर चिंतित हैं कि पवार अगले चुनाव में भाजपा के साथ परोक्ष या अपरोक्ष गठबंधन कर सकते हैं। इस बदलाव का घातक पहलू यह है कि शिवसेना और कांग्रेस कभी सहयोगी नहीं हो सकते। इसी संभावना को देखते हुए सेना पारिवारिक कलह को खत्म करने के लिए तेजी से कदम बढ़ा रही है. क्या पवार ने इसके परिणामों पर विचार किया है? या यह केवल दिखावा है, जिसका समाधान हो जाएगा? पवार जैसे अनुभवी राजनेता बिना सोचे-विचारे कोई खतरा नहीं उठाते हैं. वे हवा का रुख भांप लेते हैं। ममता बनजी भी जल्दी चुनाव चाहती हैं और वे अकेले लड़ेंगी. मुलायम सिंह अपनी पार्टी को 2013 के लिए तैयार रहने का संदेश दे रहे हैं। धीरे-धीरे यूपीए टोली बिखर रही है। लेकिन शरद पवार की नाराजगी की अन्य वजहों पर कई अटकलें लग रही हैं। कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में 26 हजार करोड़ के सिंचाई घोटाले और महाराष्ट्र सदन के निर्माण में एक हजार करोड़ के कथित घोटाले की आंच से बचने के लिए यूपीए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा में सिंचाई घोटाले को लेकर एक श्वेतपत्र भी पेश किया गया था। इसी पत्र में बीते 10 सालों में सिंचाई के नाम पर खर्च हुए 70 हजार करोड़ रुपये में से 26 हजार करोड़ रुपये के हिसाब-किताब न होने की बात कही गई है। पिछले कई सालों से महाराष्ट्र का जल संपदा मंत्रालय एनसीपी के कोटे के मंत्रियों के पास रहा है। इसके अतिरिक्त यूपीए के लिए समन्वय समिति का न होना, लवासा हिल स्टेशन प्रोजेक्ट को पर्यावरण मंत्रालय से हरी झंडी न मिलना, स्पोर्ट्स बिल में उनकी राय का अजय माकन द्वारा नजरअंदाज ठहराया जाना, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मतभेद, खाद्य सुरक्षा कानून, स्कूटर्स इंडिया के विनिवेश का प्रफुल्ल पटेल का प्रस्ताव खारिज किए जाने जैसी वजहें पवार और प्रफुल्ल पटेल की नाराजगी की वजह के तौर पर गिनाई जा रही हैं। एक तबके का यह भी आंकलन है कि पवार की नाराजगी की चार अहम वजहें हो सकती हैं। इनमें पहला-प्रणब मुखर्जी के इस्तीफा देने के बाद पवार की निगाहें रक्षा, वित्त, विदेश या गृह मंत्रालय पर टिकी हैं। दूसरा-जूनियर नेता सुशील कुमार शिंदे को लोकसभा में नेता, सदन बनाए जाने की संभावना। तीसरा-भरोसेमंद सहयोगी होने की वजह से अच्छे मंत्रालय और फैसलों में ज्यादा भागीदारी। चौथा-कांग्रेस की अपने बूते पर फैसले लेने की आदत, राज्यपालों, बैंक निदेशकों की नियुक्ति में सहयोगी पार्टियों को नजरअंदाज करना शामिल है। राजनीतिक प्रेक्षकों का एक अन्य वर्ग कांग्रेस और एनसीपी के बीच मतभेद के लिए चार कारण गिनाता है। इनमें पहला कारण-तारिक अनवर को राज्यसभा का उपसभापति बनाया जाना, राज्यपाल की नियुक्ति पर फैसले में शामिल किया जाना। दूसरा-यूपीए के सहयोगी दलों के बीच को-आॅर्डिनेशन मेकैनिज्म बनाया जाना। तीसरा-कांग्रेस और एनसीपी की महाराष्ट्र ईकाई के बीच ज्यादा सहयोग और समन्वय और चौथा-कैबिनेट में नंबर दो की कुर्सी, भले ही सार्वजनिक तौर पर एनसीपी ने इससे इंकार किया हो।

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