Monday, March 26, 2012

'पहरेदारों' से असुरक्षित सेना

सीमाओं की अहमियत क्या है, ये सैनिकों से ज्यादा कोई नहीं जानता। लेकिन जब एक लेफ्टिनेंट जनरल सेनाध्यक्ष के पास आफर लेकर जाता है तो पता चलता है कि हालात कितने खराब हो रहे हैं, सीमाएं कैसे लांघी जा रही हैं। जब हर जगह भ्रष्टाचार पर अंगुली उठ सकती है तो सेना पर क्यों नहीं, हम उस पर बड़ी राशि खर्च किया करते हैं। वर्ष 2012-13 के लिए प्रस्तावित आम बजट में रक्षा क्षेत्र के लिए कुल 1,93407 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। पिछले साल की तुलना में यह 17 फीसदी ज्यादा है। अपना 'पेट काटकर' हम सैन्य क्षेत्र पर व्यय कर रहे हैं तो क्यों न उठाएं सवाल? आम आदमी की खून-पसीने की कमाई से जब पुराने-जर्जर हथियार खरीदे जाते हैं, तो शक पैदा होता ही है। देश और इसके लिए जान देने वाले पैदल सैनिकों के कल्याण के लिए कुछ न करने वाला हमारा सत्ता प्रतिष्ठान, यदि साजो-सामान पर ही ध्यान केंद्रित करता है तो सवाल उठता है क्यों?
देश के सैन्य इतिहास में सबसे पहले 80 लाख रुपये का जीप घोटाला 1948 में हुआ था। बोफोर्स, बराक मिसाइल, कारगिल ताबूत, राशन घोटाला, वायुसेना भूमि घोटाला, आदर्श हाउसिंग और फिर फ्लाइंग क्लब घोटाला... फिर तो जैसे झड़ी सी लगी है। अब सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने खुलासा किया है कि एक लॉबिस्ट ने उन्हें भारतीय कंपनी की खराब क्वॉलिटी की 600 गाड़ियों को ज्यादा कीमत पर खरीदने की मंजूरी देने के लिए 14 करोड़ रुपये रिश्वत की पेशकश की थी। एक गाड़ी की कीमत 15 लाख के करीब है। वह गाड़ियां जिन पर चलकर सैन्य अमले को देश चलाना था, हम जिनके लिए पूरी कीमत अदा कर रहे थे, उन गाड़ियों को पुराना खरीदने की कोशिश थी यह। हमारी सेना विश्व की सबसे तेज़, सबसे चुस्त, बहादुर और देश के प्रति विश्वसनीय सेनाओं में शुमार है। सामरिक इतिहास बताता है कि हमारी सेना ने वो लड़ाइयां भी अपने जज्बे से जीत लीं जो दुश्मन के अत्याधुनिक शस्त्रों से भी नहीं जीत पाए। भ्रष्टाचार ने कई प्रतिष्ठानों को ढेर कर दिया और यह घुन सेना तक पहुंच रहा है तो चिंताएं बड़ी हैं। कई रक्षा सौदों को कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है। सोवियत संघ टूटने के बाद रूस बडे पैमाने पर अपने हथियार बेच या किराए पर दे रहा है जिसके सबसे बड़े खरीददार हम हैं। हम उससे पुराने विमानवाहक जहाज, पनडुब्बियां, हेलीकॉप्टर, तोपें, मिसाइलें आदि खरीद रहे हैं। बाजार में प्रतिस्पर्धी क्वालिटी लेकर खड़े हैं। रूस से खरीदे गए रक्षा सामान की भारत की रक्षा के लिए वास्तविक उपयोगिता और औचित्य को विशेषज्ञ नकारते रहे हैं। दुनिया के बाजार में नए जमाने के अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार है, फिर क्यों? 53 हजार करोड़ रुपए के किराए पर 10 वर्ष के लिए एक पुरानी परमाणु-चालित पनडुब्बी हमने रूस से खरीदी है, एडमिरल गोर्शकोव नामक पुराने विमानवाहक जहाज का सौदा करीब 12 हजार चार सौ करोड़ रुपए में हुआ है, जिसे भारतीय नौसेना ने ‘आईएनएस विक्रमादित्य’ नाम दिया है। गोर्शकोव इतना जर्जर है कि रूस अपनी गोदी में करीब तीन साल से उसकी मरम्मत कर रहा है। वर्ष 2007 में अमेरिका से हेलीकॉप्टर और एक पुराना जहाज 450 करोड़ रुपए में खरीदा गया था। हमारे पास रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन जैसे विश्व स्तरीय शोध संस्थान हैं, फिर क्यों हम पुराने हथियार और सैन्य सामान खरीदते हैं? हाल ही में जब हमारी सरकार ने फ्रांस से करीब 54 हजार करोड़ के 26 लड़ाकू विमान सौदे को अंतिम रूप दिया। इसमें एक विमान की लागत करीब 429 करोड़ रुपए होगी। 'राफाल' विमान बनाने वाली फ्रांस की डसॉल्ट कंपनी को इससे जीवनदान मिल गया।कंपनी ने इस विमान को 1986 से बनाना शुरू किया था लेकिन अभी तक एक भी विमान देश से बाहर नहीं बेच पाई थी। भारत से यह सौदा नहीं हुआ होता तो डसाल्ट कंपनी को अपना कारखाना बंद करना पड़ता।
यह सौदे राजनीतिक अहमियत भी रखते हैं। फ्रांस से सौदा नहीं हुआ होता तो वहां के दक्षिणपंथी निकोलस सरकोजी मुंह छिपाने को मजबूर हो जाते। सर्वे में खुलासा हुआ था कि इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ गई है। फ्रांस में मई में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। डील के बाद इस क्षेत्र के अमेरिका जैसे खिलाड़ी बौखला गए थे। इस बेहद बड़े सौदे की प्रतिस्पर्धा में यूरोप के चार देशों ब्रिटेन, जर्मनी, स्पेन और इटली ने मिलकर निविदा लगाई थी और निर्णय के बाद उन्होंने राजनयिक स्तर पर इसे बदलवाने की कोशिश की। अमेरिका की बोइंग और लॉकहीड मार्टिन कंपनियों के प्रस्ताव ठुकराए गए। रूस और स्वीडन की कंपनियां भी इस सौदे के लिए बेहद लालायित थीं। जब इतनी बड़ी कम्पनियां होड़ में हों, देश के राजनीतिक समीकरण बन-बिगड़ रहे हों तो पैसा अपना रंग दिखाएगा ही। देश के आमजन का सेना पर खूब भरोसा है, वो निश्चिंत हैं कि पड़ोसी देशों की स्थितियों पर नेता चौकन्ने हों या नहीं लेकिन सेना की मुस्तैदी पूरी है। सेना हमारे साथ भावनात्मक रूप से जुड़ी है, एक दोस्त सेना। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जो हो रहा है, वह उसे निराश कर रहा है। गड़बड़ियों की यह कहानियां इशारा कर रही हैं कि स्थिति अब पहले जैसी नहीं है। कहीं कुछ बहुत ही गंभीर चल रहा है जो देश के लिए अहितकर है। दुखद ये है कि सेना से संबंधित अधिकांश भ्रष्टाचार और अपराध उच्चाधिकारियों के स्तर पर हो रहा है। छोटे पदों पर काम करने वाले अनुशासन के नाम पर हर तरह की सख्ती भुगत रहे हैं। साफ होने लगा है कि भारतीय सेना में वो लोग भी प्रवेश कर चुके हैं जिन्होंने देश की सुरक्षा के लिए वर्दी नहीं पहनी है। सेनाध्यक्ष का जान-बूझकर जन्मतिथि विवाद पैदा करने का आरोप भी सच लगने लगा है। जनरल के साथ अन्याय हुआ है, वह 'डर्टी ट्रिक डिपार्टमेंट' के निशाने पर हैं। हमें यह समझ लेना चाहिये कि भ्रष्ट के पास दौलत होती है और ईमानदार के पास मूल्य होते हैं। जनरल सिंह यही साबित कर रहे हैं।

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