Thursday, March 29, 2012

न्यायपालिका पर लगाम का मकसद...

केंद्र सरकार की मंशा क्या है? राजनेताओं के भ्रष्टाचार पर लगाम कस पाने में सक्षम लोकपाल से बचती है और न्यायपालिका पर चाबुक चलाने में जरा भी देरी नहीं लगाती। लोकसभा ने न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक पारित किया तो सबसे पहला सवाल यही उठा कि सरकार न्यायाधीशों को टिप्पणी करने से क्यों रोकना चाह रही है। यह सही है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का प्रवेश हुआ है, लेकिन फिर भी तमाम मौकों पर उसने पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका के स्तर से संविधान उल्लंघन रोका है, आम आदमी को न्याय प्रदान किया है। नए विधेयक में केस की सुनवाई के दौरान जजों को टिप्पणियां करने से रोकने का प्रावधान है। लेकिन यह कैसे संभव है और इसका तो बेहद खराब असर हो सकता है। सुनवाई के दौरान यह टिप्पणियां ही न्यायिक प्रणाली में निर्णय प्रक्रिया का एक हिस्सा होती हैं। इनके माध्यम से जज विचाराधीन प्रकरण के उस पहलू के छिपे हुए पहलू को ध्यान में लाते हैं। गुरुवार का ही उदाहरण लीजिए, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की फांसी रोकने के लिए राज्य सरकार के प्रयासों पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की। इस टिप्पणी का असर होगा, निचली अदालतों को मार्गदर्शन मिलेगा और संबंधित पक्ष जान पाएंगे कि उनका रास्ता ठीक है या गलत। इस तरह की टिप्पणी नहीं होगी तो न्याय देने और लेने वाले यानि दोनों पक्षों को रास्ता कौन दिखाएगा। इस प्रावधान को जजों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह प्रावधान जज को मूक निर्णयकर्ता बना देगा। वकील जिरह करेंगे और जज उन्हें चुपचाप सुनता जाएगा और जिरह खत्म होने के बाद निर्णय देकर मामला समाप्त कर देगा। वकीलों को यह नहीं पता लगेगा कि जज ने उनकी दलीलों को कितना समझा है? जज के सवालों और टिप्पणियों से उन्हें यह आभास हो जाता है कि उन्हें आगे किस तरह से तर्क रखने चाहिए? हालांकि यह भी सही है कि ये टिप्पणियां निर्णय का भाग नहीं होतीं और न ही इनमें निर्देश निहित होता है लेकिन इनके मायने बड़े होते हैं। समाज से जुड़े मामलों पर जजों की प्रतिक्रिया जरूरी सिद्ध होती है। नए वकीलों को इनसे मार्गदर्शन मिलता है। आजादी के बाद से अब तक यदि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका ही सबसे बेहतर माना जाएगा। इसीलिये यह प्रतिबंध न तो मुकदमे की पार्टियों के लिए उचित माना जा रहा है, न ही व्यवस्था के लिए। विधेयक के पीछे वजह हैं। लोकपाल पर हीलाहवाली से जलालत झेल रही सरकार नहीं चाहती कि मुकदमों की सुनवाई करते हुए जज कोई ऐसी टिप्पणी करें, जिनसे उसकी स्थिति असहज हो। सरकार भारतीय खाद्य निगम के भण्डारों में लाखों टन अनाज के सड़ने पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार लगने के बाद से ही गंभीर होने लगी थी। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले ने उसे और चिंतित कर दिया। अदालतों की टिप्पणियां इतनी तीखी हुईं और अखबारों की सुर्खियां बन गईं कि सरकार को लगने लगा कि आम जनता में गलत संदेश रोकने के लिए विधेयक पारित होना चाहिये। हालांकि तस्वीर का दूसरा रुख भी है, जिसमें न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का घुन लगता नजर आ रहा है। सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन तक स्वीकार कर चुके हैं कि न्याय के मंदिरों में भ्रष्टाचार पहुंचा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के मामले में हम अब शीर्ष 200 देशों में हैं। समस्या यह है कि जिस तेजी से न्याय मिलना चाहिए, वह लोगों को नहीं मिल पाता। यहीं से भ्रष्टाचार की शुरूआत होती है। देश में आबादी के अनुसार न्यायालय नहीं हैं। अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कई करोड़ पहुंच चुकी है। देरी से बचने के लिए पैसा चलने लगा है। पैसा पहुंचते ही भ्रष्टाचार करने के अन्य रास्तों की तलाश होने लगी है, लोग न्याय खरीदने लगे हैं। अदालती मामलों के निपटारे में पांच साल लगाना तो सामान्य-सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो पाना, आम लोगों के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं। विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो भ्रष्टाचार अपनी जगह बनाएगा ही... सरकार को फैसले करने से पहले यह भी सोचना चाहिये। देश में मुकदमों की संख्या को देखते हुए यह सोचने का सही वक्त है कि न्यायालयों की संख्या कैसे जल्दी से जल्दी बढ़ाई जाए। यह सच है कि अचानक कुछ भी नहीं किया जा सकता पर आज देश की हर तहसील में प्राथमिक न्यायलय तो स्थापित किये ही जा सकते हैं। इनको स्थापित करने में जो खर्च सरकार का होगा वह कुल मुकदमों पर बोझ कम कर बहुत सारे मानव दिवसों की बचत करा देगा। देश के मानव संसाधनों को ठीक ढंग से उपयोग करना आज प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि जब तक हम अपने संसाधनों को सही दिशा में नहीं लगाएंगे तो कोई भी लक्ष्य नहीं सध पाएगा। जरूरत सही दिशा में सोचने की है, महज बला टालभर देने से काम नहीं चलने वाला।

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